विवेक अग्निहोत्री के लिखे और उन्हीं के द्वारा निर्देशित फ़िल्म ‘द कश्मीर फ़ाइल्स’ इन दिनों काफ़ी चर्चा में है.
इस फ़िल्म में कश्मीरी पंडितों के कश्मीर घाटी से भागने की कहानी और उनके दर्द को दिखाया गया है.
हालांकि इस फ़िल्म की कहानी को लेकर काफ़ी विवाद चल रहा है.
नेताओं से लेकर आम लोग तक इसकी कहानी की सच्चाई पर बंटे हुए दिख रहे हैं.
कई राज्य सरकारों ने इस फ़िल्म को टैक्स फ़्री घोषित कर दिया है. ट्विटर जैसे सोशल मीडिया साइटों पर #KashmirFiles कई दिनों से ट्रेंड कर रहा है.
इस रिपोर्ट में उस रात की कहानी है जब कश्मीरी पंडितों को घाटी से पलायन करके देश के दूसरे शहरों या राज्यों में शरण लेनी पड़ी.
-
‘नारा-ए-तकबीर, अल्लाह हो अकबर!’
-
गहरी नींद में भी मुझे अजीब सी आवाज़ें सुनाई दे रही थीं. मैं डर गया था. कुछ टूट रहा था. सब कुछ बदल रहा था. हमारी दीवारों पर चलती परछाइयाँ एक-एक करके हमारे घर में कूद रही थीं.
मैं नींद से अचानक उठ गया और पाया कि मेरे पिता ने मुझे जगाकर कहा, ‘कुछ गड़बड़ हो गई है.’
लोग नारेबाज़ी करते हुए सड़कों पर जमा हो गए थे और वे चिल्ला रहे थे.
मैंने जो देखा वो सपना नहीं था, हक़ीक़त थी. क्या वे वाकई हमारे घर में कूदने वाले हैं? क्या वे हमारी गली में आग लगाने जा रहे हैं?
तभी मैंने सीटी की एक तेज़ आवाज़ सुनी. पास के एक मस्जिद के लाउडस्पीकर से आवाज़ आ रही थी. हम मस्जिद से आने वाली यह आवाज़ हमेशा नमाज से पहले सुनते थे, जो कुछ देर बाद रुक जाती थी. लेकिन उस रात सीटी की वो आवाज़ नहीं रुकी. वो बहुत ही बदक़िस्मत रात थी.
कुछ देर बाद हमारे घर के बाहर शोर बंद हो गया और मस्जिद में बात करने की आवाज़ सुनाई देने लगी थी. वहां चर्चा चल रही थी.
मेरे चाचा ने पूछा, ‘क्या हो रहा है?’
‘वे कुछ करेंगे.’
कुछ देर तक मस्जिद में बातचीत चलती रही और फिर ज़ोरदार नारेबाज़ी होने लगी.
‘नारा-ए-तकबीर, अल्लाह हो अकबर!’
मैं अपने पिता के पीले पड़ते चेहरे को देख रहा था. वो अच्छे से जानते थे कि उस नारे का मतलब क्या है.
मैंने भी कुछ साल पहले दूरदर्शन पर टीवी सिरीज़ ‘तमस’ देखते समय वो नारा सुना था. वो सिरीज़ 1947 में भारत और पाकिस्तान के बंटवारे पर साहित्यकार भीष्म साहनी के उपन्यास पर आधारित थी.
कुछ देर बाद हमारे चारों ओर से ज़हरीले भालों जैसा शोर हमारी तरफ़ आने लगीं.
‘हम क्या चाहते: आज़ादी!
ज़ुल्मी, काफ़िरो! कश्मीर छोड़ो.’
थोड़ी बाद नारेबाज़ी बंद हो गई. और फिर अफ़ग़ानिस्तान पर सोवियत क़ब्ज़े के ख़िलाफ़ मुजाहिदीनों की लड़ाई की तारीफ़ करने वाले गाने ज़ोर ज़ोर से बजाए जाने लगे.
