दास्तान-गो : किस्से-कहानियां कहने-सुनने का कोई वक्त होता है क्या? शायद होता हो. या न भी होता हो. पर एक बात जरूर होती है. किस्से, कहानियां रुचते सबको हैं. वे वक़्ती तौर पर मौज़ूं हों तो बेहतर. न हों, बीते दौर के हों, तो भी बुराई नहीं. क्योंकि ये हमेशा हमें कुछ बताकर ही नहीं, सिखाकर भी जाते हैं. अपने दौर की यादें दिलाते हैं. गंभीर से मसलों की घुट्टी भी मीठी कर के, हौले से पिलाते हैं. इसीलिए ‘दास्तान-गो’ ने शुरू किया है, दिलचस्प किस्सों को आप-अपनों तक पहुंचाने का सिलसिला. कोशिश रहेगी यह सिलसिला जारी रहे. सोमवार से शुक्रवार, रोज़…
जनाब, पूरा हिन्दुस्तान, बल्कि उससे बाहर के लोग भी, अच्छे से जानते हैं कि मध्य प्रदेश के भोपाल शहर में क़ुदरत की गोद में दुबकी एक इमारत हुआ करती है. ‘भारत-भवन’. उसकी छत पहाड़ी की ज़मीन से चिपककर बैठी दिखती है. वहां से खड़े होकर देखने पर सैकड़ों फीट नीचे एक बड़ी-सी झील समंदर-सी हिलोरें मारते नज़र आती है. और उस ‘भारत-भवन’ के भीतर बने सभागार, कला-दीर्घाओं में बैठ जाने या गुज़र जाने पर संगीत, साहित्य, चित्रकला, मूर्तिकला, रंगमंच के प्रेमियों के दिलों में हिलोरें उठने लगती हैं. मेरी फ़ितरत भी बुनियादी तौर पर चूंकि ऐसी ही है. इसलिए मैं अक्सर वहां जाता रहता हूं. और ऐसे तमाम मंज़रों, तज़्रबों से गुज़रता हूं, जो शायद कहीं दूसरी जगह मिलने मुमकिन न होते, ऐसा मेरा ख़्याल है. तो ज़नाब, ऐसा ही तज़्रबा अलहदा, पांच बरस पुराना याद आ गया आज मुझे. वज़ह उसकी आगे पता चलेगी, पहले उस तज़्रबे से दो-चार हो लें.
तो जनाब, साल 2018 का था. महीना फरवरी का और तारीख़ 14 थी. ‘भारत-भवन’ की वर्षगांठ (13 फरवरी को) के कार्यक्रम का दूसरा दिन. मशहूर शास्त्रीय गायिका अश्विनी भिड़े देशपांडे और गायक संजीव अभयंकर की प्रस्तुति थी. इन फ़नकारों के चाहने वाले इतने कि दोपहर ढलते ही ‘भारत-भवन’ में हल-चल शुरू हो गई. शाम होते तक तो सभागार में जगह ही नहीं बची. तब उसके बाहर खुले आंगन में लगी बड़ी-बड़ी स्क्रीनों के सामने सैकड़ों लोग आसन जमाकर बैठने लगे. दो फ़नकार हैं, गायक, तो अंदाज़ सभी को था कि कोई अच्छी जुगलबंदी होने वाली है. लेकिन इन फ़नकारों ने उस जुगलबंदी के दौरान जो किया, उसका अंदाज़ शायद कुछ गिनती के लोगों को ही रहा हो. शाम के सात बज रहे थे कि तभी फ़नकार मंच पर नुमूदार हुए. तानपूरे सुधारे, सुर लगाए और हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत की मूर्छना-पद्धति से सुनने वालों को मूर्छित करना शुरू कर दिया.
दोनों फ़नकारों की जुगलबंदी तो हो रही थी जनाब. लेकिन दो अलग-अलग रागों में. अलग समय के रागों में. वक़्त शाम का था, तो संजीव जी ने उसी हिसाब से राग लिया. पूरिया धना-श्री. उसे अपने ‘सा’ से उन्होंने गाना शुरू किया. लेकिन अश्विनी जी ने सुबह के राग ‘ललित’ के सुर लगाए. वह भी संजीव जी के ‘मध्यम’ को अपना ‘सा’ मानकर. वे वहां से शुद्ध-धैवत (‘ध’) वाला ललित गा रही थीं. हालांकि ‘ललित’ की ख़ासियत यह है कि इसे ‘गौधूलि बेला’ या ‘संधि-प्रकाश’ का राग माना जाता है. यानी उस दौरान का, जहां दो समयों का मिलन हो रहा होता है. मुमकिन है, इसीलिए शाम के वक़्त की संधि-प्रकाश बेला में गाने के लिए अश्विनी जी ने इसे चुना हो. अलबत्ता इस सबसे अलहदा, इन दोनों फ़नकारों की ख़ास बात ये कि उन्होंने अपने-अपने अलग रागों में गाने के लिए बंदिश यानी राग की प्रस्तुति के लिए लिया गया कवित्त, समान रूप से एक ही चुना हुआ था.
