पुलिस के सामने पेश होने से पहले नोटिस जरूरी
सीआरपीसी कानून की धारा-41 के तहत मजिस्ट्रेट आर्डर या वारंट के बगैर भी पुलिस अधिकारी किसी को गिरफ्तार कर सकते हैं. वहीं धारा-41 (ए) में उन बातों का जिक्र है जिनके तहत गिरफ्तारी के पहले नोटिस दिए जाने का प्रावधान है. ऐसा कोई भी संदिग्ध या आरोपी जिसके खिलाफ शिकायत दर्ज है या गंभीर अपराध करने की जानकारी है, उसे पुलिस जांच में बुलाने से पहले नोटिस दिया जाना जरूरी है. अगर नोटिस के अनुसार पुलिस के सामने आरोपी हाजिर होता है तो फिर शिकायत या संदेह के आधार पर उसकी गिरफ्तारी नहीं होनी चाहिए. लेकिन अगर नोटिस के तहत कोई व्यक्ति पुलिस के सामने हाजिर नहीं होता तो फिर अदालत से वारंट तामील करवाने के बाद पुलिस उसको गिरफ्तार कर सकती है.
समयबद्ध तरीके से जमानत देने के लिए नई गाइडलाइंस
सुप्रीम कोर्ट के नए फैसले में जमानत देने के लिए जरूरी गाइडलाइंंस जारी की गई हैं. उसके अनुसार जमानत की अर्जी को दो सप्ताह में और अग्रिम जमानत की अर्जी को 6 सप्ताह में निपटाना चाहिए. सुप्रीम कोर्ट के अनुसार आपराधिक मामलों में दोष सिद्धि की दर बहुत कम है और लगातार हिरासत में रहने के बाद किसी का बरी होना बेहद अन्याय की बात है. शीर्ष अदालत ने कहा कि अदालतों को जनता की स्वतंत्रता की रक्षा करनी चाहिए. सभी हाईकोर्ट से कहा गया है कि जमानत की शर्त पूरी करने में असमर्थ विचाराधीन कैदियों का पता लगाकर, उन्हें जल्द राहत दी जाए.
सुप्रीम कोर्ट ने सभी हाई कोर्ट और राज्य सरकारों से 4 महीने में इस बारे में रिपोर्ट भी मांगी है. अदालत ने कहा कि जेल और जमानत के लिए सीआरपीसी का कानून अंग्रेजों के समय बना था. लेकिन आजादी के बाद लोकतांत्रिक व्यवस्था में लोगों को यह अहसास नहीं होना चाहिए कि वे पुलिस राज्य में रह रहे हैं. ब्रिटेन में जमानत के लिए अलग से कानून का जिक्र करते हुए कोर्ट ने केन्द्र सरकार से बेल यानि जमानत के लिए अलग से कानून बनाने पर विचार करने का सुझाव दिया है.
सजा से ज्यादा हिरासत में रखने पर हर्जाना
छत्तीसगढ़ के मामले में जिला अदालत ने एक व्यक्ति को रेप के अपराध के लिए 12 साल की सजा के साथ 10 हजार रुपए का जुर्माना लगाया था. सन् 2018 में हाईकोर्ट ने उसकी सजा को कम करके 7 साल और जुर्माने को बढ़ाकर 15 हजार कर दिया. क्रिमिनल मामलों में सरकार ही पक्षकार होती है इसके बावजूद हाईकोर्ट का फैसला जेल प्रशासन के पास नहीं पहुंचा. इसकी वजह से उस व्यक्ति को 10 साल और 3 महीने की अवधि तक जेल में रहना पड़ा. जेल सुपरिडेन्टेड ने इस मामले में हलफनामा दायर करके कहा कि 15000 रुपए का जुर्माना नहीं देने की वजह से कैदी को एक साल और जेल में रहना पड़ा. उनके अनुसार सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट का आदेश मिलने के तुरन्त बाद कैदी को रिहा कर दिया गया.
सभी पक्षकारों को सुनने के बाद सुप्रीम कोर्ट ने गम्भीर रूख अख्तियार करते हुए कहा कि सजा पूरी होने के बाद किसी भी व्यक्ति को जेल में रखना संविधान के अनुच्छेद-19 (1) (डी) और 21 का सरासर उल्लघंन है. कोर्ट के अनुसार एक युवा व्यक्ति को उसकी स्वतन्त्रता, रोजगार, परिवार और जीवन के अधिकार से वंचित करना बहुत ही गलत है. सुप्रीम कोर्ट ने छत्तीसगढ़ सरकार को आदेश दिया कि सजा से ज्यादा समय तक जेल में रखने के लिए कैदी को 7.5 लाख रुपए का हर्जाना मिलना चाहिए. कोर्ट ने कहा कि मामले के दोषी अधिकारियों को चिन्हित करके उनके खिलाफ कारवाई करनी चाहिए.
इस मामले में कानून और प्रशासन के साथ सिस्टम की बड़ी खामी सामने आई है. मीडिया में बड़े लोगों के मामलों की चर्चा होने से उनकी झटपट रिहाई हो जाती है. लेकिन छोटे लोगों के मामलों में न्याय का पहिया अभी भी बैलगाड़ी की रफ़्तार से रेंगता है. अदालतों के आदेश समय पर सरकार और जेल प्रशासन के पास पहुंचे और उन पर समयबद्ध तरीके से कारवाई का विवरण अदालतों तक भेजा जाए तो निर्दोष लोगों को बेवजह जेल में नहीं रहना पड़ेगा. मानवाधिकारों के लिहाज से अहम इन फैसलों और गाइडलाइंंस पर निचली अदालतों, पुलिस और राज्य सरकारों द्वारा मुस्तैदी से अमल हो तो कानून के शासन पर लोगों का भरोसा और मजबूत होगा.