तुलसी जयंती: भक्ति से परे जा कर समझें तुलसी का मानस

तुलसीदास महाकवि थे. वे जीवन दृष्‍टा थे. रामचरित मानस उनकी प्रति‍निधि रचना है मगर तुलसी केवल मानस के सर्जक ही नहीं है. वे भक्ति आंदोलन के सूत्रधारों में से एक थे और उनका रचा साहित्‍य सर्वकालिक है. तुलसी के साहित्‍य को पढ़ कर धर्म की राह भी खुलती है और स्‍व से लेकर समूचे समाज के सुधार की राह भी दिखलाई देती है. आवश्‍यकता है कि भक्ति काल के इस मनीषी लेखक को भक्तिभाव के साथ खुली विचार दृष्टि से पढ़ा और समझा जाए.

प्रत्येक वर्ष सावन माह में शुक्ल पक्ष की सप्तमी तिथि को तुलसीदास जयंती मनाई जाती है. इस साल तुलसीदास जयंती 04 अगस्त 2022  को है. उनके जन्‍म, जीवन और मृत्‍यु को लेकर कई तरह की किवंदतियां प्रचलित हैं. तुलसी दास के जीवन के बारे में अधिक जानना है तो हमें अमृतलाल नागर के उपन्‍यास ‘मानस के हंस’ को पढ़ना चाहिए. इस उपन्यास की रचना उन्‍होंने तुलसी के जीवन को आधार बना कर की है. तुलसी दास के सहज मानवीय रूप को प्रस्‍तुत करते इस उपन्‍यास ‘मानस का हंस’ की कथावस्तु को नागर जी ने 31 अंकों में विभाजित किया है.

यह उपन्‍यास हमें तुलसी के प्रति अंधाश्रद्धा से भर जाने से बचाता है बल्कि उनके मानवीय सरोकारों के प्रति श्रद्धालु बनाता है. वे सरोकार जिनके लिए तुलसी दास जी ने तमाम ग्रंथों की रचना की. कई आलोचक और टिप्‍पणीकार मानते हैं कि ‘रामचरित मानस’ की रचना भी उस वक्‍त के कलुषित समाज में धवल मानवीय भाव जागृत करने के उद्देश्‍य से की गई थी. तुलसी के राम और उनके राम का चरित्र ही आदर्श नहीं था बल्कि समूची मानस के श्रेष्‍ठ पात्र एक आदर्श प्रस्‍तुत करते हैं.

यह कोई गहन या विशद विवेचना नहीं है, सहज ही कोई भी समझ सकता है कि रामचरित मानस में आदर्श पुत्र, आदर्श पत्‍नी, आदर्श पति, आदर्श भाई, आदर्श मित्र, आदर्श नागरिक का चरित्र लिए दर्जनों पात्र उकेरे गए हैं. और ऐसा नहीं है कि ये आदर्श चरित्र किसी एक समाज या वर्ग का दैवीय गुण है जो केवल देवों के खेमों में होगा. जिस समाज और वर्ग को दुराचारी चित्रित किया गया है वहां भी इन आदर्शों वाले पात्र उपस्थित हैं. रावण की लंका में विभिषण है. स्‍वयं रावण की पत्‍नी मंदोदरी है. बाली के राज्य में अनुज सुग्रीव है. सहायता को हाथ बढ़ाता निषाद राज हैं, केवट हैं. बैर भाव अपनी जगह लेकिन शत्रु के भाई की जान बचाने के यत्‍न करते तटस्‍थ वैद्य सुषेन हैं. जबकि दूसरी तरफ, अयोध्‍या में भी मंथरा और कैकयी के पात्र हैं.

जब-जब हम रामचरित मानस पढ़ते हैं या तुलसी के लेखन की बात करते हैं तो हमें इस दृष्टि से भी देखना चाहिए कि रामचरित मानस की रचना किस काल में किस उद्देश्‍य से हुई है. तुलसी आकाश कुसुम खिलाने वाले कवि नहीं थे. उन्‍होंने यथार्थ की भावधरा पर भक्ति का कलश स्‍थापित किया और रामचरित मानस के रूप में ऐसा ग्रंथ रचा जो धर्म ग्रंध की उपमा पा गया.

