सिदो ने खुद को बताया देवदूत, 30 हजार संथालों ने दी जान… राष्ट्रपति द्रोपदी मुर्मू ने अपने पहले भाषण में जिस क्रांति का जिक्र किया, जान लीजिए वो संघर्ष

संथाल समुदाय झारखण्ड-बंगाल के सीमावर्ती क्षेत्रों के पर्वतीय इलाकों, मानभूम, बड़ाभूम, सिंहभूम, मिदनापुर, हजारीबाग, बांकुड़ा क्षेत्र में रहते थे। कोलों के जैसे ही संथालों ने भी लगभग उन्हीं कारणों के चलते अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह किया। इस विद्रोह को भी अंग्रेजी सेना ने कुचल डाला। संथालों का जीवन-यापन कृषि और वन संपदाओं पर निर्भर था।

 
president draupadi murmu first speech after oath she said about Santhal Rebellion Hul Kranti
नई दिल्ली: द्रौपदी मुर्मू ने आज राष्ट्रपति पद की शपथ ले ली। उन्होंने अपने शपथ के बाद पहला भाषण दिया। राष्ट्रपति मुर्मू ने अपने भाषण में देश की पहली क्रांति से लगाकर भारत की आत्मा को तह तक छुआ। पहली आदिवासी राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने भारत की विविधता, अखंडता के साथ ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ सबसे पहली क्रांति करने वाले संथाल जनजाति का जिक्र किया। इतिहास ने हमें भारत की आजादी के लिए पहली क्रांति 1857 की क्रांति बताई गई है मगर उससे पहले भी कई समूह अंग्रेजों से दो-दो हाथ कर चुके थे। ऐसा ही था संथाल आंदोलन। इस आंदोलन ने अंग्रेजी हुकूमत के छक्के छुड़ा दिए थे। देश भर में 30 जून को हूल क्रांति दिवस मनाया जाता है और अंग्रेजों के खिलाफ लड़ने वाले आदिवासियों की शौर्य गाथा और बलिदान को याद किया जाता है।

अपने पहले भाषण में किया संथाल क्रांति का जिक्र
पहले यहां पर हम पढ़ते हैं कि राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने कहा क्या है। उन्होंने कहा, ‘विविधताओं से भरे अपने देश में हम अनेक भाषा, धर्म, संप्रदाय, खान-पान, रहन-सहन, रीति-रिवाजों को अपनाते हुए ‘एक भारत – श्रेष्ठ भारत’ के निर्माण में सक्रिय हैं। संथाल क्रांति, पाइका क्रांति से लेकर कोल क्रांति और भील क्रांति ने स्वतंत्रता संग्राम में आदिवासी योगदान को और सशक्त किया था। सामाजिक उत्थान एवं देश-प्रेम के लिए ‘धरती आबा’ भगवान् बिरसा मुंडा जी के बलिदान से हमें प्रेरणा मिली थी।’

हर हिंदुस्तानी को याद रखनी चाहिए ये तारीख
प्रथम स्वाधीनता संग्राम की ये तारीख किसी हिंदुस्तानी को नहीं भूलनी चाहिए। ये तारीख है 30 जून सन् 1855। अंग्रेजों की दमनकारी नीतियों से हर हिंदुस्तानी कराह रहा था मगर वो कुछ कर नहीं सकता था। अंग्रेजी जुल्म हर रोज बढ़ते जा रहे थे। किसान दिन रात खून पसीना करके फसल उपजाता था फिर भी वो भूख के लिए एक चुटकी आटा के लिए मोहताज रहता था। ये सब संथाल जनजाति के लोगों को हर दिन चुभ रहा था। मगर बगावत का बिगुल फूंके तो फूंके कौन। ये सवाल था।

