डाकू-डकैत का जिक्र होते ही हमारी आंखों के सामने चंबल के बीहड़ तैरने लगते हैं. भिंड-मुरैना से आने वाले साथियों और बुजुर्गों के मुंह से आपने उन इलाके के डाकुओं के खूब किस्से सुने होंगे. ‘शोले’ और ‘पान सिंह तोमर’ जैसी फिल्मों के जरिए आपने डॉकुओं का खौफ भी देखा होगा. लेकिन, क्या आप चंबल घाटी के इतिहास में दर्ज महिला डकैतों को नजदीक से जानते हैं.
चंबल की महिला डकैतों पर आधारित इंडिया टाइम्स हिन्दी की खास सीरीज ‘दस्यु सुंदरी’ में सबसे पहली कहानी पुतलीबाई की. वही, पुतलीबाई जिनके खौफ से जहां एक तरफ पूरा चंबल थर्राता था. वहीं, लोग उनकी खूबसूरती और अदाओं के दीवाने थे.
साल 1926 में पुतलीबाई का जन्म एक बेड़नी परिवार में हुआ था. कम लोग जानते हैं कि मध्य प्रदेश में मुरैना जिले के बरबई गांव में बड़ी हुई पुतलीबाई का शुरुआती नाम गौहर बानो था. घर की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी. मां असगरी, पिता नन्हें खां और भाई अलादीन समेत परिवार के अन्य लोग शादी-विवाह जैसे मौकों पर दूसरे लोगों के यहां नाचने-गाने जाते थे. इसके बदले में उन्हें जो पैसे मिलते थे उसी से परिवार का खर्च चलता था.
ऐसी स्थिति में अंदाजा लगाया जा सकता है कि पुतलीबाई का बचपन कैसा रहा होगा. जैसे-तैसे वो बड़ी हुई और अपना पेट पालने के लिए अपने परिवार के रास्ते पर ही चलने को मजबूर हुई. कहते हैं पुलतीबाई भले ही गरीब थी लेकिन उसका हुनर बोलता था. पूरे मुरैना में उसके नृत्य की तूती बोलती थी. लोग दूर-दूर से उसकी महफिल देखने आते थे. कहा तो यहां तक जाता है कि जब पुतलीबाई नाचती थी, तब उन पर पैसों की बारिश होती थी.
‘कुख्यात डाकू’ सुल्ताना से रहा खास रिश्ता
शोहरत के इसी सफर में एक दिन पुतलीबाई की मुलाकात अपने समय के कुख्यात डाकू सुल्ताना से हुई. पुतलीबाई को एक शादी समारोह में नाचते हुए देखकर वो उस पर मोहित हो गया था. फिर क्या था आगे जब भी सुल्ताना का मन होता वो पुतलीबाई को जबरन मनोरंजन के लिए बीहड़ बुला लेता था. इस दौरान धीरे-धीरे दोनों में नजदीकियां बढ़ीं और दोनों का रिश्ता लगातार गहराता चला गया. आगे पुतलीबाई हमेशा के लिए बीहड़ की हो गईं.
भिंड जिले के लोग बताते हैं कि पुलतीबाई ने हालात से समझौता करते हुए सुल्ताना के प्यार को स्वीकार कर लिया था. लेकिन वो पूरी तरह से खुश नहीं थी. वो चाहती थी कि सुल्ताना लूटपाट करना छोड़ दे. सुल्ताना को रास्ते पर लाने के लिए वो नाराज होकर अपने गांव भी लौटी थी लेकिन पुलिस ने उसे उठा लिया और सुल्ताना की जानकारी हासिल करने के लिए खूब प्रताड़ित किया. इससे आहत होकर पुलतीबाई दोबारा सुल्ताना के पास चली गई थी.
सुल्ताना के एनकाउंटर के बाद खूंखार हो गई
बीहड़ में रहते हुए पुतलीबाई ने डाकुओं के तौर तरीके सीखे और सुल्ताना के गिरोह की सक्रिय सदस्य बन गई. सब ठीक चल रहा था. तभी सुल्ताना को एक पुलिस एनकाउंटर में मार गिराया गया. बताया जाता है कि सुल्ताना के साथी डाकू लाखन सिंह ने उसे धोखा दिया था. उसके कहने पर ही कल्ला डकैत ने सुल्ताना पर गोली चलाई. परिणाम स्वरूप सुल्ताना मारा गया और पुलिस ने इसे एनकाउंटर बताकर इसका श्रेय खुद ले लिया था.
पुतलीबाई के लिए यह एक कठिन समय था. मगर उसने खुद को मजबूत किया और सबसे पहले सुल्ताना को मारने वाले कल्ला डकैत को मार गिराया. इस तरह पुतलीबाई ने अपने पति की मौत का बदला लिया और सुल्ताना गैंग की लीडर बन गई. इसके बाद पुलतीबाई ने जो किया वो आने वाली कई पीढ़ियां नहीं भूल पाईं. उसकी हिंसक लूटपाट और डकैती से हर कोई उससे खौफ खाने लगा था. आज भी शिवपुरी के लोग उसकी बात करते हैं.
एक हाथ से फायर कर पुलिस को रोकती थी
1950 के दशक में शिवपुरी से लेकर चंबल तक पुलतलीबाई ने लोगों को खूब डराया. चंबल के इतिहास में वो पहली ऐसी महिला डकैत बनकर उभरी, जिसने किसी गिरोह का नेतृत्व किया और कई बार पुलिस से सीधी मुठभेड़ की. पुतलीबाई को लेकर एक किस्सा खूब मशहूर है. कहते हैं एक पुलिस मुठभेड़ में गोली लगने से उसका एक हाथ खराब हो गया था. लोगों को लगने लगा था कि पुतलीबाई अब कमजोर हो जाएगी. मगर वो पीछे नहीं हटी.
जब भी जरूरत पड़ी पुतलीबाई ने एक हाथ से बंदूक उठाई और पुलिस की हर गोली का मुंहतोड़ जवाब दिया. कहानीकार बताते हैं कि पुतलीबाई दर्जनों लोगों पर अकेले ही भारी पड़ती थी. उसका व्यक्तित्व एकदम अलग था. यही कारण रहा कि उसके जीवन पर कई फिल्में बनाई जा चुकी हैं. 23 जनवरी, 1958 का दिन पुतलीबाई की ज़िंदगी का आख़री दिन साबित हुआ. यही वो दिन था जब शिवपुरी के जंगलों में उसे अंतत: मार गिराया गया.