मेरे चाचा ने कहा, ‘बीएसएफ़ इस पर कुछ करेगी.’ लेकिन ऐसा कुछ हुआ नहीं और सुबह तक नारेबाज़ी चलती रही. हम रात भर उस डर के माहौल में सो नहीं पाए.
यह सिर्फ़ हमारे आसपास ही नहीं हो रहा था. यह स्थिति एक साथ क़रीब क़रीब पूरी कश्मीर घाटी की थी. उस रात जो हुआ, वो हमें डराने और कश्मीर घाटी से भगाने के लिए किया गया था, जो पहले से तय योजना के अनुसार हुआ था.
… और अगली सुबह घाटी से हिंदुओं का पलायन शुरू हो गया. कई परिवार अपने साथ जो कुछ भी ले जा सकते थे, उसे लेकर जम्मू भाग गए.
मशहूर पत्रकार राहुल पंडिता ने अपनी किताब ‘अवर मून हैज़ ब्लड क्लॉट्स’ में 19 जनवरी, 1990 की उस सर्द रात का वर्णन किया है, जिसके बाद कश्मीर से पंडितों ने पलायन करना शुरू कर दिया.
-
19 जनवरी से पहले क्या हुआ था?
19 जनवरी की घटना याद करते हुए कश्मीरी पंडित संघर्ष समिति के अध्यक्ष संजय टीकू ने बीबीसी गुजराती को बताया:
“1989 में गोलीबारी और बमबारी की घटनाएं हुई थीं और फिर रुबिया सईद का अपहरण कर लिया गया था. उसी साल अगस्त में, एक मुस्लिम राजनीतिक कार्यकर्ता की हत्या हुई थी. उसके बाद पहले कश्मीरी पंडित की हत्या कर दी गई थी, जो भाजपा के एक नेता थे.”
“मुझे स्पष्ट याद है कि 19 जनवरी की रात तब के डीडी मेट्रो पर ‘हमराज़’ फ़िल्म प्रसारित हो रही थी और ज़्यादातर लोग टीवी देख रहे थे. रात क़रीब 9 बजे लोग सड़कों पर आ गए और आज़ादी के नारे लगाने लगे. सारी रात ये सब चलता रहा और हम पूरी रात सो नहीं सके.”
“अगली सुबह जब हम अपने पड़ोसियों से मिले, तो उनका व्यवहार बदला हुआ था. किसी ने इस बारे में बात नहीं की कि वे सड़कों पर क्यों थे और आगे क्या होने वाला था. उन पड़ोसियों में से अधिकांश का व्यवहार बदल रहा था. इसलिए पूरा माज़रा ही बदल गया.”
19 जनवरी की उस घटना के बाद कश्मीर से पंडितों का पलायन का दौर शुरू हो गया. उस वक़्त संजय टीकू 22 साल के थे.
कर्नल (डॉ.) तेजकुमार टीकू ने अपनी किताब ‘कश्मीर: इट्स एबोरिजिन्स एंड देयर एक्सोडस’ में 19 जनवरी से पहले की घटनाओं का वर्णन किया है:
“4 जनवरी, 1990 को उर्दू के स्थानीय अख़बार ‘आफ़ताब’ में एक प्रेस रिलीज़ प्रकाशित हुई थी. उसमें हिज़्ब-उल-मुजाहिदीन ने सभी पंडितों को तुरंत घाटी छोड़ने का आदेश दिया था.”
”इसी चेतावनी को एक और स्थानीय अख़बार ‘अल-सफ़ा’ ने भी प्रकाशित किया था. इन धमकियों के बाद ‘जिहादी’ लोगों ने कलाश्निकोव बंदूक के साथ सार्वजनिक तौर पर मार्च किया था. इसके साथ ही कश्मीरी पंडितों की हत्या की ज़्यादा से ज़्यादा ख़बरें सामने आ रही थीं. बम विस्फोटों और गोलीबारी की घटनाएं आम हो गई थी.”
“भड़काने वाले और धमकी भरे सार्वजनिक भाषण दिए गए. पंडितों को डराने-धमकाने के लिए इसी तरह के दुष्प्रचार से भरे हज़ारों ऑडियो कैसेट बांटे गए. साथ ही, अल्पसंख्यकों को कश्मीर छोड़ने की धमकी देने वाले पोस्टर भी कई जगहों पर चिपकाए गए.”
