मुंशी प्रेमचंद जयंती विशेष: भारतीय सिनेमा के अमर निर्देशक सत्यजीत रे की फिल्म ‘शतरंज के खिलाड़ी’ के बारे में हॉलीवुड के महान निर्देशन मार्टिन स्कॉरसेसी ने कहा था ‘ये फिल्म भारतीय इतिहास के जबरदस्त बदलाव और रे के हास्यात्मक नजरिए के बारे में बयान करती है. इसे दोबारा देखते हुए मुझे अहसास हो रहा है कि उस ऐतिहासिक बदलाव के दौर में मौजूद होने पर कैसा महसूस हुआ होगा, ये एक बड़ा और त्रासदी भरा वक्त रहा होगा.’
लेकिन आज हम बात सत्यजीत रे की महानता नहीं बल्कि उस कहानी के रचनाकार के बारे में बात कर रहे हैं जिसकी कहानी को रे अपनी इकलौती हिंदी फीचर फिल्म के तौर पर चुना… मुंशी प्रेमचंद. मुंशी प्रेमचंद की जन्म तिथि, स्थान और काम के बारे में जानकारी जुटाना कोई मुश्किल काम नहीं, असल चुनौती उस परिवेश को समझना है, जिसमें रहते हुए उन्होंने वक्त और समाज की सीमाओं से आगे जा कर लिखा.
झूठ से मिला कॉलेज में एडमिशन
लमही गांव, जहां धनपत राय श्रीवास्तव के नाम से उनका बचपन गुजरा सर्व विद्या की राजधानी वाराणसी से 4 मील दूर भर है. प्रेमचंद के जीवन की कठिनाई के किस्से काफी मशहूर हैं लेकिन उन्हें कॉलेज में दाखिला एक झूठ की वजह से मिला था.
सौतेली मां और पहली पत्नी के बीच झगड़े और घर चलाने के लिए ट्यूशन के बीच किसी तरह बारहवीं में सेकेंड डिवीज़न से पास होने से किसी अच्छे कॉलेज में ‘Freeship’ यानी फीस माफी की उम्मीद भी खत्म हो गई, एक ही रास्ता था कि प्रिंसिपल से मिला जाए. उसी साल शुरू होने वाला वाराणसी का हिंदू कॉलेज ही इकलौता आसरा रह गया था. धोती-कुर्ता पहन के प्रेमचंद प्रिंसिपल रिचर्डसन के घर जा पहुंचे. लेकिन उन्होंने घर पर कॉलेज की बात करने से मना कर दिया. अगले दिन दफ़्तर में उनसे मिलने पहुंचे लेकिन प्रिंसिपल रिचर्डसन ने एडमिशन देने से साफ इनकार कर दिया.
प्रेमचंद ने हार नहीं मानी और किसी तरह एक दिन ठाकुर इंद्र नारायण सिंह से मिले जो कॉलेज की मैनेजमेंट कमेटी में थे. प्रेमचंद की कहानी सुनकर इंद्र नारायण सिंह ने उन्हें सिफारिशी चिट्ठी दे दी… जिसे पा कर प्रेमचंद काफी खुशी-खुशी घर आ गए… लेकिन घर आते ही उन्हें तेज़ बुखार की गिरफ्त में आ गए. बुखार करीब 15 दिन तक चढ़ा रहा. इस दौरान उन्होंने करीब-करीब उल्टी करने की हद तक नीम का काढ़ा पिया.
‘मुंशी प्रेमचंद ए लिटरेरी बायोग्राफी’ (Munshi Premchand A Literary Biography) में लेखक मदन गोपाल लिखते हैं- ‘एक दिन जब प्रेमचंद अपने घर की चौखट पर बैठे थे तो गांव के पुजारी को सारी बात पता चली. वे पास ही एक खेत में गए. कुछ जड़ी-बूटी काली मिर्च के साथ दी और एक तरह से चमत्कार हुआ. बुखार थोड़ी ही देर में गायब हो गया.’ तबियत ठीक होने के बाद प्रेमचंद दोबारा कॉलेज एडमिशन के लिए पहुंचे तो प्रिंसिपल ने एक महीने पुरानी चिट्ठी का हवाला दिया. सिर्फ बुखार कोई बीमारी नहीं होती. तो प्रेमचंद ने झूठ ही कह दिया उन्हें दिल की बीमारी थी. दिल की बीमारी की बात सुन कर प्रिंसिपल ने एडमिशन तो दे दिया. लेकिन उनके फॉर्म पर लिख दिया.. To be put to test for his ability… यानी उनकी काबिलियत की परीक्षा ली जाए. हालांकि, वे गणित में फेल होने की वजह से उन्हें कॉलेज छोड़ना पड़ा. ये बात प्रेमचंद भी जानते थे कि वे सिर्फ अंग्रेजी में ही पास हो सकते थे.
