क्या होता है वेंटीलेटर, जिस पर राजू श्रीवास्तव को रखा गया है

कॉमेडियन राजू श्रीवास्तव की हालत नाजुक बनी हुई है. उन्हें वेंटीलेटर पर रखा गया है. वेंटीलेटर पर अगर किसी मरीज को रखा जाता है तो इसका मतलब है कि उसकी स्थिति नाजुक है, उसके शरीर के कुछ सिस्टम काम नहीं कर रहे हैं और जीवन के लिए जरूरी उतनी आक्सीजन नहीं मिल पा रही है, जितनी चाहिए, इसलिए आमतौर इस नाजुक स्थिति में पहुंच गए मरीज को वेंटीलेटर पर रखकर उसे आक्सीजन दी जाती है.

वेंटीलेटर कृत्रिम तौर पर ऑक्सीजन देने वाली मैकेनिकल मशीन होती है, इसोक सांस लेने वाली मशीन भी कहते हैं. अगर आपके ब्रेन और खून तक ऑक्सीजन का पहुंचना कम हो जाता है तो शरीर की हालत बिगड़ने लगती है, ऐसे में मौत भी हो जाती है, जब शरीर की रक्त कोशिकाओं के सर्कुलेशन के लिए जरूरी आक्सीजन को वहां और ब्रेन तक पहुंचाने का काम वेंटीलेटर मशीन के जरिए किया जाता.

ये मशीन मरीज के बेड से अटैच रहती है और मशीन के कई वाल्वस के जरिए ये काम किया जाता है. आमतौर पर व्यक्ति की इस खराब स्थिति को जबकि उसके शरीर के सिस्टम तक जीवनदायी आक्सीजन नहीं पहुंच पा रही हो तो उसको रेसपेटरी फेल्योर की स्थिति कहा जाता है. इन मशीनों से आक्सीजन को शरीर में अंदर पहुंचाया जाता है और फिर फेफड़ों के जरिए निकाला जाता है.

अक्सर शरीर में गंभीर दिक्कत होने पर और शरीर के अंदर सिस्टम के क्षति होने पर शरीर के लिए खुद आक्सीजन ले पाना मुश्किल हो जाता है, ऐसे में मरीज की मौत भी हो सकती है, तब उसको कृत्रिम तौर पर वेंटीलेटर मशीन के जरिए आक्सीजन पहुंचाई जाती है.

कैसे काम करती है वेंटीलेटर मशीन
मरीज को वेंटीलेटर पर उसके एक्सपर्ट के जरिए रखा जाता है और फिर इस तरह कंट्रोल किया जाता है कि उसको कितने आक्सीजन की जरूरत है, जो उसके फेफड़ों तक पहुंचाकर शरीर के सिस्टम को संभालने में मदद की जाए. वेंटीलेटर पर जब मरीज को रखा जाता है तो हर किसी की अलग अलग मात्रा में आक्सीजन की जरूरत होती है.

मुंह में नली लगाकर ऑक्सीजन शरीर में भेजी जाती है
इसमें मुंह पर एक मास्क को लगा दिया जाता है ताकि मुंह के जरिए लंग्स से हवा अंदर जा सके. कभी ज्यादा दिक्कत होने पर सांस लेने के लिए नलिका गले से छेद करके लगाई जाती है. वेंटीलेटर पर आमतौर पर मरीज को रखने का मकसद यही होता है कि बाहर से ऑक्सीजन देकर शरीर के सिस्टम को ठीक किया जा सके और शरीर को ऐसी स्थिति में लाया जा सके कि उसके सारे सिस्टम तरीके से काम करने लगे. शरीर खुद आक्सीजन लेने के लिए तैयार हो जाए.

नुकसानदायक भी है इसका लंबा इस्तेमाल
मैकेनिकल वैंटीलेटर्स आमतौर पर हास्पटिल्स, एंबुलेंस, एयर एंबुलेंस में इस्तेमाल की जाती हैं. हालांकि अब गंभीर मामलों में लोग इसको घरों पर भी लगवाने लगे हैं. खासकर उन मामलों में जबकि बीमारी लंबी चले और शरीर को खुद तरीके से ऑक्सीजन लेने की समस्या लंबे समय तक हो. लेकिन लंबे समय वेंटीलेटर पर रहने पर आप न्यूमोनिया के शिकार हो सकते हैं. गले के वोकल कार्ड खराब हो सकते हैं या दूसरी दिक्कतें भी हो सकती हैं. वैसे डॉक्टर के लिए मरीज को वेंटिलेटर का सहारा देना मरीज को ठीक करने का अंतिम प्रयास होता है.

संक्रामक बीमारियों का खतरा ज्यादा
मरीज को ज्यादा दिनों तक वेंटिलेटर सपोर्ट पर रखने से उसे एक बीमारी से बेशक राहत मिल सकती है लेकिन दूसरी बीमारियों के संक्रमण का खतरा बढ़ जाता है. जनरल वार्ड में भर्ती मरीज के मुकाबले वेंटिलेटर पर रहे मरीज को संक्रामक बीमारियां होने का खतरा तीन फीसदी ज्यादा रहता है.

कोरोना के दौरान वेंटीलेटर की खूब जरूरत पड़ी थी 
कोरोना के दौरान दुनियाभर में तब सबसे ज्यादा वेंटीलेटर मशीनों की जरूरत पड़ी जब लंग्स के संक्रमण के कारण मरीजों की सांसें उखड़ने लगीं या उन्हें सांस लेने में दिक्कत महसूस होने लगी. तब भारत में भी खासी वेंटीलेटर मशीनों की कमी महसूस की गई थी. उसके बाद भारत में अस्पतालों को कहीं ज्यादा ऐसी मशीनों से सुसज्जित किया गया.

कैसे बनी और फिर बदलती गई
वैसे 18वीं सदी में पहली बार मरीज की सांस चलते रहने के लिए एक मशीन बनाई गई थी. इसे पॉजिटिव-प्रेशर वेंटिलेटर का नाम दिया गया. 1830 में स्कॉटिश डॉक्टर ने एक एयरटाइड डब्बा बनाया, जिसमें हवा को लयबद्ध तरीके से पंप किया जाता था. इसे निगेटिव-प्रेशर वेंटिलेटर का नाम दिया गया.

20वीं सदी की शुरुआत में आयरन लंग नाम से दुनियाभर में प्रसिद्ध वेंटिलेशन डिवाइस का इस्तेमाल हुआ, ये मशीन भी निगेटिव प्रेशर वेंटिलेटर तकनीकी पर काम करती थी. लेकिन जो वेंटीलेटर मशीनें हम देखते हैं, वो दूसरे विश्व युद्ध के समय आईं. हालांकि ये मशीन उतनी आधुनिक नहीं थी, जैसी अब लेकिन इसे लगातार जरूरतों के मुताबिक बदलकर बनाया गया.