“धमकी खोखली नहीं थी और 15 जनवरी, 1990 को एमएल भान नाम के एक सरकारी कर्मचारी की हत्या कर दी गई. उसी दिन एक और सरकारी कर्मचारी बलदेव राज दत्त का अपहरण कर लिया गया और उनका शव चार दिन बाद 19 जनवरी को मिला.”
इस बीच फ़ारूक़ अब्दुल्ला की सरकार ने इस्तीफ़ा दे दिया और वहां दूसरी बार राज्यपाल बनकर जगमोहन आए. उन्होंने 19 जनवरी को पदभार संभाला और तभी यह पलायन शुरू हुआ.
कश्मीर के इतिहास, राजनीति और सामाजिक जीवन पर लिखी अपनी किताब ‘कश्मीरनामा’ में अशोक कुमार पांडे ने 19 जनवरी की पृष्ठभूमि पर प्रकाश डाला है:
“कश्मीरियों की आक्रामकता के कई आयाम हो गए थे. कश्मीर की राजनीति पर दिल्ली का नियंत्रण, व्यवस्था में व्याप्त भ्रष्टाचार और आर्थिक पिछड़ापन, कश्मीरी युवाओं की अशांति को भड़का रहा था.”
“जैसे-जैसे कश्मीरी लोगों की अभिव्यक्ति की लोकतांत्रिक आज़ादी सिमटती गई, ग़ुस्सा नारों में और बाद में सशस्त्र संघर्ष में तब्दील हो गया.”
“राज्य में औद्योगिक विकास के लिए दिए गए ज़्यादातर धन का उपयोग जम्मू क्षेत्र में किया गया. 1977 में भारतीयों ने लोगों की ताक़त का स्वाद चखा और इंदिरा गांधी जैसे मजबूत नेता को हरा दिया. दूसरी तरफ़ कश्मीर के जनादेश लगातार दबाए जा रहे थे.”
“परिणामस्वरूप, राजनीतिक ताक़तों के ख़िलाफ़ ग़ुस्सा भारत विरोधी आक्रोश में बदल गया. और हम कह सकते हैं कि आज़ादी-समर्थक और भारत विरोधी ताक़तों के लिए उस हलचल का उपयोग करना आसान हो गया.”
और इसी बीच, 1987 के राज्य विधानसभा चुनावों में अनियमितताओं ने इस प्रक्रिया को भड़काने का काम किया.
1987 के चुनाव ने उत्प्रेरक की भूमिका अदा की
1987 में, कांग्रेस और नेशनल कॉन्फ्रेन्स ने एक साथ चुनाव लड़ने का फ़ैसला किया था, लेकिन उन्हें एक नई राजनीतिक ताक़त ‘मुस्लिम यूनाइटेड फ्रंट’ ने चुनौती दी.
मुस्लिम यूनाइटेड फ्रंट में सैयद अली शाह गिलानी की जमात-ए-इस्लामी, अब्दुल ग़नी लोन की पीपुल्स लीग और मीरवाइज़ मोहम्मद उमर फ़ारूक़ की अवामी एक्शन कमेटी शामिल थी.
इसके अलावा, उम्मत-ए-इस्लामी, जमीयत-ए-अल्लाह-ए-हदीस, अंजुमन-तहफ़ुज-उल-इस्लाम, इत्तिहाद-उल-मुस्लिमिन, मुस्लिम कर्मचारी संघ जैसे छोटे समूह भी इसमें शामिल हुए.
अशोक कुमार पांडे ने अपनी पुस्तक ‘कश्मीर और कश्मीरी पंडित: बसने और बिखरने के 1,500 साल’ में लिखा:
“इस्लाम समर्थक और जनमत-समर्थक दलों और समूहों का यह अंब्रेला संगठन उस समय कश्मीरी समाज और राजनीति में व्याप्त असंतोष का एक उदाहरण था.”
