नलिन मेहता
जो लोग बीजेपी के विरोधी हैं उनका आसान सा अंकगणित है कि चुनावों में भगवा वर्चस्व को तोड़ने के लिए विपक्ष को बस एकजुट होने की जरूरत है। बीजेपी-विरोध के समान धरातल यानी दुश्मन का दुश्मन दोस्त वाली भावना से बना गठबंधन अपने आप बीजेपी के दबदबे को खत्म कर देगा। आखिर, 2019 में अपनी प्रचंड दूसरी लहर के बावजूद बीजेपी भारत के कुल वोटरों के एक तिहाई से महज कुछ ज्यादा (37.36% वोटशेयर) का ही समर्थन हासिल कर पाई थी। ऐसी दलील दी जाती है कि बाकी बचे 2 तिहाई वोटों को एक साथ ला दिया जाए तो मोदी की ऊंची उड़ान थम जाएगी। हालांकि, राष्ट्रपति चुनाव में हुई वोटिंग ने इस अंकगणित की धज्जियां उड़ा दी हैं।
राष्ट्रपति चुनाव में कई क्षेत्रीय दलों ने एनडीए की उम्मीदवार द्रौपदी मुर्मू का समर्थन किया। ये दिखाता है कि विपक्षी दलों का प्रभावी गठबंधन बनाने के लिए महज मोदी-विरोधवाद अपने आप में पर्याप्त नहीं है। करीब 50 राजनीतिक दलों ने मुर्मू के पक्ष में वोटिंग की। इसके उलट सिर्फ 36 विपक्षी दलों ने ही यशवंत सिन्हा का समर्थन किया। खास बात ये है कि मुर्मू का समर्थन करने वालों में तमाम ऐसी पार्टियां शामिल हैं जो एनडीए का हिस्सा नहीं हैं। मसलन- ओडिशा की बीजेडी, आंध्र प्रदेश की वाईएसआर कांग्रेस, मायावती की बीजेपी, झारखंड की जेएमएम, कर्नाटक की जेडीएस और यहां तक कि उद्धव ठाकरे की अगुआई वाला शिवसेना का गुट भी।
बीजेपी ने राष्ट्रपति उम्मीदवार के तौर पर आदिवासी महिला का जो दांव चला, उसके आगे विपक्ष चारों खाने चित नजर आया है। बहुत सी पार्टियों के लिए पहली बार किसी आदिवासी महिला के देश के सर्वोच्च पद तक पहुंचने की संभावनाओं का विरोध करना मुश्किल हो गया। सत्ताधारी बीजेपी के बदलते सियासी डीएनए और वंचित तबके को आगे बढ़ाने के संदेश ने उन तमाम विपक्षी दलों की मुश्किलें बढ़ा दी जो हिंदुत्व की विचारधारा या फिर महज बीजेपी-विरोध के आधार पर मुर्मू की मुखालफत करना चाहते थे।
भारतीय राजनीति में 2014 के बाद से क्षेत्रीय पार्टियां भी बड़े संरचनात्मक बदलाव के दौर से गुजर रही हैं। 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले इस उथल-पुथल ने उनकी चुनौतियां बढ़ा दी है। मोटे तौर पर मौजूदा भारतीय राजनीति को 4 तरह के सिस्टम में बांटा जा सकता है और ये चारों ही भारी उथल-पुथल के दौर से से गुजर रहे हैं।
1. बीजेपी बनाम कांग्रेस (दो पार्टी सिस्टम)
ये वे राज्य हैं जहां लंबे समय से पूरी राजनीति दो पार्टियों- कांग्रेस और बीजेपी के ईर्द-गिर्द घूमती है। दोनों ही पार्टियों में सीधा मुकाबला होता है।
कौन से राज्य- गुजरात, हिमाचल, राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढञ, उत्तराखंड और दिल्ली। हाल के वर्षों में कर्नाटक और अब तो मणिपुर और त्रिपुरा को भी इस श्रेणी में गिना जा सकता है। इनमें से ज्यादातर राज्यों में बीजेपी या फिर कांग्रेस सत्ता में आती रहती है।
- 2014 के बाद नरेंद्र मोदी की अगुआई में न्यू बीजेपी के उभार के बाद राष्ट्रीय चुनावों में ये पैटर्न छिन्न-भिन्न हो चुका है।
- 2014-19 के बीच बीजेपी ने इन राज्यों में राष्ट्रीय चुनावों के दौरान न सिर्फ बढ़त हासिल की बल्कि ज्यादातर राज्यों में उसका वोटशेयर भी नाटकीय तौर पर बढ़ा है।
क्या बदलाव- इससे कांग्रेस बुरी तरह कमजोर हुई है जिससे राष्ट्रीय स्तर पर गठबंधन की धुरी बनने की उसकी क्षमता घटी है। इतना ही नहीं, दिल्ली में कांग्रेस के वोटबैंक को आम आदमी पार्टी ने हथिया लिया है। 2022 के पंजाब चुनाव में भी यही दिखा। इस तरह AAP भी कांग्रेस को ही कमजोर कर रही।
2. बीजेपी बनाम क्षेत्रीय पार्टियां
ये वे राज्य हैं जहां बीजेपी ने मुख्य विपक्षी दल के तौर पर कांग्रेस या दूसरी पार्टियों की जगह ले ली है।
