हम भारतीयों के पास हर समस्या से निकलने का रास्ता है. इस रास्ते को हम सबने नाम दिया है जुगाड़. इस शब्द की खोज हमने ही की है. टूथ पेस्ट पर बेलन चला कर पेस्ट निकालने की कला हो, या फिर पैन फंसा कर नाड़े को पैजामे में डालने की कला. ये सभी जुगाड़ हमारे ही बनाए हुए हैं. जब भी आप किसी मुसीबत में फंसते होंगे. कोई ना कोई ये ज़रूर कह देता होगा ‘रुको जुगाड़ लगाता हूं.’
अगर आप जुगाड़ शब्द को हल्का समझ रहे हैं तो ये आपकी भूल हो सकती है. इस जुगाड़ से ऐसे ऐसे आविष्कार हुए हैं, जो आपको किसी चमत्कार जैसे लगेंगे. खास बात यह कि ये चत्माकारी आविष्कार किसी और ने नहीं, बल्कि हमारे ही यहां के जुगाड़ू वैज्ञानिकों ने किए हैं.
आवश्यकता ही आविष्कार की जननी है, जैसे मुहावरे इन्हीं आविष्कारों और आविष्कारकों के लिए कहे गए हैं. तो चलिए आपको मिलवाते हैं कुछ ऐसे देसी आविष्कारकों से जिन्होंने अपने जुगाड़ से दे दी बड़े बड़े वैज्ञानिकों को टक्कर:
1. अश्विनी अग्रवाल का पीपी टॉयलेट
आज के समय में सार्वजनिक शौचालय की कमी एक बड़ी समस्या है. आप घर से निकले हैं और अगर बीच में आपको शौचालय जाने की ज़रूरत पड़ जाए तो जल्दी आपको कोई टॉयलेट नहीं मिलेगा. दिल्ली जैसे शहर में तो इसकी और ज़्यादा समस्या है. ऐसे में दिल्ली के एक युवा ने देसी जुगाड़ के द्वारा एक अनोखा टॉयलेट बनाया है. वैसे आप सार्वजनिक शौचालय का इस्तेमाल करने जाएं तो आपसे पैसे मांगे जाते हैं मगर यह पीपी टॉयलेट जनता के लिए मुफ्त है.
इस खास टॉयलेट को बनाया है दिल्ली निवासी अश्विनी अग्रवाल ने. अब आप सोच रहे होंगे कि टॉयलेट ही तो बनाया है फिर इसमें खास क्या है तो आपको बता दें कि इस टॉयलेट की खास बात यह है कि ये एक ऐसे वेस्ट मटीरियल से बना है जिसे लेकर सरकार तक परेशान है. जी हां ये टॉयलेट बना है सिंगल यूज़ वेस्ट प्लास्टिक बोतलों से.
अश्विनी को कॉलेज में पढ़ाई के दौरान सैनिटेशन विषय पर कोई प्रोजेक्ट बनाने को कहा गया था. इसी रिसर्च के दौरान उन्होंने सोचा कि क्यों ना किसी बेकार चीज़ से कुछ फायदेमंद बनाया जाए. लोग बाहर में पैसे दे कर शौचालय जाने से अच्छा खुले में ही पेशाब कर देना सही समझते हैं.
यही बात अश्विनी के इस जुगाड़ू आविष्कार का आधार बनी. अपने प्रोजेक्ट में काम करने के दौरान ही उन्होंने बेसिक शिट नाम से अपना स्टार्टअप शुरू किया. यहां शिट का मतलब मल नहीं बल्कि ‘सैनिटेशन एंड हाईजीन इनोवेटिव टेक्नोलॉजी’ है.
ऐसा एक टॉयलेट लगभग 9000 बेकार बोतलों मतलब कि लगभग 120 किग्रा प्लास्टिक के इस्तेमाल से बनता है. तथा यह 200 लीटर तक स्टोर कर सकता है. 12000 रुपयों की लागत से बनने वाला ये टॉयलेट महज़ दो घंटे में इंस्टॉल हो जाता है.
2. बोधिसत्व गणेश खांडेराव की छननी
आप अगर शहर में रहते हैं तब अनाज छानने की परेशानी और मेहनत से अंजान होंगे मगर गांव के लोगों को अच्छे से पता है कि इस काम में कितनी हालत खराब होती है. शहरों में पैकेट में छंटा छंटाया अनाज मिल जाता है लेकिन गांव के लिए यह काम बहुत मुश्किल और मेहनत का है.
महाराष्ट्र के यवतमाल जिले में स्थित भोस गाँव में रहने वाले बोधिसत्व गणेश खंडेराव ने अपनी मां और आसपास की अन्य महिलाओं को इस परेशानी से जूझते देखा तथा महज 12 साल की बुद्धि से इस काम को आसान बनाने के लिए एक जुगाड़ भिड़ा दिया.