“बड़ी संख्या में लोग रैलियों में इकट्ठा हो रहे थे और यह मोर्चा भ्रष्टाचार, मुनाफ़ाखोरी, जमाखोरी मुक्त शासन देने और उनकी दुर्दशा के लिए ज़िम्मेदार लोगों को दंडित करने का वादा कर रहा था.”
कश्मीर में बेरोज़गारी एक बड़ी समस्या थी और यह मोर्चा सभी को नौकरी देने और उद्योग और रोज़गार लाने की बात कर रहा था.
फ़ारूक़ अब्दुल्ला ने इस मोर्चे को सत्ता से बाहर रखने के लिए कांग्रेस से हाथ मिलाया. चुनाव प्रक्रिया में बड़ी संख्या में गड़बड़ी के आरोप लगे.
उस समय की एक कांग्रेसी नेता खेमलता वुखलू ने बीबीसी को बताया, “मुझे याद है कि 1987 का चुनाव भारी अनियमितताओं से भरा था. हारने वाले उम्मीदवारों को विजेता घोषित कर दिया गया और इससे आम आदमी का चुनाव और लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं से भरोसा उठ गया.”
कई शिक्षित और बेरोज़गार युवाओं का इससे मोहभंग हुआ और उन्हें जेकेएलएफ़ ने लालच दिया और उनमें से कइयों को नियंत्रण रेखा के उस पार भेज दिया गया.
जेकेएलएफ़ और ‘कश्मीर छोड़ो’ का नारा
क्रिस्टोफ़र स्नाइडन ने अपनी किताब ‘अंडरस्टैंडिंग कश्मीर एंड कश्मीरी’ में जेकेएलएफ़ का परिचय देते हुए लिखा:
“यह 80 के दशक के दूसरे हिस्से की बात है. यह ऐसा समय था, जब भारत से कश्मीर की आज़ादी के लिए राजनीतिक आंदोलन और विरोध तेज़ हो रहे थे.”
“अब तक जो विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं, वे अब हिंसक हो रहे थे और कश्मीरियों की आज़ादी की मांग में हिंसा के तत्व को जोड़ा गया.”
“1987 में, राज्य में चुनाव हुए और कश्मीरी क्षेत्रीय दलों के गठबंधन मुस्लिम यूनाइटेड फ्रंट ने जीत की उम्मीद लगाई.”
“हालांकि, जब नतीज़ों ने उनकी और उन जैसे हज़ारों कश्मीरी युवाओं की आशाओं को धराशायी कर दिया, तो वे हताश हो गए. यहां तक कि शिक्षित युवाओं ने भी चुनावी प्रक्रिया में भरोसा खो दिया.”
“इनमें से कुछ युवा नियंत्रण रेखा पार कर पाकिस्तान चले गए और भारत के ख़िलाफ़ सशस्त्र युद्ध शुरू कर दिया.”
“पाकिस्तान की इंटर-सर्विसेज़ इंटेलिजेंस (ISI) को इससे मौक़ा मिला और वो आग लगाने में शामिल हो गई.”
“आईएसआई ने इन युवाओं को पाकिस्तान प्रशासित कश्मीर में प्रशिक्षित किया और उन्हें भारतीय सेना के ख़िलाफ़ लड़ने के लिए हथियार दिए.”
“ये प्रशिक्षित युवक भारत प्रशासित कश्मीर में घुस गए और इससे शांति भंग करने की प्रक्रिया शुरू हो गई.”
“1988 में भारत के ख़िलाफ़ बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन हुए और कश्मीर के कई हिस्सों में कर्फ़्यू लगा दिया गया.”
“साल भर बाद जुलाई 1989 में, श्रीनगर में टेलीग्राफ़ कार्यालय पर चरमपंथियों ने बमबारी कर दी.”
“एक साल बाद, कश्मीर के प्रसिद्ध धार्मिक नेता मीरवाइज़ मौलवी मोहम्मद उमर फ़ारूक़ की हत्या कर दी गई और उनके जनाजे में क़रीब 20 हज़ार कश्मीरी इकट्ठा हुए.”
“हालात नियंत्रण से बाहर होता देख भारत के सुरक्षा बलों ने लोगों पर गोलियां चला दीं, जिसमें 20 कश्मीरी मारे गए, जिससे कश्मीर में एक ख़ूनी अध्याय की शुरुआत हो गई.”