 

इतिहास गवाह है कि जब तुलसी का जन्‍म हुआ वह दौर उस भारत का युग नहीं था जिसके गुण गाए जाते हैं. समूचा समाज कई तरह से विभाजित था. असमानता की कई सतहें थीं. मारकाट और मूल्‍यों के ह्रास के उस समय में समूचे भक्ति आंदोलन ने आदर्श की बात कही. तभी तो तुलसी कहते हैं कि राम राज्‍य ऐसा होगा जहां :

मानस में काकभुशुण्डि के माध्‍यम से तुलसी बाबा ने कहलवाया है कि श्री राम के राज्य में जड़, चेतन सारे जगत में काल, कर्म स्वभाव और गुणों से उत्पन्न हुए दुःख किसी को भी नहीं होते है. राम राज्य वह है जहां सब ज्ञानी है, जहां किसी में कपट नहीं है. कोई दरिद्र और गुणहीन नहीं है.

तुलसी बाबा ऐसे ही उच्‍च कोटि के मानवीय समाज की स्‍थापना के सूत्र प्रस्‍तुत कर रहे थे. वे मानवता और रिश्‍तों के क्रूर काल में मानवता, संवेदना, मूल्‍यों और आदर्श चरित्र की बात कह रहे थे. उनके स्‍थापित मूल्‍य का ही कमाल है कि आज भी हम रावण पर राम की विजय को सत्‍य की जीत, ज्ञान की विजय, सदाचार के प्रभुत्‍व, न्याय की सर्वोत्‍कृष्‍टता व सद्वृत्तियों की सत्‍ता के रूप में निरूपित करते हैं.

तुलसी के राम में आदर्श राजा भी है तो आदर्श व्‍यक्ति भी. यह बात और है कि आलोचना के रूप में राम के चरित्र पर कई तरह के प्रश्‍न चस्‍पा किए जाते हैं और तुलसी के लेखन में भी भेदभाव को तलाशा जाता है. फिर भी आलोचना और धारणाओं का यह स्‍तर बेहद संकुचित और छोटे दायरे वाला है. व्‍यापकता में तुलसी के राम चरित को मानवीय मूल्यों का स्‍थापना ग्रंथ ही माना जाता है.

राम राज्य तुलसी का वह सलोना सपना है जिसे वे दुर्दांत युग यानि कलियुग को प्रतिस्‍थापित करने के लिए देखते हैं. तुलसी बाबा लिखते हैं :

रामहि केवल प्रेमु पिआरा. जानि लेउ जो जान निहारा॥
राम सकल बनचर तब तोषे. कहि मृदु बचन प्रेम परिपोषे॥

जो राम को जानने वाले है या जो उन्‍हें जानना चाहता हैं वे जान लें कि राम को केवल प्रेम प्यारा है. आगे वे कहते हैं, ‘मानहु एक भगति कै नाता.’ यानि मानव के बीच में एक भक्ति का ही नाता हे. यही वह सम्‍बन्‍ध है जिसके वशीभूत प्रभु श्रीराम हो जाते हैं. पवनसुत प्रेम से ही राम का नाम लेते थे, राम उनके वश में ऐसे हुए कि ‘रामू’ बन गए!

सुमिरि पवनसुत पावन नामू. अपने बस करि राखे रामू.

उत्‍तर प्रदेश के राज्‍यपाल रहे प्रकांड विद्वान विष्‍णुकांत शास्‍त्री का मत था कि परंपरा से हमारा नाता केवल अनुकरण का नहीं होना चाहिए. हम परंपरा का पालन स्वस्थ विकास के लिए करें. इस दृष्टि से तुलसी बाबा और उनके समूचे लेखन को हमारी क्षुद्र सोच के दायरे से बाहर निकाल कर देखने की जरूरत हर समय में रही है. धारणाओं, मान्‍यताओं की तंगी और अंध भक्ति के कूप से निकल कर ही तुलसी बाबा के मानस का विस्‍तार समझा जा सकता है.

तब भी और आज भी मानस हो या कोई और रचना तुलसी बाबा प्रभु श्री राम की भक्ति में सामाजिक विषमता और भेदभाव के वध के लिए राम के उच्‍च आदर्श का निर्माण करते थे. सूक्ष्‍म विश्‍लेषण करेंगे तो पाएंगे कि भक्ति काल के सभी अग्रणी कवियों ने यही किया है. तुलसी के राम सबके हैं और राम के तुलसी सबके हैं. भक्ति के आडंबर से परे ज्ञान तो यही प्रकाश बिखराता है.