कौन से राज्य– आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, पश्चिम बंगाल और ओडिशा।
- ओडिशा में बीजेपी के खाते में 2014 में 1 लोकसभा सीट (21.5% वोटशेयर) थी जो 2019 में बढ़कर 8 हो गई। इस दौरान वोट शेयर भी बढ़कर 38.4 प्रतिशत पहुंच गया। हालांकि, विधानसभा चुनावों में बीजेडी ने आसान जीत दर्ज की। बंगाल में भी 2019 के लोकसभा चुनाव और 2021 के विधानसभा चुनाव में ओडिशा जैसा ही पैटर्न दिखा।
- तेलंगाना में बीजेपी ने सत्ताधारी टीआरएस की मुख्य प्रतिद्वंद्वी के तौर पर कांग्रेस की जगह ले ली है। 2019 के लोकसभा चुनावों में बीजेपी ने 4 सीटों पर जीत दर्ज की। इनमें टीआरएस के मजबूत गढ़ करीमनगर और निजामाबाद भी शामिल हैं। उसके बाद दिसंबर 2020 में हैदराबाद निगम चुनावों बीजेपी दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी।
क्या बदलाव
अब तमाम क्षेत्रीय पार्टियां आक्रामक बीजेपी से अपने-अपने किले को बचाने की कोशिश में लगी हैं। वैसे तो ये सभी पार्टियां बीजेपी को कमजोर देखना चाहती हैं लेकिन इनमें से कुछ ही राष्ट्रीय स्तर पर कुछ ऐसे रणनीतिक कदम उठाने की कोशिश कर रही हैं जिससे स्थानीय स्तर पर बीजेपी के उभार को कुछ और समय तक टाला जा सके।
3. क्षेत्रीय पार्टियां बनाम क्षेत्रीय पार्टियां
तमिलनाडु में बीजेपी कोई खास ताकत नहीं है। यही हाल केरल का है जहां लेफ्ट और कांग्रेस क्षेत्रीय पार्टियों के अंदाज में ही चलती हैं।
- तमिलनाडु की बात करें तो यहां राष्ट्रीय मुद्दे बहुत प्रभावी नहीं हैं लेकिन नॉर्थ तमिलनाडु जैसे इलाकों में वोटशेयर में इजाफे को बीजेपी उम्मीद के किरण के तौर पर देखती है। केरल के तिरुवनंतपुरम में बीजेपी का वोटशेयर 31 प्रतिशत से ज्यादा दिखा। पटनमटीटा और त्रिसूर में उसका वोटशेयर 25 प्रतिशत से ज्यादा है।
क्या बदलाव–
एआईएडीएमके अंतर्कलह से जूझ रही है वहीं केरल में कांग्रेस लगातार कमजोर हो रही है। बीजेपी इस मौके को भुनाने की कोशिश कर रही है। स्थानीय समीकरण नए सिरे से उभर रहे हैं।
4. बहुध्रुवीय राजनीति में बीजेपी का दबदबा
ये वे राज्य हैं जहां परंपरागत तौर पर बहुध्रुवीय मुकाबला होता आया है और अब वहां बीजेपी ने अपना दबदबा बना लिया है।
कौन से राज्य/क्षेत्र– यूपी, असम, पूर्वोत्तर, झारखंड। यहां तक कि महाराष्ट्र को भी कुछ हद तक इसी श्रेणी में गिना जा सकता है।
क्या बदलाव
बीजेपी ताकतवर हुई है और तमाम क्षेत्रीय पार्टियों को बैकफुट पर धकेल चुकी हैं। गैरबीजेपी पार्टियां अपने बिखर रहे वोट बैंक को सहेजने के लिए लड़ रही हैं।
बीजेपी की विचारधारा कभी उसके विकास की राह में सबसे बड़ा रोड़ा था। लेकिन अब राजनीति बदल चुकी है। हिंदुत्व अब दक्षिण भारत के कुछ हिस्सों को छोड़ दें तो बीजेपी के विस्तार में बाधक नहीं है।
दूसरी बात ये कि तेलंगाना जैसे राज्यों में जहां बीजेपी मुख्य विपक्ष की भूमिका में है, वहां सरकार से असंतुष्ट और उसके कट्टरविरोधी नेताओं के लिए बीजेपी एक पसंदीदा ठिकाने के तौर पर उभर रही है। इटाला राजेंदर को ही ले लीजिए। टीआरएस के इस पूर्व नेता ने 2021 में केसीआर कैबिनेट से इस्तीफा देने के बाद बीजेपी का दामन थाम लिया। नवंबर 2021 के हुजुराबाद उपचुनाव में उन्होंने टीआरएस के प्रतिद्वंद्वी को करीब 24 हजार मतों के भारी अंतर से शिकस्त दी।
अतीत में बने महागठबंधनों को देखें तो उसके लिए कांग्रेस जैसी किसी बड़ी पार्टी का धुरी बनना जरूरी है या फिर उसके पीछे कोई करिश्माई नेता हो, जैसे 1990 के दशक में हरकिशन सिंह सुरजीत थे। कांग्रेस के पतन और राज्यों की राजनीति में संरचनात्मक उथल-पुथल का मतलब है कि किसी संभावित महागठबंधन की राह में रोड़े बढ़ गए हैं। 2024 में बीजेपी-विरोधी क्षेत्रीय पार्टियों के लिए ये सबसे बड़ी चुनौती है।