सोलन। जिला सोलन के प्रसिद्ध पर्यटन स्थल चायल के काली टिब्बा मंदिर में आयोजित सप्त दिवसीय श्रीमद् भागवत कथा का आज धूमधाम से समापन किया गया । श्री श्री 1008 महंत शंभू भारती जी महाराज द्वारा आयोजित कथा में भक्तों ने सातों दिन भगवान की कथा का अमृत पान किया । आचार्य श्री सुमित भारद्वाज ने भक्तों को अंतिम दिवस की कथा सुनाई। महाराज ने कहा कि कृष्ण और सुदामा जैसी मित्रता आज कहां है। द्वारपाल के मुख से पूछत दीनदयाल के धाम, बतावत आपन नाम सुदामा सुनते ही द्वारिकाधीश नंगे पांव मित्र की अगवानी करने राजमहल के द्वार पर पहुंच गए। यह सब देख वहां लोग यह समझ ही नहीं पाए कि आखिर सुदामा में ऐसा क्या है जो भगवान दौड़े दौड़े चले आए। बचपन के मित्र को गले लगाकर भगवान श्रीकृष्ण उन्हें राजमहल के अंदर ले गए और अपने सिंहासन पर बैठाकर स्वयं अपने हाथों से उनके पांव पखारे। कहा कि सुदामा से भगवान ने मित्रता का धर्म निभाया और दुनिया के सामने यह संदेश दिया कि जिसके पास प्रेम धन है वह निर्धन नहीं हो सकता। राजा हो या रंक मित्रता में सभी समान हैं और इसमें कोई भेदभाव नहीं होता। कथावाचक ने सुदामा चरित्र का भावपूर्ण सरल शब्दों में वर्णन किया कि उपस्थित लोग भाव विभोर हो गए।
उन्होंने कहा कि मित्रता हो तो श्रीकृष्ण और सुदामा जैसी हो। सुदामा चरित्र की व्याख्या करते हुए कहा कि निर्धन होने पर भी भक्ति कैसे की जाती है। यह हमको सुदामा चरित्र से सीखने को मिलता है। कथा में शुकदेव की विदाई और महाराजा परीक्षित को मोक्ष और सात दिनों की कथा का सूक्ष्मरूप से व्याख्यान किया।
आचार्य ने कहा कि परमार्थिक कार्य की कभी समाप्ति नही होती पर मयार्दा के हिसाब से पूर्णता होना निश्चित है। हर वस्तू की प्राप्ति के साथ वियोग भी है। हर एक समय मनुष्य की भक्ति करना जीवन का मूल उद्देश्य होना चाहिए। सांसारीक कार्य करने के बाद पश्चाताप हो सकता है, परन्तु ईश्वरीय भक्ति, साधना, ध्यान, परोपकार के पश्चात् पश्चाताप नहीं बल्कि आनन्द, आत्म संतोष की अनुभूति प्राप्त होती है।
उन्होंने कहा कि अमृत से मीठा अगर कुछ है तो वह भगवान का नाम है। परमात्मा सत्यता के मार्ग पर प्राप्त होंते है। मन-बुद्धि, इंन्द्रियों की वासना को समाप्त करना है, तो हृदय में परमात्मा की भक्ति का दीप जलाना पड़ेगा। परब्रम्ह परमात्मा का नाम कभी भी लो , हर समय परमात्मा का चिन्तन करें क्योंकि ईश्वर का प्रतिरूप ही परोपकार है।
आचार्य ने कहा कि परमार्थिक कार्य की कभी समाप्ति नही होती पर मयार्दा के हिसाब से पूर्णता होना निश्चित है। हर वस्तू की प्राप्ति के साथ वियोग भी है। हर एक समय मनुष्य की भक्ति करना जीवन का मूल उद्देश्य होना चाहिए। सांसारीक कार्य करने के बाद पश्चाताप हो सकता है, परन्तु ईश्वरीय भक्ति, साधना, ध्यान, परोपकार के पश्चात् पश्चाताप नहीं बल्कि आनन्द, आत्म संतोष की अनुभूति प्राप्त होती है।
उन्होंने कहा कि अमृत से मीठा अगर कुछ है तो वह भगवान का नाम है। परमात्मा सत्यता के मार्ग पर प्राप्त होंते है। मन-बुद्धि, इंन्द्रियों की वासना को समाप्त करना है, तो हृदय में परमात्मा की भक्ति का दीप जलाना पड़ेगा। परब्रम्ह परमात्मा का नाम कभी भी लो , हर समय परमात्मा का चिन्तन करें क्योंकि ईश्वर का प्रतिरूप ही परोपकार है।
कथा के अंतिम दिन शुकदेव द्वारा राजा परीक्षित को सुनाई गई श्रीमद् भागवत कथा को पूर्णता प्रदान करते हुए कथा में विभिन्न प्रसंगो का वर्णन किया। श्री कृष्ण का स्वधाम गमन एवं अंत में राजा परिक्षित को मोक्ष प्राप्ति के प्रसंगो को सुनाया। कथा के दौरान श्री कृष्ण के भक्तिमयी भजनों की प्रस्तुति से पांडाल में उपस्थित भक्त गण झूम उठे तथा श्री कृष्ण भजनों पर झुमते हुए कथा एवं भजनों का आनन्द लिया। सभी भक्त जनों ने भंडारे का प्रसाद ग्रहण किया आचार्य सुमित भारद्वाज ने व्यासपीठ से श्रीमद् भागवत कथा का आयोजन करने के लिए गुरुदेव को धन्यवाद दिया और समस्त इलाका वासी व भक्त जनों को आशीर्वाद दिया कि यूं ही भगवान के आयोजन होते रहे। उन्होंने भंडारे में प्रसाद बनाने वाले व श्रीमद् भागवत कथा में अपना सहयोग देने वाले हर जन को धन्यवाद दिया। उन्होंने कहा कि मंदिर में बहुत ही सुंदर आयोजन हुआ है। हर वर्ष की भांति अगले वर्ष भी इसी तरह सुंदर कथा का आयोजित हो ऐसा ही व्यासपीठ से आशीर्वाद है।