“जम्मू और कश्मीर लिबरेशन फ़्रंट (JKLF) ने इस हिंसक आंदोलन का नेतृत्व किया और भारत और पाकिस्तान दोनों से आज़ादी देने की मांग कर दी.”
1965 में, अमानुल्ला खान, मक़बूल बट और कुछ युवाओं ने कश्मीर की आज़ादी के इरादे से पाकिस्तान प्रशासित कश्मीर में ‘प्लेबिसाइट फ़्रंट’ नामक एक पार्टी बनाई थी.
भारत और पाकिस्तान दोनों के कश्मीर पर क़ब्ज़ा करने का विरोध करते हुए इस फ्रंट ने अपनी ख़ुद की एक सशस्त्र शाखा, जम्मू और कश्मीर नेशनल लिबरेशन फ़्रंट (JKLF) का गठन किया. उनका मानना था कि अल्जीरिया जैसे सशस्त्र संघर्ष से ही कश्मीर को भारत से अलग किया जा सकता है.
अशोक पांडे ‘कश्मीरनामा’ में लिखते हैं कि उसी जेकेएलएफ़ ने 1989 की गर्मियों में ‘कश्मीर छोड़ो’ का नारा बुलंद करना शुरू किया:
“हालात सुधारने के लिए, सरकार ने पाकिस्तान से वापस जाते समय गिरफ़्तार किए गए 72 लोगों को रिहा कर दिया, जो गंभीर आरोपों का सामना कर रहे थे.”
“इससे कोई फ़ायदा नहीं हुआ और अगले दिन सीआरपीएफ़ कैंप पर हमला हो गया और इसमें तीन जवान शहीद हो गए.”
“पहली राजनीतिक हत्या 21 अगस्त, 1989 को श्रीनगर में हुई, जिसमें नेशनल कान्फ़्रेन्स के प्रखंड अध्यक्ष मुहम्मद यूसुफ़ हलवाई की गोली मारकर हत्या कर दी गई.”
“एक प्रमुख हिंदू नेता और हब्बा क़दल घाटी में वकील टीकाराम टिपलूनी की 14 सितंबर को हत्या कर दी गई और 4 नवंबर को मक़बूल बट को मौत की सज़ा देने वाले जज नीलकंठ गंजू की हत्या कर दी गई.”
इस किताब के मुताबिक़, जेकेएलएफ़ ने इन हत्याओं की जिम्मेदारी ली.
इसी बीच, 8 दिसंबर को उस समय के केंद्रीय गृह मंत्री मोहम्मद सईद की बेटी डॉ. रुबिया सईद का अपहरण कर लिया गया और उन्हें छुड़ाने के लिए पांच चरमपंथियों को जेल से रिहा कर दिया गया. फ़ारूक़ अब्दुल्ला चरमपंथियों के सामने झुकने का कड़ा विरोध किया, लेकिन इसका कोई फ़ायदा नहीं हुआ.
इस घटना के बाद चरमपंथियों का मनोबल बढ़ गया और कई लोगों को जेल से छुड़ाने के लिए अपहरण की कई घटनाएं हुईं.
हालात क़ाबू से बाहर होते जा रहे थे और इस पर नियंत्रण करने की ज़िम्मेदारी राज्यपाल जगमोहन को दी गई.
क्या जगमोहन ने कश्मीर को बचाया?
जगमोहन को पहली बार अप्रैल 1984 में राज्यपाल के रूप में कश्मीर भेजा गया था, इसलिए वो कश्मीरियों के बीच लोकप्रिय थे.
अशोक कुमार पांडे ‘कश्मीरनामा’ में लिखते हैं, “घाटी में उनकी छवि हिंदू समर्थक और मुस्लिम विरोधी की थी.”
“इस तरह, जगमोहन के राज्यपाल बनते ही कश्मीर के एक मुस्लिम (मुफ़्ती मोहम्मद सईद) को गृह मंत्री बना कर कश्मीरियों का भरोसा जीतने की कोशिश विफल हो गई.”