उधारी की वजह से बेचनी पड़ी किताबें
गणित में खुद को सुधारने के लिए प्रेमचंद ने वाराणसी में रह कर ही तैयारी करनी शुरू की, ताकि कॉलेज में दोबारा एडमिशन मिल सके. किसी दोस्त की मदद से एक ट्यूशन पढ़ाने का काम भी मिल गया. लेकिन आमदनी सिर्फ इतनी कि दिन में एक बार खिचड़ी खा सकें. वो भी बमुश्किल. यहीं एक लाइब्रेरी में उनका वक्त उर्दू के बड़े लेखकों की रचनाएं पढ़ते हुए गुज़रने लगा. खासतौर पर रतननाथ धर सरशार की फ़साना-ए-आज़ाद, देवकीनंदन खत्री की चंद्रकांता संतति और बंकिम चंद्र चटोपध्याय के बंगाली उपन्यासों का उर्दू अनुवाद.
ट्यूशन फीस से वे अपना उधार चुकाते तो महज 3 रुपये ही खर्च के लिए बचते. यहीं उन्हें गुड़ खाने की लत लग गई. मदन गोपाल लिखते हैं- “भले ही उनकी हालत आधी भुखमरी की हो, लेकिन वो गुड़ खाने बैठते तो तब तक नहीं उठते जब तक दो-तीन आने खर्च कर लेते.’ भले ही इसके लिए उधार क्यों ना मांगना पड़े. गरीबी और उधारी का आलम ये थे कि कई बार उन्हें पूरे दिन भूखा रहना पड़ता. भूख से परेशान प्रेमचंद को आखिरकार एक दिन अपनी गणित की किताब बेचने की नौबत आ गई. उन्होंने वो किताब 2 रुपये में खरीदी थी लेकिन उसे 1 रुपये में बेच कर दुकान की सीढ़ियां उतर ही रहे थे कि किस्मत से उन्हें एक शख़्स मिले जब उन्हें पता चला कि प्रेमचंद मैट्रिक पास हैं तो उन्होंने 18 रुपये महीने पर चुनारगढ़ के मिशन स्कूल में नौकरी का ऑफ़र दिया. वो शख्स स्कूल के हेडमास्टर थे.
धनपत राय से नवाब राय और फिर प्रेमचंद
प्रेम चंद की पत्नी से बिल्कुल नहीं बनती थी. उन्होंने दूसरी शादी शिवरानी से की जो बाल विधवा थीं. शिवरानी ने अपनी किताब ‘प्रेमचंद: घर में’ लिखा है- ‘मेरे आने से पहले ही आपकी साहित्य सेवा जारी थी. आपका पहला उपन्यास कृष्णा प्रयाग से प्रकाशित हो चुका था. मेरी शादी के साल ही आपका दूसरा उपन्यास ‘प्रेमा’ निकला जिसका नाम आगे चल कर ‘विभव’ हुआ.’
प्रेमचंद नवाबराय के नाम से लिख रहे थे. शिवरानी से शादी के एक साल बाद ही प्रेमचंद का कहानी संग्रह ‘सोज़-ए-वतन’ (Soz-e-Watan) प्रकाशित हुआ. हालांकि, अंग्रेज सरकार को ये बिल्कुल पसंद नहीं आया. उन्हें आदेश दिया कि वे आगे से ना लिखें. शिवरानी लिखती हैं कि कलेक्टर ने प्रेमचंद को धमकाते हुए कहा था कि अगर तुम सरकारी कर्मचारी नहीं होते तो तुरंत तुम्हारे हाथ कटवा दिए जाते. जब शिवरानी ने उनसे पूछा कि क्या वे लिखना बंद कर देंगे तो प्रेमचंद ने उनसे कहा. ‘लिखूंगा क्यों नहीं? उपनाम रखना पड़ेगा.’
महोबा में पोस्टेड प्रेमचंद ने प्रकाशक और दोस्त मुंशी दया नारायण निगम को इस घटना के बाद चिट्ठी लिखी. प्रेम प्रेमचंद के बेटे और साहित्यकार-लेखक अमृत राय ने अपनी किताब ‘प्रेमचंद: कलम का सिपाही’ में 13 मई, 1910 को लिखी इस चिट्ठी के बारे में लिखा है- “कुछ दिनों के लिए नवाब राय मरहूम हुए. उनके जानशीं कोई और साहब होंगे.” मुंशी दयानारायण ने प्रेमचंद नाम सुझाया जिसे मंज़ूर कर लिया गया. अक्टूबर-नवंबर 1910 में प्रेमचंद नाम से पहली कहानी ‘बड़े घर की बेटी’ छपी.