बोधि के इस जुगाड़ू आविष्कार को लोगों ने ऑटोमोटिक छननी के नाम से जाना. बौधिसत्व के दिमाग और उनकी प्रतिभा को केवल उनके द्वारा बनाई गयी छननी के कारण ही नहीं सराहा जाता, इसके अलावा वह लोगों और प्रकृति के लिए इतनी कम उम्र से ही काम कर रहे हैं. इनके ‘सीड बॉल प्रोजेक्ट’ और ‘मैजिक सॉक्स अभियान’ को तो पूरे जिले के लोगों ने खूब प्रोत्साहित किया.
बोधिसत्व ने 2017 में जो ‘ऑटोमेटिक छननी’ बनाई उसकी मदद से महिलाएं बहुत कम समय और कम मेहनत में आसानी से अनाज साफ कर लेती हैं. कुछ घंटों में सैंकड़ों किलो अनाज साफ कर देने वाली इस छननी को बनवाने में केवल 500 रुपए लगते हैं. बोधि के इस जुगाड़ू आविष्कार ने बहुत ही कम उम्र में उन्हें आविष्कारक बना दिया है.
3. अर्जुन भाई का अद्भुत स्वर्गारोहण
मरने के बाद भी इंसान का जिस्म प्रकृति से कुछ ना कुछ ले कर ही जाता है. कोई दफ़न होने के लिए ज़मीन का टुकड़ा लेता है तो कोई जलने के लिए पेड़ों की लकड़ियां. ये प्रकृति का नियम है इसे नकारा भी नहीं जा सकता लेकिन जो आने वाले समय को ध्यान में रख कर खपत तो कम की ही जा सकती है. कुछ ऐसी ही सोच रही गुजरात, जूनागढ़ के केशोद के किसान अर्जुन भाई पघडार की.
यह बात अर्जुन भाई के दिमाग में तब आई जब उनके मामा के अंतिम संस्कार में उन्होंने 400 किलो लकड़ियां जलती हुई देखीं. वक्त बीतता रहा, अर्जुन भी अपने काम धंधे में लगे रहे लेकिन उनके दिमाग से ये सोच हटी नहीं. इसी सोच का नतीजा सामने आया 2015 में, जब अचानक एक दिन वह अपने दोनों हाथों को जोड़कर नल से पानी पी रहे थे. इसी दौरान उन्हें ये आइडिया आया कि अगर शमशान में शव को किसी ममी जैसे आकार के यंत्र में जलाया जाए तो लकड़ियां कम लगेंगी.
इस आइडिए पर अर्जुन ने 2 साल तक काम किया तथा 2017 में इस यंत्र का मॉडल बन कर तैयार हो गया. इसमें अब 400 किलो नहीं बल्कि 70 से 100 किलो तक ही लकड़ियां जलती थीं. अर्जुन का दावा है कि इसकी मदद से रोज़ाना 40 एकड़ जंगल बचाए जा सकते हैं. अर्जुन भाई ने अंतिम संस्कार करने वाले इस यंत्र का नाम रखा ‛स्वर्गारोहण’.
4. अशोक का बिना धुआं वाला स्टोव
जुगाड़ू आविष्कारकों की सूची में अगला नाम है बिहार के पूर्वी चम्पारण जिले के मोतिहारी के रहने वाले अशोक ठाकुर का. 50 वर्षीय अशोक पेशे से लोहार हैं. लोगों के घरों में लोहे का काम करने के साथ साथ वह लोहे के चूल्हे भी बनाते हैं. ऐसा काम तो उन जैसे कई लोग करते हैं फिर भी भला अशोक खास कैसे हुए ? अगर आप भी यही सोच रहे हैं तो आपको बता दें कि अशोक का काम भले ही उन जैसे हज़ारों की तरह हो लेकिन उनकी सोच सबसे अलग निकली.
जी हां! अशोक चूल्हे तो पहले भी बनाते रहे लेकिन फिर उन्होंने सोचा कि क्यों ना कोई ऐसा चूल्हा बनाया जाए जिसमें कुछ ऐसा ईंधन जले जो सस्ता भी हो और लोगों के लिए बेकार भी. चावल बिहार का मुख्य भोजन है इसी वजह से यहां धान की पैदावार बहुत होती है. धान की कुटाई के बाद बचने वाली भूसी किसी काम नहीं आती. लोग इसे फेंक देते हैं लेकिन अशोक ने इसी भूसी से एक अलग तरह का चूल्हा बनाया.
