मीठी जलेबी हर भारतीय घर में बड़े मज़े से खाई जाती है. दूध और जलेबी का कॉम्बिनेशन तो सोने पर सुहागा है. क्या स्वादिष्ट लगता है ये कॉम्बो. ऐसा लगता है कि जलेबी अपनी देसी डिश है, लेकिन जनाब यह देसी नहीं है.भारत में जलेबी पर्शियन व्यापारी, कलाकार और मध्य-पूर्व आक्रमणकारियों के साथ पहुंची. 15वीं शताब्दी तक जलेबी हर त्यौहार में इस्तेमाल होने वाला एक ख़ास व्यंजन बन चुकी थी. यहां तक कि यह मंदिरों में बतौर प्रसाद के रूप में भी दी जाने लगी
बचपन में ‘बूझो तो जानो’ खेल लगभग सभी ने खेला होगा. उसमें एक सवाल होता था: ‘टेढ़ी-मेढ़ी गली और रस से भरी’…इसका जवाब होता था जलेबी. मीठी जलेबी हर भारतीय घर में बड़े मज़े से खाई जाती है. दूध और जलेबी का कॉम्बिनेशन तो सोने पर सुहागा है. क्या स्वादिष्ट लगता है ये कॉम्बो. ऐसा लगता है कि जलेबी अपनी देसी डिश है, लेकिन जनाब यह देसी नहीं है. बल्कि दूसरे देश से आई है. मगर जिस तरह से इसने भारतीयों के दिलों पर राज किया है, इससे यह अपनी डिश ही लगती है.
ऐसे में, आज हम बात करेंगे चाशनी में डूबी मीठी जलेबी की. यह कैसे भारत में आई और धीरे-धीरे हर घर का हिस्सा बन गयी. शादी-ब्याह जैसे ख़ास मौके तो इसके बिना अधूरे ही हैं, तो चलते इसके सफ़र पर:
पश्चिम एशिया से भारत पहुंची जलेबी
भारत में जलेबी पश्चिम एशिया से आई है. हौब्सन-जौब्सन के अनुसार, जलेबी अरबी शब्द ‘जलाबिया’ या पर्शियन शब्द ‘जलिबिया’ से आया है. मध्यकालीन पुस्तक ‘किताब-अल-तबीक़’ में ‘जलाबिया’ नामक मिठाई का ज़िक्र है. यह ईरान में ‘जुलाबिया या जुलुबिया’ नाम से जानी जाती है. इतिहास के पन्नों को पलटते हैं, तो 10वीं शताब्दी की अरबी पुस्तक में ‘जुलुबिया’ बनाने की कई रेसिपीज़ मौजूद हैं. इसके साथ, ‘भोजनकुटुहला’ नामक किताब और संस्कृत पुस्तक ‘गुण्यगुणबोधिनी’ में जलेबी के बारे में लिखा गया है.
हौब्सन-जौब्सन के अनुसार, भारत में जलेबी पर्शियन व्यापारी, कलाकार और मध्य-पूर्व आक्रमणकारियों के साथ पहुंची. 15वीं शताब्दी तक जलेबी हर त्यौहार में इस्तेमाल होने वाला एक ख़ास व्यंजन बन चुकी थी. यहां तक कि यह मंदिरों में बतौर प्रसाद के रूप में भी दी जाने लगी थी.
किताबी इतिहास क्या कहता है?
भारतीय लिखित इतिहास में जलेबी का पहला ज़िक्र ‘प्रियंकर्नरपाकथा’ (1450 CE) में मिलता है. यह जैन धर्म द्वारा लिखित टेक्स्ट है. इसे जिनासुरा ने लिखा है. जलेबी का जिक्र ऐसा है कि यह भारतीय व्यापारियों को डिनर में दिया जाने वाला खाद्य पदार्थ था. इसके बाद जलेबी का ज़िक्र संस्कृत पुस्तक ‘गुण्यगुणबोधिनी’ में मिलता है. 1600 CE में लिखी गयी इस बुक में इसे बनाने की सामग्री और रेसिपी लिखी गयी है, जो आज के समय में बनने वाली जलेबी ही है. 16वीं शताब्दी में लिखी गयी पुस्तक ‘भोजनकुटुहला’ में भी जलेबी का उल्लेख है. रघुनाथ द्वारा लिखी हुई इस बुक में भी जलेबी की रेसेपी का ज़िक्र है.
इंडियन फ़ूड: ए हिस्टोरिकल कम्पैनियन में, खाद्य इतिहासकार केटी आचार्य लिखते हैं – “हॉब्सन-जॉब्स के अनुसार, जलेबी शब्द‘ स्पष्ट रूप से अरबी ज़ालबिया या फ़ारसी ज़ालिबिया से निकला है. यदि ऐसा है, तो यह भारत में काफ़ी पहले प्रवेश कर चुकी होगी.”
भारत में जलेबी के कई रंग-रूप
उत्तर भारत में यह जलेबी नाम से जानी जाती है, जबकि दक्षिण भारत में यह ‘जिलेबी’ नाम से जानी जाती है. जबकि यही नाम बंगाल में बदलकर ‘जिल्पी’ हो जाता है. गुजरात में दशहरा और अन्य त्यौहारों पर जलेबी को फाफड़ा के साथ खाने का भी चलन है.जलेबी की कई किस्म अलग-अलग राज्यों में मशहूर हैं. इंदौर के रात के बाजारों से बड़े जलेबा, बंगाल में ‘चनार जिल्पी, मध्य प्रदेश की मावा जंबी या हैदराबाद का खोवा जलेबी, आंध्र प्रदेश की इमरती या झांगिरी, जिसका नाम मुगल सम्राट जहांगीर के नाम पर रखा गया है.
बता दें, इंदौर शहर में 300 ग्राम वज़नी ‘जलेबा’ मिलता है. जलेबी के मिश्रण में कद्दूकस किया पनीर डालकर पनीर जलेबी बनती है. जबकि ‘चनार जिल्पी’ दूध और मावा को मिलाकर जलेबी के मिश्रण में डालकर मावा जलेबी तैयार की जाती है.
बहुत हुआ इतिहास…इंतज़ार मत कीजिए औत तुरंत जलेबी लाकर आनंद लीजिए!