आखिर जुलेखा पति के ठंडे बलात्कार को क्यों सहती रही? पढ़ें तसलीमा नसरीन की पुस्तक का अंश-

बेशरम’ उपन्यास ‘लज्जा’ का दूसरा हिस्सा है. इसमें साम्प्रदायिकता की आग में झुलसे जीवनों की कहानी है. तसलीमा नसरीन का यह उपन्यास अपनी जड़ों से दूर रहकर पेश आने वाली सामाजिक मुश्किलों की बात कहता है. प्रस्तुत है इस उपन्यास का एक अंश-

मामा के घर में वह कितनी भी छिपकर क्यों न रहती रही हो, उसके अपने देश में इधर-उधर बिखरे हुए जो रिश्तेदार थे, जो उसकी शादी में भी नहीं आए थे, शादी के बाद भी जिन्होंने कभी हालचाल नहीं पूछा था, वे सारे लोग एकाएक प्रकट हो गए और उन्होंने उसकी लानत-मलामत करने का बीड़ा उठा लिया. वे जुलेखा के रिश्तेदार थे. काका-काकी, मामा-मामी, खाला-खालू, फूफी-फूफा कोई नहीं बचा था, यहां तक कि उनके बच्चे भी कह रहे थे कि छि:-छि:, जुलेखा ने यह क्या किया! खानदान के मुंह पर कालिख पोत दी!

जुलेखा ने इससे पहले खानदान के गौरव के बारे में कभी इतना कुछ नहीं सुना था. अपने खानदान को लेकर गर्व करने-जैसा भी कुछ है, उसे मालूम नहीं था. कमाल की बात यह थी कि कोई भी मोहब्बत की निन्दा नहीं कर रहा था, सभी सिर्फ जुलेखा की निन्दा कर रहे थे.

वे कहते— जुलेखा को अगवा कर उसकी इज़्जत लूट ली गई, इसके बावजूद मोहब्बत को इतना ज़्यादा प्यार था कि उसने तलाक नहीं दिया, लेकिन इसके बाद भी वह एक हिन्दू लड़के को घर लाकर ओछी हरकत कर रही थी!

मामा ने उसे रहने की जगह दी ज़रूर थी, लेकिन दिन-रात वे दोहराते रहते— असम्भव है, इस मोहल्ले में मेरा रहना असम्भव है. इस लड़की में भले ही लाज-शरम न हो, मुझमें तो है! मोहल्ले में कसाई मामा की इतनी प्रतिष्ठा है, यह भी जुलेखा को मालूम नहीं था.

जुलेखा की तपिश उसकी बी.ए. की डिग्री थी. डिग्री से उम्मीद बंधती थी कि यह दुनिया अगर उसे अपने से दूर हटा भी दे तो भी वह अकेली जिन्दा रह सकती है. जुलेखा का मन भी उसकी तपिश का एक कारण था. वह मन मानता था कि अगर मैं शहर में अपने लिए एक मकान किराये पर लेना चाहूं तो क्यों नहीं ले पाऊंगी? अगर जुलेखा के साथ उसकी तालीम और उसका मन नहीं होता, फिर तो वह किसी भी रिश्तेदार के यहां, किसी भी पति के घर, किसी भी वेश्यालय में निश्चिन्त होकर रह सकती थी. या फिर मैला ढोने, मिट्टी खोदने, राजमिस्त्री के हेल्पर, आया- जैसे सारे काम कर सकती थी. लेकिन उसका बी.ए. पास करना उससे कहता कि तू इन सबमें मत जाना, तुझे और भी अच्छा काम मिलेगा. ऐसा कहता ज़रूर लेकिन काम मिलता नहीं. उसकी इच्छा होती कि काश, वह मामा के घर की लानत-मलामत से कहीं दूर जा पाती! लेकिन जाएगी कहां? जाने की कोई जगह होती तो फिर वह एक कसाई के घर में हर रोज़ खुद को जिबह नहीं होने देती, हर रोज़ ज़ुबान की छुरी से किसी को अपने आत्मसम्मान के टुकड़े-टुकड़े नहीं करने देती.

वह खुद को इतनी आसानी से मरने नहीं देना चाहती. यही कारण था कि सामूहिक दुष्कर्म के दौरान भी उसने प्रतिवाद नहीं किया. वह आत्मनिर्भर नहीं थी इसलिए अपने पति के अधिकार वाले ठंडे बलात्कार को वह बरसों तक सहती रही. विरोध नहीं किया. अन्यथा वह जाएगी कहां? यह सवाल उसे हर वक्त डराता रहता था. पूरी तरह बरबाद हुए बगैर कोई भी जाने का रास्ता नहीं ढूंढ़ता. रास्ता भटक जाने पर ही इनसान रास्ता ढूंढ़ निकालने की ज़रूरत महसूस करता है. इसीलिए पति द्वारा त्याग दिये जाने के बाद मामूली ही सही, उसने रहने का ठिकाना और एक नौकरी हासिल कर ही ली.

जुलेखा के लिए बहुत-कुछ बुरा होने के बावजूद कुछ अच्छा भी था. उसके पिता अपाहिज थे और उसके रिश्तेदारों की भी उसके परिवार से कोई खास घनिष्ठता नहीं थी. इसलिए कोई भी खुद आगे होकर उसकी मदद करने या फिर उसे त्यागने नहीं आया था. उन्हें जो कुछ कहना था, उन्होंने सुरक्षित दूरी से ही कहा था.