जब अशोक ने भूसी का उपयोग ईंधन के रूप में करना चाहा तो समस्या यह आई कि भूसी जल्द जल जाती थी और ईंधन के रूप में ज़्यादा कामयाब नहीं थी. लेकिन ऐसा होने पर अशोक ने ईंधन नहीं बदला बल्कि ऐसा चूल्हा बनाने की सोची जिसमें भूसी ईंधन का काम कर सके.
बहुत बार प्रयास करने के बाद जा कर अशोक कामयाब हुए. महज 4 किलो वजन वाला यह चूल्हा आसानी से कहीं भी लाया और ले जाया जा सकता है. इसके साथ ही एक किलो भूसी में ये चूल्हा एक घंटे तक जलता है. सबसे खास बात कि इस चूल्हे में धुआं नहीं होता, जिसके कारण आप इसे कहीं भी जला सकते हैं.
5. धर्मबीर कंबोज की फूड मशीन
अभी तक आपने जितने भी देसी और जुगाड़ू आविष्कारों के बारे में सुना यह आविष्कार उन सबसे अलग है. इसे बनाने वाले हैं हरियाणा के यमुनानगर जिले में दामला गाँव के रहने वाले धर्मबीर कम्बोज. धर्मबीर अपने क्षेत्र के जाने माने किसान व आविष्कारक हैं. उन्होंने एक मल्टी फूड प्रोसेसिंग बनाई है.
इस मशीन में एक साथ ही एलोवेरा से जेल, गुलाब से गुलकंद, आंवला तुलसी या फलों से जूस निकाला जा सकता है. मतलब सब कुछ एक ही मशीन में. इसके अलावा शैंपू, तेल, अर्क यह सब भी निकाला जा सकता है इस मशीन की मदद से.
एक वक्त था जब धर्मबीर अपने परिवार का पेट पालने के लिए दिल्ली की सड़कों पर रिक्शा चलाते थे मगर फिर उनकी सोच और प्रतिभा ने उन्हें वहां ला कर खड़ा कर दिया जहां से उन्हें सब जानने लगे. धर्मबीर इस मशीन के कारण ही लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड के साथ साथ नेशनल इनोवेशन फाउंडेशन द्वारा राष्ट्रीय सम्मान भी प्राप्त कर चुके हैं.
6. हिसार के कुलदीप का वायुयान
ये आविष्कार नहीं बल्कि एक तरह का जुनून था. इसे पूरा करने वाले ये जुनूनी आविष्कारक हैं हरियाणा हिसार के कुलदीप. कुलदीप ने अपनी एक गलती को सही साबित करने के लिए बाइक इंजन से हेलीकॉप्टर बना दिया. जी हां, कुलदीप एक किसान परिवार का बेटा है, जिसका सपना था पायलट बनने का.
पिता सक्षम नहीं थे लेकिन फिर भी उन्होंने ज़मीन बेच कर कुलदीप को पढ़ने भेजा. कुलदीप अच्छे से पढ़ाई नहीं कर पा रहे थे इसीलिए घर लौट आया. मगर अब समस्या ये थी कि वह घर आकर पढ़ाई छोड़ने का क्या कारण बताते? इससे बचने के लिए उन्होंने एक योजना बनाई. कुलदीप ने सोचा कि अगर वह खुद का ही हेलीकॉप्टर बना लें तो कोई भी उनसे नाराज़ नहीं होगा. हालांकि, हेलीकॉप्टर बनाना आसान बात कहां थी.
मगर फिर काम आया कुलदीप का जुगाड़ और उन्होंने जुगाड़ लगा कर मोटरसाइकिल के इंजन से एक हवाई जहाज तैयार कर दिया. 2.5 लाख की लागत से बना ये वायुयान आसपास के क्षेत्र में काफी चर्चा का विषय बना. लोगों ने कुलदीप की खूब सराहना भी की.
7. बली मोहम्मद की मोटरसाइकिल
आविष्कार करने के लिए आपका पढ़ा लिखा होना ज़रूरी नहीं है, यह बात साबित करते हैं मध्य प्रदेश बुंदेलखंड छतरपुर के रहने वाले बली मोहम्मद. बली मोहम्मद पढ़े लिखे नहीं हैं लेकिन उन्होंने जो तकनीक ईजाद की है उसके चर्चे पूरे क्षेत्र में हो रहे हैं.
दरअसल मध्यप्रदेश के छतरपुर जिले के बड़ामलहरा गांव निवासी बली मोहम्मद के पास एक खास मोटरसाइकिल है. यह खास मोटरसाइकिल सामान ढोने के साथ साथ खेतों में पानी देने वाले पंप का भी काम करती है. इसे बली मोहम्मद ने खुद तैयार किया है.
