जब रांची से हजारीबाग-कोलकाता पैदल जाते थे लोग, पढ़िए 1920 A Bus Story

Story of Ranchi: 100 साल पहले झारखंड में यात्रा कितनी मुश्किल थी, इसका अंदाजा लगा पाना भी अब मुश्किल है। बस और रेल सुविधाओं के अभाव में लोग लंबी दूरी पैदल ही तय करते थे। रांची से हजारीबाग, कोलकाता, पुरी और पटना तक अधिकांश लोग पैदल ही यात्रा करते थे।

रांची: देश के विभिन्न हिस्सों में आज जब 8 लेन, 6 लेन और 4 लेन की सड़कें आम हो गई हैं। लेकिन 100 साल पहले सफर कितना मुश्किल भरा होगा, इसकी जानकारी शायद नई युवा पीढ़ी के अधिकांश लोगों को नहीं होगी। रांची गजेटियर के अनुसार, 1870 में पूरे छोटानागपुर इलाके में सिर्फ 175 मील ही सड़क थी। उस वक्त आज जैसी चिकनी सड़कें नहीं हुआ करती थी। बारिश के मौसम में आवागमन काफी मुश्किल होता था। सड़क का मतलब जंगल के रास्ते में पेड़-पौधों का नहीं होना था। घने जंगलों के बीच तब सिर्फ दिन में सूर्य की रोशनी में बैलगाड़ी और घोड़ा-गाड़ी से ही लोग लंबी दूरी का सफर करते थे। वहीं जिनके पास कोई साधन नहीं था, वे सैकड़ों किलोमीटर तक की दूरी पैदल ही करते थे। जंगल के रास्ते में तब सबसे ज्यादा खतरा जंगली जानवरों का रहना था। इस कारण लोग समूह बनाकर यात्रा तय करते थे और अपने साथ लाठी-डंडे या अन्य परंपरागत हथियार को साथ में रखते थे।

1910 से सड़क मरम्मति और नई सड़क बनाने का काम हुआ शुरू

19वीं सदी की शुरुआत में 170 मील सड़कों में रांची से सिल्ली 39 किमी, रांची से बरकट्टा 18 मील और रांची से चंदवा 50 मील की सड़क शामिल थी। इसके अलावा रांची से बड़कागांव 34 मील, लोहरदगा से चतरा 60 मील और रांची से पिठौरिया 11 मील की सड़क शामिल थी। अंग्रेजी शासनकाल में 1910 में पहली बार पथ निर्माण विभाग की स्थापना हुई और सड़क बनाने का काम शुरू हुआ। सबसे पहले रांची पुरुलिया 74 किमी, रांची-हजारीबाग के 58 मील और रांची-चाईबासा 88 मील और रांची से डालटनगंज 36 मील सड़क की मरम्मति का काम हुआ। हालांकि इससे पहले जब ब्रिटिश कंपनी आई, तो शासन और व्यापार के लिए सड़क मार्ग बनाने को लेकर सर्वे का काम शुरू हो चुका था। अब भी अंग्रेजी जमाने के कई पुराने पुल ही ग्रामीणों के लिए मददगार साबित हो रहे है। हालांकि उस वक्त भी कोलकाता और ओडिशा में पुरी जाने के लिए परंपरागत मार्ग था, लोग पैदल या बैलगाड़ी-घोड़ागाड़ी की मदद से कई दिनों में यात्रा पूरी करते थे।

रांची में यात्री बस की सुविधा के पहले रेल लाइन

रांचीवासियों को यात्री बस की सुविधा के पहले रेल यात्रा की सुविधा मिल पाई। रांची-पुरुलिया के बीच 1905 में रेललाइन का निर्माण शुरू किया। जिसका उद्घाटन 14 नवंबर 1907 को बंगाल के लेफ्टिनेंट गवर्नर ने किया। इस रेल लाइन के बन जाने से रांची से कोलकाता की यात्रा आसान हो गई। उस वक्त रांची और पुरुलिया के बीच छह रेल स्टेशन पुरुलिया, टाटीसिल्वे, गंगा घाट, जोन्हा और सिल्ली और रांची बनाया गया। तब रांची से पुरुलिया की दूरी तय करने में 14 घंटे तक वक्त लगता था। बाद में इस रेल लाईन का विस्तार 1911 में लोहरदगा तक करने का निर्णय लिया गया। 1913 में इस मार्ग पर भी रेल परिचालन शुरू हो गया। तब रांची से लोहरदगा तक सफर तय करने में भी सात से आठ घंटे तक वक्त लग सकता था। आजादी के बाद रांची से पटना के लिए रेल लाइन का निर्माण हुआ।

रांची में पहली बार 1920 में शुरू हुई यात्री बस सेवा

रांची में यात्री बस की सुविधा पहली बार 1920 में शुरू हुई। उससे पहले सिर्फ पैदल या बैलगाड़ी-घोड़ागाड़ी से ही लोग लंबी दूरी का सफर तय करते थे। 1920 में पहली बार यात्री बस की सुविधा होने से लोगों की जिन्दगी बदल गई। रांची से पहली बार 1920 में हजारीबाग तक के लिए बस सेवा शुरू हुई। बाद रांची से पुरुलिया तक यात्री बस सेवा शुरू हुई। इसके बाद धीरे-धीरे अन्य शहरों के लिए भी बस सेवा शुरू होती। रांची से हजारीबाग की दूरी करीब 100 किलोमीटर, कोलकाता की दूरी 400 किमी, पुरी की दूरी 550 किमी और 352 किलोमीटर है। इस दूरी को तय करने में लोगों को काफी परेशानियों का सामना करना पड़ता था। साल-दो साल में एक बार का सफर भी मुश्किल होता था।

जब पहली बार रातु महाराज ने साईकिल मंगवाई तो देखने के लिए भीड़ लगी

1910-30 के दशक में रेल और यात्री बस की सुविधा लोगों को उपलब्ध हो गई। लेकिन उस वक्त रांची के लोगों ने साईकिल नहीं देखी थी। रांची निवासी लाल प्रवीरनाथ शाहदेव बताते है कि 1930 के आसपास रातु महाराज ने पहली बार विदेश से साईकिल मंगवाई। रातु महाराज जब साईकिल से सड़कों पर निकलते थे, तो उन्हें देखने के लिए भीड़ लग जाती थी। रातु महाराज खुद साईकिल पर चलते थे और उनके आगे-पीछे घोड़े और हाथी पर सवार अंगरक्षक साथ चलते थे।

आजादी के पहले कार-जीप की पहुंच कुछ लोगों तक

आजादी के पहले रांची के कुछ बड़े व्यवसायियों तक कार-जीप की सुविधा पहुंच चुकी थी। लेकिन आम लोगों के पहुंच से ये काफी दूर थी। दो-चार राजघरानों, बड़े व्यवसायियों और जमींदार परिवारों के पास ही कार-जीप की सुविधा थी। उस वक्त आम लोगों के लिए इसकी सवारी मुश्किल थी। लेकिन 1950 के बाद धीरे-धीरे इसकी संख्या बढ़ती गई।

अपराध होने पर दो-तीन दिन बाद पहुंचती थी पुलिस

ब्रिटिश शासनकाल में रांची जिला गुमला, लोहरदगा, सिमडेगा और खूंटी तक फैला था। यदि सिमडेगा के किसी सुदूरवर्ती गांव में हत्या या कोई अन्य आपराधिक घटनाएं होती थी, तो रांची से पुलिस के पहुंचने पर दो-तीन का समय लग जाता था। रांची से पुलिस घोड़ा या साईकिल से घटनास्थल तक पहुंचती थी।