अगस्त 2019 में सुप्रीम कोर्ट ने राज्यों की बॉन्ड पॉलिसी को बरकरार रखा था। तब सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि परा स्नातक और सुपर स्पेशलिटी कोर्स में दाखिले के वक्त डॉक्टर जो बॉन्ड भरते हैं, उन्हें उनका पालन करना होगा।
केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय डॉक्टरों के लिए बॉन्ड पॉलिसी को रद्द करने के दिशा-निर्देशों पर काम कर रहा है। सूत्रों से मिली जानकारी के मुताबिक, राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग की सिफारिशों के आधार पर मंत्रालय डॉक्टरों के लिए बॉन्ड पॉलिसी को खत्म करने की दिशा में दिशानिर्देशों को अंतिम रूप देने की दिशा में काम कर है। एनएमसी अधिनियम, 2019 या पूर्ववर्ती भारतीय चिकित्सा परिषद अधिनियम, 1956 और उसके तहत बनाए गए नियमों के तहत बॉन्ड का कोई प्रावधान नहीं है।
क्या है बॉन्ड पॉलिसी
बॉन्ड पॉलिसी के मुताबिक, डॉक्टरों को अपनी स्नातक और स्नातकोत्तर डिग्री पूरी करने के बाद राज्य के अस्पतालों या मेडिकल कॉलेज में एक विशिष्ट अवधि के लिए सेवा करने की आवश्यकता होती है। इस बॉन्ड को तोड़ने पर उन्हें राज्य को एक निश्चित आर्थिक दंड (प्रत्येक राज्य और केंद्र शासित प्रदेश द्वारा पहले से निर्दिष्ट राशि) का भुगतान करना पड़ता है। अनिवार्य सेवा की अवधि भी 1 वर्ष से 5 वर्ष के बीच भिन्न होती है। इस बॉन्ड का पालन न करने वालों पर 10 से 50 लाख रुपये जुर्माने का भी प्रावधान है। पीठ ने हिमाचल प्रदेश, आंध्र प्रदेश, गोवा, गुजरात, कर्नाटक, केरल, महाराष्ट्र, ओडिशा, पश्चिम बंगाल, राजस्थान सहित अन्य राज्यों द्वारा थोंपे गए ऐसे बांड को सही करार दिया है।
साल 2019 में सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में बरकरार रखी थी बॉन्ड पॉलिसी
गौरतलब है कि अगस्त 2019 में सुप्रीम कोर्ट ने राज्यों की बॉन्ड पॉलिसी को बरकरार रखा था। तब सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि परा स्नातक और सुपर स्पेशलिटी कोर्स में दाखिले के वक्त डॉक्टर जो बॉन्ड भरते हैं, उन्हें उनका पालन करना होगा। शीर्ष अदालत ने कहा था कि राज्य सरकार अपने अधिकारों का इस्तेमाल कर डॉक्टरों को अनिवार्य सेवा देने के लिए कह सकते हैं। कोर्ट ने दो टूक कहा है कि यह मौलिक अधिकारों का उल्लंघन नहीं है।
हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार और मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया को सरकारी कॉलेजों से प्रशिक्षित डॉक्टरों के लिए अनिवार्य सेवा को लेकर एकसमान नीति बनाने के लिए भी कहा था। सुप्रीम कोर्ट ने विभिन्न पहलुओं पर गौर करने के बाद इस दलील को खारिज कर दिया कि डॉक्टरों के लिए जन सेवा के लिए बाध्य करना संविधान के अनुच्छेद-21(जीवने जीने का अधिकार) का उल्लंघन है।
सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के बाद बनाई गई थी समिति
सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के बाद स्वास्थ्य मंत्रालय ने 2019 में मामले की जांच के लिए स्वास्थ्य सेवा महानिदेशालय के प्रधान सलाहकार डॉ बी डी अथानी की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया था। समिति ने मई 2020 में अपनी रिपोर्ट पेश की थी। जिसके बाद इसे राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग (एनएमसी) को भेज दिया गया था।
राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग ने दिया था यह सुझाव
एनएमसी ने फरवरी 2021 में अपनी टिप्पणी प्रस्तुत की। इसने कहा कि रिपोर्ट स्पष्ट रूप से मोडिकल छात्रों के लिए विभिन्न राज्य सरकारों द्वारा बॉन्ड शर्तों को अनिवार्य रूप से लागू करने पर नीतियों का समर्थन नहीं करती। आयोग ने कहा कि विभिन्न राज्यों द्वारा बॉन्ड पॉलिसी की घोषणा के बाद से देश में चिकित्सा शिक्षा में बहुत कुछ बदल गया है इसलिए इसकी समीक्षा किए जाने की जरूरत है। साथ ही आयोग ने यह सुझाव भी दिया कि मेडिकल छात्रों पर किसी भी बंधन का बोझ नहीं होना चाहिए। ऐसा करना नैसर्गिक न्याय के सिद्धांतों के विपरीत हो सकता है। तब से, यूनिफॉर्म बॉन्ड नीति के संचालन पर विचार-विमर्श करने के लिए बैठकें हुई हैं।
गौरतलब है कि एनएमसी अधिनियम, 2019 या पूर्ववर्ती भारतीय चिकित्सा परिषद अधिनियम, 1956 और उसके तहत बनाए गए नियमों के तहत बॉन्ड का कोई प्रावधान नहीं है। सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों (सीएचसी) और प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों (पीएचसी) में रिक्त पदों को भरकर विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में बेहतर स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच बढ़ाने के लिए राज्य द्वारा बांड की शर्त लगाई गई है।