पहाड़ में करने लगे थे खेती
संथाल समुदाय झारखण्ड-बंगाल के सीमावर्ती क्षेत्रों के पर्वतीय इलाकों, मानभूम, बड़ाभूम, सिंहभूम, मिदनापुर, हजारीबाग, बांकुड़ा क्षेत्र में रहते थे। कोलों के जैसे ही संथालों ने भी लगभग उन्हीं कारणों के चलते अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह किया। इस विद्रोह को भी अंग्रेजी सेना ने कुचल डाला। संथालों का जीवन-यापन कृषि और वन संपदाओं पर निर्भर था। स्थायी बंदोबस्त के स्थापना के बाद संथालों के हाथ से खुद की जमीन भी निकल गयी। इसलिए उन्होंने अपना इलाका छोड़ दिया और राजमहल की पहाड़ियों में रहने लगे। यहां की जमीन को उन्होंने कृषि के योग्य बनाया, जंगल काटे और घर बनाया। संथालों के इस इलाके को दमनीकोह के नाम से जाना गया।

वहां भी अंग्रेजों ने किया कब्जा
अंग्रेजों की नजर दमनीकोह पर भी पड़ गई। अब वो यहां पर भी पहुंचकर लगान और टैक्स वसूलने की धमकी देने लगे। अब उस इलाके में जमींदारों, महाजनों, साहूकारों और सरकारी कर्मचारियों का वर्चस्व बढ़ने लगा। बेचारे संथालों पर लगान की राशि इतनी रखी गई कि लगान के बोझ तले वे बिखर गए। दमन का तांडव ऐसा था कि महाजन द्वारा दिए गए कर्ज पर 50 से 500% तक का सूद वसूल किया जाने लगा। वे लगान चुकाने में असमर्थ हो गये. इन सब कारणों के चलते संथाल किसानों की दरिद्रता बढ़ गयी। जब वो कर्ज लौटाने में असमर्थ हो गए तो उनकी जमीनों पर कब्जा कर लिया और जो उनका जीने सहारा था वो भी छीन लिया गया।

नहीं तैयार हो रहे थे लोग तो खुद को बताया देवदूत
इस क्रांति का प्रमुख नाम था सिद्धू। सिद्धू के बार-बार कहने पर भी क्रांति की आवाज नहीं बुलंद हो रही थी। अब वो परेशान हो गया कि बिना लोगों के समर्थन के अकेले क्रांति नहीं हो सकती। उसके लोगों की जरूरत थी। जो अंग्रेजों के खिलाफ लड़ सके। सिद्धू ने खुद को देवदूत बताया, ताकि संथाल समुदाय उसकी बातों पर विश्वास कर सके। संथालों के अन्दर धर्म भावना पैदा करने के लिए उसने कहा कि वह भगवान् ठाकुर के द्वारा भेजा गया दूत है जिन्हें वे रोज पूजते हैं। 30 जून, 1855 ई. को इन भाइयों ने सथालों की एक आमसभा बुलाई जिसमें 10,000 संथालों ने भाग लिया। इस सभा में संथालों को यह विश्वास दिलाया गया कि खुद भगवान् ठाकुर की यह इच्छा है कि जमींदारी, महाजनी और सरकारी अत्याचारों के खिलाफ संथाल सम्प्रदाय डट कर विरोध करें. अंग्रेजी शासन को समाप्त कर दिया जाए.

क्या है हूल क्रांति?
हूल का संथाली अर्थ है विद्रोह। 1855 में आज ही दिन भोलनाडीह गांव के सिद्धू-कान्हू की अगुवाई में झारखंड के आदिवासियों ने अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह किया और 400 गांवों के 50,000 से अधिक लोगों ने पहुंचकर जंग का ऐलान कर दिया और हमारी माटी छोड़ो का ऐलान कर दिया। आदिवासियों ने परंपरागत शस्त्र की मदद से इस विद्रोह में हिस्सा लिया। इस विद्रोह के बाद अंग्रेजी सेना बुरी तरह से घबरा गई और आदिवासियों को रोकना शुरू कर दिया।