“18 जनवरी को, कश्मीर में अर्धसैनिक बलों ने घर-घर जाकर तलाशी अभियान शुरू किया. जगमोहन ने जिस दिन जम्मू में अपना पदभार संभाला, उसी दिन सीआरपीएफ़ ने 19 जनवरी को क़रीब 300 युवाओं को हिरासत में ले लिया.”
20 जनवरी को जब जगमोहन श्रीनगर पहुंचे तो उनके विरोध में बड़ी संख्या में लोग इकट्ठे हो गए. इकट्ठा होने वालों में महिलाएं, बुज़ुर्ग और बच्चे भी शामिल थे.
“अगले दिन फिर से प्रदर्शन हुए और आग लगाने का आदेश जारी हुआ, जिसमें गावकदल में 50 से अधिक लोग मारे गए. आधिकारिक आंकड़ा 35 था. भारत की आज़ादी के बाद से किसी एक घटना में मारे गए लोगों की यह सबसे अधिक तादाद थी.”
जगमोहन ने अपनी किताब ‘माई फ्रोजन टर्बुलेंस इन कश्मीर’ में स्वीकार किया कि गावकदल में फायरिंग उनके (जगमोहन के) आदेश पर की गई.
अशोक कुमार पांडेय ऐसे ही एक और मामले की बात करते हैं:
“मीरवाइज़ की 21 मई, 1990 को हत्या कर दी गई. उनके जनाज़े में बड़ी संख्या में लोग इकट्ठा हुए थे. तत्कालीन मुख्य सचिव आर ठक्कर ने जगमोहन को सलाह दी थी कि वे निजी तौर पर वहां जाएं या उनकी कब्र पर फूल चढ़ाने के लिए किसी वरिष्ठ अधिकारी को वहां भेजें, पर जगमोहन नहीं माने.”
“उन्होंने जुलूस के रास्ते और जुलूस पर प्रतिबंध के बारे में कुछ भ्रम पैदा करने वाले निर्देश दिए. इस भ्रम के बाद, अर्धसैनिक बलों ने जुलूस पर गोलियां चला दीं क्योंकि वो अपने अंतिम पड़ाव यानी मीरवाइज़ तक पहुंचने ही वाला था.”
“आधिकारिक तौर पर, इस गोलीबारी में 27 लोग मारे गए थे. भारत के मीडिया ने मरने वालों की संख्या 47 बताई थी, जबकि बीबीसी के अनुसार यह आंकड़ा 100 था. हालात यह हुए कि कुछ गोली मीरवाइज़ के शव को भी लगी.”
‘कश्मीरनामा’ में अशोक कुमार पाण्डे लिखते हैं:
“जगमोहन के राज्यपाल रहने के दौरान घाटी में हिंदुओं और मुसलमानों के बीच दुश्मनी बढ़ गई. उनके बीच प्रचार किया गया कि जगमोहन को मुसलमानों को मारने के लिए भेजा गया है. दुर्भाग्य से अपने काम से उन्होंने इस तरह के आरोपों को हवा देने में मदद ही की.”
“मीरवाइज़ के जनाज़ा पर गोलीबारी और उसके बाद चले तलाशी अभियान ने कइयों को उकसाया और 10 हजार से अधिक लोग आज़ादी अभियान को तेज़ करने के लिए प्रशिक्षण लेने के लिए सीमा पार चले गए.”
“जगमोहन के समय में न केवल मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को बदनाम किया गया, बल्कि उच्च न्यायालय के कामकाज को प्रभावित करने के प्रयास भी किए गए. साफ है कि चरमपंथियों ने इस माहौल का जमकर फ़ायदा उठाया और संदेह और भय का माहौल बना दिया.”
अशोक पांडे इस तरह एमजे अकबर की किताब ‘कश्मीर बिहाइंड द वॉल’ का ज़िक्र करते हुए लिखते हैं, “कश्मीर में आज़ादी के लिए जनता का जो समर्थन छिपा हुआ था, वो 19 जनवरी के बाद बाहर आ गया.”
हालांकि, जगमोहन का दावा रहा कि उनके द्वारा उठाए गए कठोर कदमों के चलते ही कश्मीर टूटने से बच गया.