अद्भुत. मेरे लिए भी. मैं कोई संगीत का ज्ञानी-विज्ञानी नहीं. बावजूद इसके, अब तक गुरुओं से जो सीखा, उस लिहाज़ से भी मेरे लिए यह एकदम नया अनुभव था. वहां सामने मंच पर दो फ़नकार अलग. उनके राग अलग. रागों का वक़्त अलग. उनका स्केल अलग. दोनों की पिचिंग यानी कि जिस सुर से गाना शुरू किया, वह जगह अलग. उनकी आवाज़ें अलग. लेकिन मज़ाल कि लगभग एक घंटे की पेशकश में कुछ भी ‘अलग-सा’ लगा हो. सिर्फ़ मुझे क्या, किसी को भी. हर चीज़ एक धागे में अलग रंग के मोतियों की तरह आपस में एक-दूसरे से गुथी हुई लग रही थी. यक़ीनन, बहुत लोगों को इस पेशकश की बारीकियों का ज़्यादा भान न रहा होगा. फिर भी चेहरा कोई शायद ही सपाट दिखा हो. हर मुंह से वाह, हर हाथ से दाद. यूं कि जैसे हर कोई सब जान, समझ रहा हो. फिर यही मंज़र तब भी बना, जब इन फ़नकारों ने राग ‘भूपाली’ और ‘दुर्गा’ में जुगलबंदी की.
वहीं, मेरी तरह तमाम लोगों को पता चला कि ये ‘जसरंगी-जुगलबंदी’ थी जनाब. हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत के अज़ीम फ़नकार पंडित जसराज की बनाई हुई ‘जसरंगी-जुगलबंदी’. वह, पंडित जसराज जो अपनी इसी तरह की अलहदा क़िस्म के कमाल-संगीतकारी से सुनने वालों के कानों में ‘नव-रस’ घोला करते थे. उनके बीच बिखराया करते थे. वह, पंडित जसराज, जिनकी हर संगीत प्रस्तुति की शुरुआत ‘मंगलम् भगवान विष्णु, मंगलम् गरुणध्वज:’ के जप से, श्लोक से, होती थी. वही पंडित जसराज, जो कभी मंच पर ही ‘ओम-अल्लाह-ओम’ का जाप करते हुए भी दिखाई देते थे. ‘मेरो अल्लाह मेहरबान’ की टेर लगाते सुनाई देते थे. वह पंडित जसराज, जिन्होंने तीन-चार साल की उम्र में ही तय कर लिया था कि आगे की ज़िंदगी संगीत का हमराह बनकर ही गुजारनी है.
पंडित जी उस उम्र में हैदराबाद में रहा करते थे. वहीं, स्कूल जाते वक़्त उन्होंने रास्ते में, एक रेस्त्रां पर मशहूर गुलूकार बेगम अख़्तर की ग़ज़ल सुनी थी, ‘दीवाना बनाना है तो दीवाना बना दे, वरना कहीं तक़दीर तमाशा न बना दे’. वह दिन था कि सुर, संगीत उन्हें दीवाना ही बनाते चले फिर और वे ख़ुद अपने सुनने वालों को. अलबत्ता, यही पंडित जी थे, जिन्हें एक मर्तबा लाहौर में किसी ने कह दिया था, ‘तुम मरा चमड़ा बजाते हो जसराज. तुम गायकी के बारे में क्या जानो’. वाक़ि’आ ख़ुद पंडित जी की ज़ुबानी, ‘बिना चोट लगे कोई आदमी अपना रस्ता नहीं बदलता है. हम पहले बहुत वक़्त तक तबला बजाते थे. उस समय पंडित कुमार गंधर्व जी लाहौर में गाने के लिए आए. वे वहां सरस्वती म्यूज़िक कॉलेज में आ गए. दिनभर साथ में रहे बड़े भाई साहब (शास्त्रीय गायक पंडित मणिराम) के, हमारे. और शाम को बोले कि भाईसाहब, मेरा प्रोग्राम है रेडियो पर’.
