रुपया लगातार नीचे गिरता जा रहा है. मंगलवार को पहली बार रुपये की क़ीमत एक डॉलर के मुक़ाबले घटकर 80 रुपये के पार हो गई. डॉलर के मुक़ाबले रुपए की गिरती क़ीमत को लेकर पिछले कुछ समय से विपक्ष सरकार पर हमलावर है. कांग्रेस और दूसरे विपक्षी दल सरकार पर लगातार हमला बोल रहे हैं.
कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी शुक्रवार को इस मुद्दे को लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से सवाल पूछ चुके हैं.
राहुल गांधी ने पिछले दिनों ट्विटर पर एक ग्राफ़ शेयर कर प्रधानमंत्री को उनका एक पुराना बयान याद दिलाया. ये बयान उस दौर का है, जब मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे.
राहुल गांधी ने लिखा, “देश निराशा की गर्त में डूबा है” ये आपके ही शब्द हैं ना, प्रधानमंत्री जी? उस वक़्त आप जितना शोर मचाते थे, आज रुपए की क़ीमत तेज़ी से गिरती देखकर उतने ही ‘मौन’ हैं.”
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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के उस दौर के बयान के वीडियो सोशल मीडिया पर भी वायरल हैं.
कांग्रेस प्रवक्ता सुप्रिया श्रीनेत ने भी सरकार पर हमला बोला और कहा, “यह स्वीकारना पड़ेगा कि कमज़ोर रुपए का सबसे बड़ा कारण एक ध्वस्त अर्थव्यवस्था-बेलगाम महंगाई है.”
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सरकार को भी शायद स्थिति का अंदाज़ा है. दो हफ़्ते पहले वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने कहा था, “रिज़र्व बैंक की रुपये पर नज़र है. सरकार एक्सजेंच रेट को लेकर लगातार भारतीय रिज़र्व बैंक के संपर्क में है.”
लेकिन ऐसा क्यों हो रहा है? डॉलर के मुक़ाबले रुपया क्यों गिर रहा है और कौन से कारण रुपये की दर को तय करते हैं?
अभी अगर आपको एक डॉलर ख़रीदना है तो उसके बदले आपको 79 रुपये देने होंगे. इसको तकनीकी भाषा में एक्सचेंज रेट कहते हैं.
ऐसी ख़रीद-बिक्री रुपये-डॉलर के अलावा दूसरी करेंसियों के बीच भी होती है.
दुनिया के अलग-अलग मुल्कों की अपनी मुद्रा है. जैसे ब्रिटेन की मुद्रा है पाउंड, मलेशिया की रिंगिट. तो मान लिजिए किसी को ब्रिटेन से कुछ ख़रीदना है या व्यापार करना है या वहां की यात्रा करनी है तो उसके लिए उन्हें ब्रितानी मुद्रा यानी पाउंड की ज़रूरत पड़ेगी. उन्हें पाउंड ख़रीदना होगा.
वो व्यक्ति रुपये या किसी दूसरे देश की करेंसी के बदले जितनी क़ीमत चुकाकर पाउंड हासिल करेगा वो एक्सचेंज रेट होगा.
कैसे तय होती है मुद्रा की वैल्यू
मुद्रा या करेंसी का जहाँ लेन-देन होता है, उसे फ़ॉरेन एक्सचेंज मार्केट, या फिर मनी मार्केट कहते हैं.
एक्सचेंज रेट हमेशा एक सा नहीं रहता, उसमें बदलाव होता रहता है. कोई ज़रूरी नहीं कि पाउंड के बदले जितने रुपये 2022 जुलाई में देने पड़े, दिसंबर में भी पाउंड की क़ीमत रुपये के या किसी और मुद्रा के मुक़ाबले उतनी ही रहेगी.
ये कम भी हो सकती है और अधिक भी. ऐसा किसी करेंसी की मांग और सप्लाई पर निर्भर करता है.
जिस मुद्रा की मांग अधिक होगी उसकी क़ीमत अधिक रहेगी. अब चूंकि विश्व का बड़ा हिस्सा अपना व्यापार अमेरिकी मुद्रा ‘डॉलर’ में करता है इसलिए मुद्रा बाज़ार (मनी मार्किट) में डॉलर की मांग हमेशा बनी रहती है.
अब जब आपको या किसी भी उस व्यक्ति को जिसे किसी करेंसी की ज़रूरत है या उसे कोई मुद्रा बेचनी है तो वहां कहां जाएगा? – इसका जवाब है बैंक.
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रिज़र्व बैंक के पास विकल्प?
मान लें कि कोई व्यक्ति न्यूयॉर्क (अमेरिका) से दिल्ली आया है और उसे डॉलर बेचने हैं तो वो किसी बैंक में जाएगा और डॉलर के बदले रुपये एक्सचेंज करवा सकता है.