वरिष्ठ पत्रकार कल्याणी शंकर को दिए एक इंटरव्यू में उन्होंने अपना बचाव करते हुए कहा कि जब वे कश्मीर पहुंचे तो सरकार जैसा कुछ नहीं था और वहां चरमपंथियों का राज था.
उन्होंने कहा कि, “अफ़ग़ान युद्ध 1989 में समाप्त हो गया था और आईएसआई ने सभी मुजाहिदीनों को कश्मीर भेज दिया था.”
“उनके पास हर तरह के आधुनिक हथियार थे. उन्हें अफ़ग़ानिस्तान में गुरिल्ला युद्ध का अनुभव भी था. उन्हें आईएसआई का वित्तीय समर्थन भी हासिल था.”
“पाकिस्तान की आईएसआई ने उन्हें पैसे मुहैया कराए, उन्हें प्रशिक्षित किया, उन्हें हथियार दिए और उनमें इस्लामी उन्माद पैदा किया कि आपको भारत के ख़िलाफ़ लड़ना चाहिए, जिहाद करना चाहिए. और ये सब रिकॉर्ड में है.”
उन्होंने कहा, “अफ़ग़ान युद्ध के दौरान उन्होंने जो कुछ भी सीखा, उसे यहां कश्मीर में आजमाया.”
“जब राज्यपाल के रूप में मेरा पहला कार्यकाल समाप्त हुआ तो मैंने चेतावनी दी थी कि आईएसआई एक खेल खेल रहा है. कश्मीर लिबरेशन फ्रंट, हिज़्ब-उल-मुजाहिदीन सक्रिय हो रहे हैं.”
“मैंने एक पत्र भी लिखा था कि बाद में बहुत देर हो जाएगी, लेकिन मुझे वहां से जाना पड़ा, क्योंकि मेरा कार्यकाल ख़त्म हो गया था.”
“कश्मीर में चरमपंथ अपने चरम पर था. हिंसा की लगभग 600 घटनाएं हुई थीं और रुबिया सईद का अपहरण कर लिया गया था. कई प्रमुख कश्मीरी पंडित मारे गए थे. भारत सरकार के साथ काम करने वाले सभी लोगों को निशाना बनाया जा रहा था- ऐसे में मुझे वहां फिर भेजा गया. उम्मीद थी कि मैं हालात को सुलझाने में कामयाब होऊंगा.”
जगमोहन ने कश्मीर को भारत से अलग होने से बचाने का दावा करते हुए कहा, “लोग 26 जनवरी, 1990 को जुम्मे की नमाज़ के बाद आज़ादी की घोषणा करने के लिए ईदगाह में इकट्ठा होने की योजना बना रहे थे. मेरा कर्तव्य तब लोगों को वो खेल खेलने से रोकना था. मैंने उस नाटक को न होने का काम किया और इस तरह कश्मीर को बचाया गया.”
किसके साथ अन्याय नहीं हुआ?
जगमोहन के अनुसार, उनके प्रयासों से कश्मीर को अलग होने से बचाया जा सकता था, लेकिन पंडितों के अनुसार, वो पंडितों के पलायन को नहीं रोक सके.
चरमपंथ की शुरुआत होने के बाद, कश्मीर घाटी में रहने वाले 3.5 लाख कश्मीरी पंडितों में से अधिकांश ने अपनी मातृभूमि छोड़ दी और जम्मू या देश के अन्य हिस्सों में जाकर बस गए.
एक अनुमान है कि एक लाख से अधिक पंडितों ने कश्मीर घाटी छोड़ दी थी.
कश्मीरी पंडित संघर्ष समिति के अध्यक्ष संजय टीकू के अनुसार, 1990 तक जम्मू-कश्मीर में चरमपंथ के फैलने के बाद से कम से कम 399 कश्मीरी पंडित मारे गए और 1990 के बाद के 20 सालों में कुल 650 कश्मीरी अपनी जान गंवा चुके हैं.
टीकू का यह भी मानना है कि अकेले 1990 में ही 302 कश्मीरी पंडितों की हत्या कर दी गई थी.