बड़ी बहन की ससुराल में भी उसे दिनभर धिक्कारा जा रहा था. उसने सुलेखा को फोन किया था. सुलेखा ने फोन पर ही बताया कि जुलेखा की खबर अब किसी से छुपी नहीं है. लोग उनके सारे नाते-रिश्तेदारों को धिक्कार रहे हैं. मुसलमान पति के घर में रहकर किसी मुसलमान लड़की का हिन्दू लड़के के साथ प्रेम करने का इतिहास समूचे भारतवर्ष में नहीं मिलता. मोहब्बत निहायत अच्छा आदमी था इसलिए उसने केवल तलाक दिया है, दूसरा कोई होता तो उसे काटकर गंगा में बहा देता.

सुलेखा का पति सुलेखा को उठते-बैठते गालियां दे रहा है. कह रहा है— ऐसी घटिया लड़की की बहन हो तुम, तुम ही कौन-सी ठीक होगी! ससुरालवालों के कलंक के कारण वह लोगों को मुंह नहीं दिखा पा रहा है.

जुलेखा ने कह दिया— मैं अब सिउड़ी नहीं लौटनेवाली. तुम लोग पिता की खोज-खबर रखना. सोचना कि मैं गुमशुदा हूं. होती हैं न लड़कियां? कितनी ही तो लड़कियां गांवों से गुम हो जाती हैं! अनजान जगहों पर बिक जाती हैं! जुलेखा बूथ से फोन कर रही थी और हथेली के पिछले हिस्से से आंखें पोंछ रही थी.

जुलेखा ने सुरंजन को अपनी बदनामी के बारे में कुछ नहीं बताया. उसे बताने का मतलब था, उस पर कुछ करने का दबाव डालना. परिवार, आत्मीय-स्वजन, समाज—इन सबसे निजात पाने का अब एक ही उपाय शेष बचा है और वह यह कि सुरंजन इस्लाम कबूल कर ले और फिर उन दोनों की शादी हो जाए. लेकिन शादी? यही शब्द तो सुरंजन के मुंह से कभी भी नहीं निकला था. जो जिस काम को करने का आग्रही न हो, उसे उस काम को करने के लिए बाध्य करके जुलेखा सुख नहीं भोगना चाहती.

जुलेखा सुरंजन को एक आतंकी के रूप में ही जानती थी. ऐसा आतंकी, जिसने एक निरपराध लड़की को अगवा किया और उसके साथ दुष्कर्म करके किसी से बदला लिया था. ऐसे सुरंजन से शादी करने की बात जुलेखा भला सोच भी कैसे सकती थी? सरसरी तौर पर देखने से तो लगता था कि सुरंजन उसके प्रति आकृष्ट है. यह आकर्षण क्या सचमुच प्यार की वजह से था याकि अपराधबोध की वजह से? वह अगर इस तरह प्रायश्चित करना चाहता है कि तुम्हें मेरी वजह से असहनीय प्रेमविहीन सहवास सहन करने पड़े हैं, इसलिए मैं असंख्य प्रेमपूर्ण सहवासों से उन सबकी क्षतिपूर्ति कर दूंगा, तो फिर निश्चित रूप से यह एक मधुर प्रायश्चित ही होगा, लेकिन दोनों के बीच कोई भी सच्चा रिश्ता कायम नहीं हो पाएगा— न तो प्रेम का और न ही मित्रता का. यहां तक कि सच्ची दुश्मनी का रिश्ता भी नहीं बन पाएगा.

जुलेखा बीच-बीच में खुद से सवाल करती कि वह सुरंजन से सचमुच प्यार करती है या नहीं! उसे लगता कि वह प्यार करती है, लेकिन उसे लेकर उसके संशय बने ही रहते और वह सुरंजन पर भरोसा नहीं कर पाती. अगर भरोसा न हो तो किसी से प्यार किया जा सकता है क्या? लेकिन वह तो भरोसा किए बगैर ही प्यार कर रही थी यानी किया जा सकता है. यह प्यार क्या सिर्फ शरीर के लिए था?

जुलेखा को ऐसा नहीं लगता. अगर केवल शरीर के लिए होता तो फिर मोहब्बत के साथ उसे कभी भी चरम सुख क्यों नहीं मिला? चूंकि उसने मोहब्बत से कभी मुहब्बत की ही नहीं. पहले ही दिन से उन दोनों के बीच में ज़रा-सा भी आवेग भरा रिश्ता बन ही नहीं सका था.

मोहब्बत पहले ही दिन से जुलेखा के लिए एक यंत्र-जैसा था. स्वरों में कोई उतार-चढ़ाव नहीं, चेहरे पर कोई मुसकराहट नहीं. ऐसे पुकारेगा, मानो किसी मशीन के मुंह के छेद से कुछ आवाज़ें निकल रही हों— ऐई, मैं कह रहा हूं, इधर आओ. बुला रहा हूं, सुनती नहीं? लेट जाओ. लेटने पर, साड़ी पहनी हुई जुलेखा के सहमे-सिमटे शरीर को मोहब्बत बहुत देर तक देखता रहता, फिर साड़ी को ऊपर की ओर खिसका देता. अपनी लुंगी ऊपर की ओर उठाकर लम्बी जीभ बाहर कर दाएं हाथ की हथेली पर थूक निकालता और फिर अपने शिश्न के शीर्ष पर लगाकर ज़ोर से अन्दर घुसेड़ देता. जुलेखा हर रात कराह उठती थी. एक-दो मिनट तक उसी तरह मोहब्बत अपने-आपमें मग्न हो, जिस तरह बच्चे अपनी खिलौना-गाड़ी को चलाते हैं, अपने अंग को भीतर चलाकर जुलेखा के शरीर से उतर जाता.