बली मोहम्मद के खेतों में बिजली ना होने के कारण वह पहले डीजल पंप से खेतों की सिंचाई करता था. लेकिन फिर उसका डीजल पंप खराब हो गया. बली मोहम्मद पहले ही गरीबी की मार झेल रहा था ऊपर से ये खराब पंप. नया पंप लेने के लिए उसके पास पैसे नहीं थे और बिना पंप के सिंचाई संभव नहीं थी.
इसी तंगहाली में बली को ख़याल आया कि क्यों ना वो अपनी मोटरसाइकिल को ही पंप बना दे. बस फिर क्या था बली ने मोटर साईकिल के इंजन के बगल में लगे मैग्नेट बॉक्स को खोलकर उसके अंदर दो बोल्ट कस कर उसमें थ्रेसर की बेल्टों को काटकर एक सिरा कसा तो वहीं दूसरी ओर पम्प के फैन की पुल्ली (रॉड) में कसा और सेक्सन लगा कर बाईक स्टार्ट कर दी.
इसके बाद बाईक के साथ पम्प का फैन भी घूम गया और चल पड़ा. ऐसा होने पर मोटरसाइकिल की मदद से कुएं का पानी बाहर आने लगा. इस तरह तैयार हुआ बली मोहम्मद का मोटरसाइकिल वाटर पंप. 30 रुपये के पेट्रोल में यह एक घंटे चलता है. बली मोहम्मद का ये देसी जुगाड़ इतना फेमस हो गया है कि लोग इसके बारे में दूर दूर से जानने आते हैं.
8. निलेशभाई का मिनी ट्रेक्टर
निलेशभाई भलाला गुजरात के एक किसान हैं. लेकिन निलेशभाई अब किसान से ज़्यादा एक आविष्कारक के रूप में जाने जाते हैं. इसकी मुख्य वजह है उनके द्वारा बनाया गया मिनी ट्रैक्टर. जापानी तकनीक से लैस इस ट्रैक्टर का नाम नैनो प्लस रखा गया है.
10 HP पावर वाला यह ट्रैक्टर दो मॉडलों में उपलब्ध है. एक 3 टायर वाला तो दूसरा 4 टायरों वाला. एक आम खेतीहर को खेती में जितने काम करने होते हैं यह ट्रैक्टर वह सारे काम करता है. जुताई, बिजाई, निराई गुड़ाई, भार ढोना, कीटनाशक स्प्रे आदि काम करने वाला यह ट्रैक्टर खेत के बाहर सड़क पर एक स्कूटर बन जाता है.
9. रमेश भाई का हाइब्रिड रिक्शा
ई रिक्शा और ऑटो जैसे वाहन आने के बाद पैडल रिक्शा चालकों को परेशानी का सामना करना पड़ रहा है. हर कोई आराम और समय की बचत चाहता है इसीलिए आम रिक्शे की जगह ई रिक्शा और ऑटो में बैठना पसंद करता है, लेकिन सभी रिक्शा खींचने वाले अगर वाराणसी के रमेश की तरह दिमाग लगाएं तो वे सब भी ई रिक्शा और ऑटो वालों को टक्कर दे सकते हैं.
दरअसल रमेश ने अपनी जुगाड़ू सोच और एक मोटर मकैनिक की मदद से एक ऐसा रिक्शा तैयार करवा लिया जो मोटर से भी चलता है और पैडल मारने से भी. इसके साथ ही रमेश ने अपने रिक्शा में बैठने वालों के आराम का भी पूरा ख़याल रखा है. सीट के ऊपर शैड लगवाई गयी है जिससे रिक्शे में बैठने वाला बारिश और धूप से बच सके.
रमेश ने यह सब अपने बिगड़ते स्वास्थ्य और जरूरत की वजह से किया. दरअसल रमेश अपनी सेहत के कारण रिक्शा खींचने में असनर्थ थे. लेकिन रोज़गार के लिए ये करना भी ज़रूरी था. बस फिर क्या था रमेश ने अपना जुगाड़ू दिमाग भिड़ाया और अपने रिक्शे को हाइब्रिड बना लिया. यह रिक्शा ज़रूरत के हिसाब से पैडल और मोटर दोनों से चलता है. इसकी स्पीड 40 किमी प्रति घंटा है.
ये सभी आविष्कार जीवन के लिए एक सीख भी हैं. सोचिए अगर शुरु से हर किसी के लिए सब कुछ उनके मन मुताबिक रहता तो क्या आज हम इतने आधुनिक हो पाते? जीवन में कुछ नया हो उसके लिए परेशानियां भी ज़रूरी हैं. इन आविष्कारों और इन्हें बनाने वालों से हम सबको ये सीखना चाहिए कि जीवन में कैसी भी परिस्थियां सामने आ जाएं हमें डरने की बजाय नये रास्ते खोजने चाहिए.