तो बैंक मनी मार्केट या मुद्रा बाज़ार की एक छोटी इकाई है और दुनियाभर में कई लाख बैंक हैं. साथ ही मुद्रा की ख़रीद-बिक्री के लिए सरकार ट्रेडर्स को लाइसेंस भी देती है, ये सब मुद्रा बाज़ार का हिस्सा हैं.
देशों के केंद्रीय बैंक, जैसे भारत के मामले में रिज़र्व बैंक ऑफ़ इंडिया है, विदेशी मुद्रा का एक भंडार भी देश अपने पास सुरक्षित रखते हैं.
हालांकि 1993 के बाद से मुद्रा बाज़ार को भी दूसरे क्षेत्रों की तरह सरकारी कंट्रोल से मुक्त कर दिया गया है और किस करेंसी की वैल्यू कितनी होगी ये बाज़ार में डिमांड-सप्लाई पर निर्भर करता है. लेकिन केंद्रीय बैंक अक्सर मुद्रा बाज़ार में दख़ल भी देते हैं.
अगर डॉलर फॉरेन एक्सचेंज मार्केट में बहुत मंहगा हो जाएगा तो ज़रूरत पड़ने पर आरबीआई मुद्रा बाज़ार में डॉलर बेचकर और रुपये की ख़रीद कर रुपये का मूल्य कुछ संतुलित कर सकता है.
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मुद्रा की बढ़ी क़ीमत का असर
भारत जैसे देश में ज़रूरी सामान मसलन कच्चा तेल, गैस वग़ैरह बड़े पैमाने पर विदेशों से आयात किए जाते हैं. इसके अलावा इलेक्ट्रॉनिक्स और सैन्य उपकरण का सौदा भी अधिकतर अमेरिकी करेंसी में ही होता है. तो भारत को डॉलर की हमेशा ज़रूरत रहती है.
अगर इन सामानों की मांग अधिक हो जाती है तो इनकी क़ीमत अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में बढ़ जाती है और भारत को इनके आयात के लिए अधिक पैसा देना होता है, जिसके कारण पेट्रोल-डीज़ल के रेट में बढ़ोतरी होती है. माल ढुलाई, कारख़ाना चलाने में अधिक मंहगे तेल-गैस का इस्तेमाल होता है और मंहगाई बढ़ जाती है.
डॉलर क्यों हो रहा मंहगा?
पिछले कुछ वक्त से ये बार-बार सुनने में आ रहा है कि रुपया डॉलर के मुक़ाबले और अधिक कमज़ोर हो गया. इसके कई कारण हैं.
महामारी से अर्थव्यवस्था में आए धीमेपन के बाद रूस-यूक्रेन युद्ध शुरू हो गया. पश्चिमी देशों ने रूस पर आर्थिक प्रतिबंध लगा दिए और रूस से कई देशों ने कच्चा तेल ख़रीदना बंद कर दिया. अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में तेल और गैस का दाम ऊपर चढ़ गया, जिसका असर अमेरिका और यूरोप पर भी पड़ा.
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ड्रामा क्वीन
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जंग के कारण अनाज, रसोई में इस्तेमाल होनेवाले तेल वगैरह की सप्लाई में बाधा आई है.
अमेरिका और यूरोप में पिछले कई दशकों में सबसे अधिक मंहगाई देखी जा रही है.
आम लोगों को महंगाई की मार से बचाने और अर्थव्यवस्था पर इसके प्रतिकूल प्रभाव को रोकने के लिए अमेरिका के केंद्रीय बैंक ने ब्याज दर बढ़ा दी है. इससे वहां के सरकारी बॉन्ड पर मिलनेवाला ब्याज अधिक हो गया है. लेकिन ब्याज दर बढ़ने से व्यापार और उद्योग को बिज़नेस के लिए गए क़र्ज़ पर ब्याज भी अधिक देना होगा.
भारत में भी मंहगाई बढ़ी है. तो नतीजा ये हुआ है कि विदेशी निवेशकों ने ख़ासतौर पर उन विदेशी कंपनियों, व्यक्तियों ने जिन्होंने भारत में पैसा लगा रखा था, वो इसे यहां से निकालकर अमेरिका ले जा रहे हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि ये वहां उनके पैसे अधिक सुरक्षित रहेंगे.
पिछले कुछ माह में भारत से करोड़ों डॉलर का निवेश वापस गया है जिसका नतीजा है मुद्रा बाज़ार में डॉलर के सप्लाई की कमी.
आनेवाले दिनों में कहा जा रहा है अमेरिकी केंद्रीय बैंक ब्याज दरों में और बढ़ोतरी करेगा. यानी आपको एक डॉलर के बदले और अधिक रुपये देने पड़ सकते हैं.