आजादी की पहली लड़ाई
झारखंड के आदिवासियों ने 1855 में ही अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह का झंडा बुलंद कर दिया था हालांकि आजादी की पहली लड़ाई सन 1857 में मानी जाती है। 30 जून, 1855 को सिद्धू और कान्हू के नेतृत्व में मौजूदा साहिबगंज जिले के भगनाडीह गांव से विद्रोह शुरू हुआ था। इस मौके पर सिद्धू ने नारा दिया था, ‘करो या मरो, अंग्रेजों हमारी माटी छोड़ो।

विद्रोह का कारण
अगर विद्रोह का कारण जानने का प्रयास करें तो हम जान पाएंगे कि महाजनों का देश में दबदबा था और वे महाजन अंग्रेजों के बेहद करीब थे। संथालों की लड़ाई महाजनों के खिलाफ थी लेकिन अंग्रेजों के करीब होने के कारण संथालों ने दोनों के खिलाफ विद्रोह कर दिया था। अंग्रेजों ने विद्रोह को रोकने के लिए 1856 में तो रात मार्टिलो टावर का निर्माण कराया और उसमें छोटे-छोटे छेद बनाए गए ताकि छिपकर संथालियों को बंदूक से निशाना बनाया जा सके। लेकिन एक इमारत भला आदिवासियों के पराक्रम के आगे कहां टिकने वाली थी। संथालियों के पराक्रम और साहस के आगे अंग्रेजों को झुकना पड़ा और उल्टे पांव भागने पर मजबूर होना पड़ा। संथालों ने बेहद हिम्मत से अंग्रेजी सिपाहियों और जमीदारों का मुकाबला किया। अंग्रेजों ने भी पूरी क्रूरता के साथ विद्रोहियों को रोकने का प्रयास किया। सिद्धू और कान्हू दोनों भाइयों को पकड़ लिया गया और पेड़ से लटकाकर 26 जुलाई 1855 को फांसी दे दी। इन्ही शहीदों की याद में हर साल पूरा देश हूल क्रांति दिवस मनाता है।

संथाली साड़ी में शपथ
मुर्मू ने संथाली साड़ी में आज राष्ट्रपति पद की शपथ लीं। संथाली साड़ियों के एक छोर में कुछ धारियों का काम होता है और संथाली समुदाय की महिलाएं इसे खास मौकों पर पहनती हैं। संथाली साड़ियों में लम्बाकार में एक समान धारियां होती हैं और दोनों छोरों पर एक जैसी डिजाइन होती है। इस खास अवसर पर मुर्मू ने इस साड़ी को पहना है। देश के सर्वोच्च पद पर शपथ पर पहुंचने वालीं मुर्मू ने इस दौरान भी अपनी सादगी नहीं छोड़ी। सफेद रंग की साड़ी पर हरे और लाल रंग की धारी और सफेद हवाई चप्पल पहन संसद के केंद्रीय कक्ष में पहुंचीं। उनको देश के चीफ जस्टिस एनवी रमना ने शपथ दिलाई।

तमाम क्रांतियों का जिक्र
द्रौपदी मुर्मू ने आगे कहा कि रानी लक्ष्मीबाई, रानी वेलु नचियार, रानी गाइदिन्ल्यू और रानी चेन्नम्मा जैसी अनेकों वीरांगनाओं ने राष्ट्ररक्षा और राष्ट्रनिर्माण में नारीशक्ति की भूमिका को नई ऊंचाई दी थी।नेताजी सुभाष चन्द्र बोस, नेहरू जी, सरदार पटेल, बाबा साहेब आंबेडकर, भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरू, चन्द्रशेखर आज़ाद जैसे अनगिनत स्वाधीनता सेनानियों ने हमें राष्ट्र के स्वाभिमान को सर्वोपरि रखने की शिक्षा दी थी।हमारा स्वाधीनता संग्राम उन संघर्षों और बलिदानों की अविरल धारा था जिसने आज़ाद भारत के लिए कितने ही आदर्शों और संभावनाओं को सींचा था। पूज्य बापू ने हमें स्वराज, स्वदेशी, स्वच्छता और सत्याग्रह द्वारा भारत के सांस्कृतिक आदर्शों की स्थापना का मार्ग दिखाया था।