जम्मू और कश्मीर सरकार ने 2010 में विधानसभा को बताया था कि 1989 से 2004 के बीच कश्मीर में 219 पंडित मारे गए थे. राज्य सरकार के अनुसार, उस समय कश्मीर में 38,119 पंडित परिवार रजिस्टर्ड थे, जिनमें से 24,202 परिवार पलायन कर गए थे.
टीकू अभी भी कश्मीर घाटी में रहते हैं और उनके अनुसार 808 परिवारों के कुल 3,456 कश्मीरी पंडित अभी भी कश्मीर में रहते हैं और सरकार ने अब तक उनके लिए कुछ नहीं किया.
बीबीसी गुजराती के साथ एक साक्षात्कार में वो कहते हैं, “बीजेपी पिछले सात सालों से केंद्र में सत्ता में है और उन्हें कश्मीरी पंडितों के पुनर्वास से कौन रोक रहा है? पिछले बजट में पंडितों के पुनर्वास के लिए कितना फंड दिया गया?”
ऐसा ही आरोप अहमदाबाद में रहने वाले एक कश्मीरी पंडित एके कौल ने भी लगाया.
बीबीसी गुजराती को दिए इंटरव्यू में एके कौल ने कहा, ”भाजपा और कांग्रेस दोनों ने अपनी राजनीति के लिए कश्मीरी पंडितों के सवालों का इस्तेमाल किया.
”मैंने गुजरात सरकार को इस बारे में कई प्रेजेंटेशन दिए हैं और उनसे राज्य में हमें जमीन या कोई अन्य मदद देने को कहा, लेकिन गुजरात सरकार ने हमारे लिए कभी कुछ नहीं किया.”
“कांग्रेस ने भी हमारा इस्तेमाल किया, बीजेपी ने भी हमारा इस्तेमाल किया और वे अब भी हमारा इस्तेमाल कर रहे हैं. मोदी सरकार ने भी कश्मीरी पंडितों के नामों का इस्तेमाल किया.”
उन्होंने कहा, ”गुजरात सरकार ने कोई मदद नहीं की. मैंने मोदी सरकार को तीन बार पत्र लिखा, लेकिन मुझे अब तक कोई जवाब नहीं मिला.”
अशोक कुमार पांडे का भी मानना है कि आरोपों और जवाबी आरोपों के बीच न केवल कश्मीरी पंडितों के साथ बल्कि कश्मीर के सभी लोगों के साथ अन्याय हुआ है.
अशोक कुमार पांडे ने अपनी किताब ‘कश्मीर और कश्मीरी पंडित: बसने और बिखरने के 1,500 साल’ में लिखा है:
”न्याय एक ऐसी चीज़ है जो कश्मीर में हर पार्टी को ठगा हुआ महसूस कराती है.”
”पाकिस्तान को लगता है कि सीमा से सटे कश्मीर के मुस्लिम बहुल इलाकों को उसे न देकर माउंटबेटन से लेकर हरिसिंह और संयुक्त राष्ट्र तक सभी ने उसके साथ अन्याय किया.”
“हिंदुस्तान को लगता है कि यहां इतना पैसा ख़र्च करने के बाद भी यहां के लोग उसके साथ नहीं खड़े हैं और यह अन्याय है.”
“कश्मीरी मुसलमान अन्याय महसूस करते हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि कभी भी वादे के अनुसार जनमत संग्रह नहीं करवाया गया और लोकतंत्र को नियंत्रित किया गया. शेख़ अब्दुल्ला को जीवन भर लगा कि उनके साथ अन्याय हुआ और फ़ारूक़ अब्दुल्ला को भी लगता है कि उन्होंने तिरंगा झंडा लहराया, लेकिन फिर भी भरोसा नहीं किया गया.”
“जिन पंडितों को कश्मीर छोड़ना पड़ा, वे महसूस करते हैं कि वे भारत के साथ खड़े हैं, लेकिन 1990 में उन्हें कोई सुरक्षा नहीं दी गई. कश्मीर में रहने वाले पंडितों को लगता है कि यहां रहने के बावजूद, सरकार ने उनकी उपेक्षा की.”
-