ज्यादा स्पीड पकड़ ले तो छोटी लाइन की रेल बैलगाड़ी की तरह कुदाती है. उस दिन वह झुला भी रही थी. तेज चलती गाड़ी एकाएक अचकचा कर रूकी तो खिड़की से बाहर देखा. निपट बहियार में गाड़ी खड़ी थी. चारों तरफ हरे-भरे खेत, आबादी का कोई नामों निशान नहीं, चिड़िया-चुनमुन भी नहीं. जरूर किसी ने वैक्यूम खोला होगा.
80 के दशक में चेन पुलिंग की महामारी से आजिज आकर रेलवे ने बिहार की ज्यादातर ट्रेनों से चेन ही निकाल दिए थे! स्टेशनों की बजाय लोग घर के पास चेन खींच कर उतरना पसंद करते थे. जब चेन निकाले गए तो लोगों ने उसका तोड़ भी ढूंढ लिया. वे दरवाजे से बाहर लटक कर वैक्युम पाइप की चाबी खोल देते थे. ट्रेन के ब्रेक लग जाते थे.बिहार के मुसाफिर चेन पुलिंग के अभ्यस्त हैं. गाड़ी एक दफा रुक जाए, तो 10-15 मिनट कोई ध्यान नहीं देता. पर उस दिन ज्यादा देर हो गई. बाहर निकले तो जोरदार दृश्य था. दूर खेत में एक आदमी माथे पर लाल गमछा बांधे, चारखाने की लुंगी घुटने तक उपर कर, एक लाठी को अपनी कांख के नीचे दबाए, उसके सहारे उँगठा खड़ा था. उससे थोड़ी दूरी पर ट्रेन का ड्राइवर, खलासी, गार्ड, टीटी और दो पुलिस वाले खड़े थे. दूरी पर शायद इसलिए कि क्या ठीक, आदमी ढेला-पत्थर न चलाने लगे. पास में कुछ पैसेंजर भी तमाशबीन की मुद्रा में ड्रामा देख रहे थे
बिहार में जिसको इज्जत देते हैं, उसे निर्देश नहीं देते, अनुरोध करते हैं — आया जाय, खाया जाय, बैठा जाय.
“हम चभिया थोडको लिए हैं,” लाठी ने इसबार जवाब तो दिया, पर उसके बाद मुहँ दूसरी तरफ घुमा लिया.“कोई बेमार होगा, किसी को परिच्छा देना होगा,” गार्ड साहब ने लाठी की नागरिक भावना को जगाना चाहा.
हमरा नौकरी पर आ जाएगा, भाई साहब,” ड्राइवर साहब ने उसके अंदर के इंसान को झकझोरा.गुमशुदा चाबी की तलाश
लाठी बकवास सुनते सुनते थक गया था. वह खेत की मेड़ पर बैठ गया. पुलिस वाले उसे खा जाने वाली नजर से घूर रहे थे.हुआ यह था कि ड्राइवर-गार्ड जब वैक्युम पाइप बंद करने पहुंचे तो देखा कि उसकी चाबी ही गायब थी. आम तौर पर वैक्युम खोलने वाले चाबी ढीली कर देते हैं. स्टाफ आता है, चाबी टाइट करता है, और ट्रेन के ब्रेक खुल जाते हैं. लाठी के साथ सख्ती नहीं की जा सकती थी. स्टाफ का रोज का आना-जाना था.
10-15 मिनट के इंतजार के बाद दूर बांसबिट्टी के पीछे से एक साइकिल आते दिखी. उसके दोनों तरफ टीन को बड़े कनस्तर थे, जिनमें आमतौर पर दूध रखा जाता है. उसे देखकर लाठी उठा. (अब बिहार में हमको इ नहीं सिखाइए कि लाठी स्त्रीलिंग है.) साइकिल वाला पास आया, लाठी ने लुंगी की रहस्यमय तहों से चाबी निकालकर गार्ड की तरफ फेंक दी. तबतक साइकिल वाले भाई साहब अपना कनस्तर और साइकिल खिड़की की छड़ों से बांध कर रेल में सवार हो चुके था. गाड़ी चल दी.
जहां हर सफर एक एडवेंचर है
अब आपको समझ में आया कि बिहार में घुसते के साथ ट्रेनें लेट क्यों होने लगती हैं? हमारे गांव से गुजरने वाली एक ट्रेन के गार्ड का किस्सा अप-डाउन पैसेंजर वर्षों चटखारे लेकर सुनाते रहे. 60 के दशक की बात है. नियमित सफर करने वालों की शिकायत थी कि गार्ड साहब कचराही बतियाने लगे थे. कचराही मतलब कचहरी की बोली. जो थोड़ा कायदा-कानून छाँटने लगे, उसके बारे में कहते हैं, कचराही बतिया रहा है. गार्ड साहब ढाले पर गाड़ी नहीं रोकते थे. कहते थे वहांं टेशन नहीं है! ये भी भला कोई बात हुई!
उस दिन ओलापुर में गार्ड साहब ने सिटी बजाई, हरी झंडी दिखाई और उनकी ट्रेन रेंगने लगी. वे दरवाजे पर ही खड़े थे कि कुछ लोगों ने उनका हाथ पकड़ कर गाड़ी से उतार लिया. ट्रेन ने रफ्तार पकड़ ली. गार्ड झंडे के साथ प्लेटफ़ॉर्म पर रह गए, छोकरे भाग गए. काफी दूर जाकर ड्राइवर को पता चला. गाड़ी रेंगते हुए बैक हुई
ये तो 20वीं सदी के किस्से थे. पर बिहार 21वीं सदी में भी नहीं बदला है. 2019 में भारत में में चेन पुलिंग की 55,373 वारदातें हुईं. इसमें से हर पांचवा केस दानापुर डिवीजन (पटना) का था! भारतीय रेलवे में दानापुर की तरह 68 डिवीजन हैं. बिहार में कुल चार रेल डिवीजन हैं. उनके आंकड़े भी जोड़ लें तो देश के लगभग सारे चेन पुलिंग केस इसी प्रदेश में होते हैं! पहले लोग केवल घर के सामने उतरने के लिए चेन खींचते थे. अब आरपीएफ का कहना है कि जब से बिहार में शराबबंदी हुई है, तस्कर अपना माल उतारने के लिए चेन खींचते हैं. 2019 में आरपीएफ ने कहा कि वह रेलवे से अनुरोध करेगा कि चेन पुलिंग की सुविधा (फिर) निष्क्रिय कर दी जाए.
16 मई 2007 को रेलवे इतिहास में पहली बार चेन पुलिंग की वजह से पैसेंजरों को ट्रेन में धक्का लगाना पड़ा. हुआ यह कि चेन खींचने के बाद इंजन पटरी पर उस जगह रुका जहां ओवेरहेड लाइन में करेंट नहीं था. यात्रियों ने 12 मीटर तक धक्का मारा, इंजन का बिजली से संपर्क हुआ, तब ट्रेन आगे बढ़ पाई. बिहार में रेल का हर सफर अपने-आप में एक एडवेंचर हो सकता है.