कर्नाटक का एक गांव जहां गूगल के साथ रहते हैं ओबामा!

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इंसान की जिंदगी में उसके नाम की बहुत अहमियत है. नाम ही उसे पहचान दिलाता है और फिर पूरी जिंदगी अपने नाम को साबित करने में गुजर जाती है. नाम तय करना कोई आसान काम नहीं है. परिवार, दोस्त, रिश्तेदार… सबकी मदद लगती है तब जाकर घर में एक बच्चे का नाम तय हो पाता है. नाम भी ऐसा जो बोलने-सुनने में अच्छा लगे और तो और… उस नाम के मतलब भी अच्छे हों…!

लेकिन नाम की इस जद्दोजहद से हमारे कर्नाटक प्रदेश का बहादुरपुर गांव काफी दूर है. यहां नाम रखने के लिए ज्यादा मशक्कत नहीं करनी पड़ती. लोग उसे अपनी पहचान बना लेते हैं जो दुनिया में सबसे मशहूर हो… जैसे हमारा गूगल. इस गांव में ऐसे बहुत से अनोखे नाम वाले लोग एक साथ रहते हैं. ऐसा क्यों है.. आइए जानते हैं!

बनाया गया अनोखा नियम

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कर्नाटक के पास बेंगलुरु में हाक्कीपिक्की आदिवासी समुदाय के लोगों की बसाहट है. खासतौर से बहादुरपुर गांव में. पहले हाक्कीपिक्की समुदाय के लोग एकांत जंगलों में रहा करते थे और उनमें से कुछ लोग बस दैनिक जरूरत की चीजें खरीदने के लिए आसपास के कस्बों में लगने वाली हाट में पहुंचते थे. 

पर जैसे-जैसे शहर गांवों तक पहुंचे और गांवों की सीमाएं जंगलों को छूने लगीं, हाक्कीपिक्की समुदाय के लोग जंगलों से निकलकर गांव में बस गए. वैसे तो ये हम सब जानते हैं कि जंगलों में रहने वाले आदिवासी या कबीलों में चलने वाले लोगों के अपने कुछ नियम होते हैं. ऐसे में नियम जिनका पालन करना उतना ही जरूरी है, जैसे आम इंसान के लिए सांस लेना.

सो ऐसा ही एक नियम हाक्कीपिक्की समुदाय के लोगों ने भी बनाया है. जिसके हिसाब से वे अपने यहां जन्म लेने वाले बच्चों के नाम उन चीजों के नाम पर रखते हैं जो उस समय दुनिया में मशहूर हैं. जैसे अगर आज कोई बच्चा जन्म ले तो वे वर्तमान दौर को देखते हुए उसका नाम शायद कोरोना रख दें या फिर कोविड वैक्सीन.

यह सिलसिला सालों से चला आ रहा है. इसलिए इस गांव में रहने वाला हर व्यक्ति अनोखी पहचान रखता है. जैसे किसी का नाम गूगल है तो कोई ओबामा है. किसी ने खुद को सुप्रीम कोर्ट पहचान दी है तो कोई माइक्रोसॉफ्ट कहलवाना पसंद करता है. वैसे यहां शाहरुख खान, अमिताभ बच्चन, सोनिया गांधी के साथ नरेन्द्र मोदी भी रहते हैं.

समय के हिसाब से बदला ट्रेंड

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वैसे ये नाम आज के हिसाब से हैं, यानि मॉर्डन जमाना मॉर्डन पंसद.. लेकिन हमेशा से ऐसा नहीं था. हम्पी विश्वविद्यालय के ट्राइबल स्टडीज डिपार्टमेंट के चेयरपर्सन केएम मेत्री बताते हैं कि हाक्कीपिक्की समुदाय के लोग खुद को राजपूत महाराज महाराणा प्रताप का वंशज मानते हैं. यह समुदाय पहले देश के कई हिस्सों में फैला हुआ था पर अब कर्नाटक के बेंगलुरु के आसपास के गांवों में बसा हुआ है.

आदिवासी पहले अपने बच्चों के नाम कंदमूल, फलों, नहरों और नदियों के नाम पर रखा करते थे. आज भी गांव के बुजुर्ग नीम, पीपल, बांस और बेरी जैसे अनोखे नामों से जाने जाते हैं. ऐसा इसलिए था क्योंकि आदिवासी खुद को जंगलों से जुड़ा हुआ मानते थे, वे जंगलों पर आश्रित थे,  और उसे सम्मान देने के लिए इस तरह के नाम रखे जाते थे. 

लेकिन जैसे-जैसे आदिवासी जंगलों से निकलकर बाहरी दुनिया में पहुंचे तो उनकी पहचान कई नहीं चीजों से हुई. टीवी, रेडियो, बाजारों ने उन्हें बहुत कुछ नया सिखाया. प्रोफेसर कहते हैं कि जब से आदिवासियों ने नई दुनिया के साथ तालमेल बैठाना शुरू किया है बस तभी से उनके समुदाय के लोगों ने नाम रखने की परंपरा को बदला.

इसके बाद जब भी किसी परिवार का किसी नए नाम से या चीज से परिचय होता, वे उसे पसंद करते तो अपने घर के बच्चे का नाम उसी के आधार पर रखने लगे. हालांकि इस बदलाव से गांव के बुजुर्ग खास खुश नहीं हैं पर बच्चों को अपने नाम खूब पसंद आ रहे हैं. कई लोगों ने तो ये नाम आधार कार्ड, बैंक अकाउंट और राशन कार्ड में भी लिखवा लिए हैं.

कई रिवाज और भी हैं..

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वैसे ये अनोखे नाम रखने के अलावा हाक्कीपिक्की समुदाय में कई और भी अच्छी बातें हैं. जैसे इस समुदाय में बेटी के जन्म पर उत्सव मनाया जाता है और जब उसकी शादी होती है तो दूल्हा पक्ष के लोग बेटी के परिवार को तोहफे के तौर पर रकम या कोई कीमती चीज देते हैं. ऐसा इसलिए है क्योंकि आदिवासियों का मानना है कि कन्यादान दुनिया का सबसे महान दान है और इसकी पूर्ति कोई नहीं कर सकता. ऐसे में जब एक पिता अपने बेटी किसी परिवार को दे रहा है तो वह सम्मान का हकदार है और उसे कीमती चीज तोहफे में देना उसी सम्मान को जताने का एक तरीका है.

इसके अलावा समुदाय के लोग आज भी जंगलों से लकड़ियां बीनने के काम करते हैं, ना कि लकड़ी के लिए पेड़ों को काटने का. वैसे यह शायद इकलौता समुदाय ही होगा जो 14 तरह की भाषाएं बोलने और लिखने में माहिर है. हालांकि ये भाषाएं हमारी आम कही सुनी जाने वाली भाषाओं से अलग है. जिसे केवल आदिवासी बातचीत के दौरान इस्तेमाल करते हैं. वैसे शहरों से जुडने के बाद समुदाय के लोगों ने काफी तरक्की की है. अब उनके बच्चे मशहूर कंपनियों में काम कर रहे हैं, कई तो सरकारी नौकरी भी करने लगे हैं लेकिन उनके नाम उनकी अनोखी पहचान और समुदाय की परंपरा को जिंदा रखे हैं.