‘फिर वे (पंडित कुमार गंधर्व जी) बोले कि मैं जसराज को ले जाऊं? भाई साहब बोले- ले जाओ. तो साहब, हमने उनके साथ तबला बजाया. वापस लौट के आए तो अगले दिन सुबह पंडित अमरनाथ जी (शास्त्रीय गायक) आ के बोले- गुरुजी (पंडित मणिराम के लिए) हम जिस कलाकार की तरफ़ देखते हैं, फॉलो करने के लिए, अगर वो ग़लत गाए तो हम क्या करें? भाईसाहब ने कहा- किसने ग़लत गा दिया. तो वे बोले- कल कुमार जी ‘भीमपलास’ (राग) गा रहे थे, रेडियो पर, उन्होंने धैवत पर सम रख दिया! उनकी इस बात पर हमने कह दिया कि भई, धैवत पर सम रख दिया तो कौन सा गड़बड़ किया? ‘भीमपलास’ के साथ तो कुमार जी ने कहीं भी लिबर्टी नहीं ली. बहुत ख़ूबसूरत गा रहे थे वे. इतनी अच्छी तरह वे जमाकर कर गा रहे थे कि ऐसा नहीं लग रहा था कि ‘भीमपलास’ के साथ कोई छेड़खानी कर रहे हैं. तो अमरनाथ जी मुझ पर ख़फ़ा हो गए उसी वक़्त’.
‘अमरनाथ जी मुझसे बोले- जसराज, तुम मरा हुआ चमड़ा बजाते हो. तुम्हें रागदारी का क्या मालूम? अब, हमसे तो वे भी बड़े थे. चोट बड़ी लगी थी कि मैंने तो सही बात कही. कुछ भी ग़लत नहीं कहा और इन्होंने इस बात का बुरा मान लिया. मुझे लगता है कि शायद मेरे बड़े भाईसाहब को भी खटकी होगी, वह बात. उन्होंने उस रोज कॉलेज के किसी तबला वाले को बुलाकर अपना कार्यक्रम पेश किया और अगली सुबह चार बजे मुझे जगाकर बोले- उठो, आज से तुम्हारा गाना शुरू करेंगे. इस तरह मेरी गाने की ता’लीम शुरू हुई. नंदोत्सव का दिन था वह’. जी जनाब, नंदोत्सव के दिन से जिस गायकी की डोर पंडित जसराज ने थामी, उसने उन्हें नंद के लाल श्रीकृष्ण की तरह ‘रसराज’ बना दिया. ‘रसराज, पंडित जसराज’. इसी नाम से जनाब, उनकी जीवनी भी लिखी गई है. उसमें ऐसे तमाम क़िस्से दर्ज़ हैं, जो उन्होंने ख़ुद लिखने वाले को बयान किए थे.
इसी में वाक़ि’आ है, पंडित अटल बिहारी वाजपेयी का और जसरंगी-जुगलबंदी का भी. साल-2013 में राज्यसभा टीवी को दिए इंटरव्यू में भी पंडित जसराज ने इनका ज़िक्र किया था. बताया था, ‘हमारे जो पूर्व प्रधानमंत्री हैं अटल बिहारी वाजपेयी, उन्होंने मुझे सबसे पहले ‘रसराज’ कहा था. कि पंडित जी आप जसराज नहीं, आप तो रसराज हैं. यह मेरी ज़िंदगी का सबसे बड़ा सम्मान है, मैं मानता हूं’. इसी तरह ‘जसरंगी-जुगलबंदी’ के बारे में, ‘मैं जब भी गाना सुनता था, आदमी-औरत का, साथ वाला. तो लगता था कि एक कोई इनमें ज़रा तक़लीफ़ज़दा है. चाहे आदमी हो या औरत. तो मैंने विचार किया कि जब पूरी क़ायनात दो-दो, दो-दो मिलकर चलती है, तो संगीत में ऐसी तक़लीफ़ क्यों हो जाती है. वहां से मूर्छना पद्धति ख़्याल में आई. वहीं हमें ये रस्ता (जसरंगी-जुगलबंदी) मिल गया. किसी भी शास्त्रीय संगीत में दो राग अलग गा के जुगलबंदी नहीं होती’.
‘मूर्छना-पद्धति में ये संभव है. इसे हमने पूना में पहली बार प्रस्तुत किया तो वहां सब लोग बोले- अरे भई, ये तो अद्भुत जुगलबंदी है. इसे क्या कहा जाए? वहां एक श्रीमति मीणा जी फणनीकर थीं. वे सुनने वालों के बीच से उठीं और बोलीं- इस जुगलबंदी को जसरंगी कहना चाहिए. पंडित जसराज की ‘जसरंगी-जुगलबंदी’. सब बोले- हां, हां, जसरंगी, जसरंगी. इस तरह इसका नाम पड़ गया’. तो जनाब, ये थे पंडित जसराज. आज ही की तारीख़ थी, 17 अगस्त की. साल 2020 का था, जब पंडित जसराज (देह) इस दुनिया से उठ गए लेकिन ‘रसराज’ यहीं रह गए. रह क्या गए, कहना चाहिए, हर कहीं बिखर गए. अस्ल ‘रसराज श्री-कृष्ण’ की तरह. देह के बंधन से छूटते ही हर ‘रस पर राज’ करते दिखने लगे, पंडित जसराज भी. हर उनके लफ़्ज़ सुनाई देने लगे ‘जय हो’.