अहोई अष्टमी: पुत्र नहीं संतान के लिए किया जाने वाला व्रत

हिंदुस्‍तान में मनाए जाने वाले त्योहारों का आकर्षण ही अलग है. उनके मनाने के ढंग से प्रभावित होकर विदेशों में भी इनकी धूम मची रहती है. इन त्योहार की गरिमा कभी कम नहीं होती. सनातन धर्म में सभी देवी-देवताओं का अत्यधिक श्रद्धा और भक्ति से पूजन किया जाता है. उनसे संबंधित त्योहारों को आनंदित हो समय-समय पर मनाया जाता है. ये जीवन की डोर से कितनी मजबूती से जुड़े होते हैं ये सभी की भावनाओं से पता चलता है. नारी तो अपने विशिष्ट संकल्पों के कारण हर दिन नए रुप में अपनी भूमिका निभाकर आदर्श प्रस्तुत करती है.

नारी सृष्टि है. और सृष्टि का संचालन सिर्फ देवी-देवताओं के द्वारा ही नहीं बल्कि नारी के संयम, भक्ति और आस्था के आधार पर भी पुष्ट होता है. वह वर्ष भर परिवार के सदस्यों के लिए जीती है. किसी दिन पति के लिए समर्पित करती है. किसी दिन संतान के लिए. किन्हीं दिनों को पूर्वजों की सेवा के लिए और किन्हीं दिनों को आतिथ्य भाव के लिए सुरक्षित रखती है. अपनी पूजा से वह हर दिन को सबकी मंगल कामना के लिए व्यतीत करती है. संतान घर-आंगन की शोभा है. अपने कुल की वृद्धि से अपार खुशी मिलती है. संतान का जीवन में आना जीवन को सफल बनाता है. नारी का मातृत्व पद उसके व्यक्तित्व को निखारता है. पुत्र हो या पुत्री संतान को जन्म देकर नारी स्वयं को गौरवान्वित महसूस करती है. अपनी संतान के लिए अपना जीवन समर्पित कर देती है.

अहोई अष्टमी का पर्व भी उसकी संतान के लिए है. प्राचीन समय में स्त्रियां जिनके पुत्र हों वे ही इस त्योहार को मनाती थीं क्योंकि लड़कियों के प्रति माता-पिता पराया भाव ही रखते थे दूसरे घर में विवाह होना है. पुत्र को ही कुल दीपक और वंश चलाने वाला मानते थे. जिन स्त्रियों के पुत्री होती थी उन्हें इस व्रत से वंचित रखा जाता था. अहोई अष्टमी का पर्व पुत्र स्नेह और परंपराओं का त्योहार था. किन्हीं किवंदन्तियों ने यह त्योहार केवल पुत्र के साथ जोड़कर पुत्रवान स्त्री तक ही सीमित कर दिया था. बेटे होने पर खुशियां मनाई जाती थीं और यही भाव प्रबल होकर पुत्र की दीर्घायु की कामना करता था. और माताएं पुत्र के लिए अहोई अष्टमी का व्रत करने लगीं. यही अंतर संतान के प्रति भेदभाव को दर्शाता था. बेटे हठी होते थे और बेटियां डरी-डरी, सहमी-सहमी सी.

ये त्योहार पिछड़ी मानसिकता के कारण बेटों का बना दिया गया था जिसमें बेटियों की उपेक्षा झलकती थी. आज उन्हीं बेटियों ने मातृत्व पद संभाला तो त्योहार बेटियों के लिए भी महत्वपूर्ण हो गए. विचारधाराओं के परिवर्तन से आज हर घर में ये त्योहार मनाया जाता है और अहोई माता की कृपा का प्रसाद प्राप्त किया जाता है. वर्तमान समय में सभी माताएं उनके चाहे पुत्र हैं या पुत्री इस व्रत को करती है. समय के साथ सोचों में बदलाव आया है

अस्पताल में अत्यधिक कष्ट के बाद दूसरी संतान भी जब पुत्री रुप में जन्मी तब मीना जी की सास ने उसी दिन पड़ने वाले अहोई अष्टमी के व्रत के बारे में अपनी राय देते हुए कहा कि अब आने वाले अहोई अष्टमी के त्योहार को तुम भी करोगी. हमारे घर बेटी आई है. मेरे लिए बेटा-बेटी में कोई फर्क नहीं. उस समय अपनी सास के मुंह से ये शब्द सुनकर मीना जी की आंखों में खुशी के आंसू आ गए. वो तो यही सोच रही थी कि बेटा ना होने से मां जी ये त्योहार नहीं करवाएगीं. पर अपनी सास की सोच पर उन्हें गर्व हुआ क्योंकि तब बेटे वाली ही यह व्रत करती थीं.

समाज में बेटी को बेटा माने वाले कितने होते हैं. मां के लिए तो दोनों में कोई भेद नहीं है पर समाज अंतर कर देता है. बेटियों का मूल्य कम आंकने के कारण परंपराओं को और भी मजबूत बेड़ियों में जकड़ दिया जाता है. मीना जी श्रद्धा से नत हो गईं. कभी-कभी समाज छोटी-छोटी मान्यताओं पर विवश कर देता है. नन्हीं मीनू ने जब अपनी मम्मी से पूछा मम्मी रानी के घर क्या है? वहां सब नए कपड़े पहने हैं. पूरियां और मिठाइयां बन रही है तो मीनू की मां की जुबान लड़खड़ा गई, कैसे कहें उस मासूम से कि रानी के पास भाई है इसलिए उनके घर मिठाई बन रहीं है. हमारे बेटा नहीं है इसलिए त्योहार नहीं हो रहा है. पर मीनू के एक वाक्य से ही उन्होंने दृढ़ निश्चय कर लिया कि वे भी त्योहार करेंगीं. और वे अहोई अष्टमी का व्रत करने लगी.

बच्चों के किए गए प्रश्नों के हल हमें अपनी संकीर्ण मानसिकता में परिवर्तन लाकर देने होंगे. ताकि कोई मीनू फिर से ये प्रश्न ना कर सके. आज मीनू तीस वर्ष की है. उच्च पद पर है और अपनी बेटी के लिए व्रत रखकर त्योहार मनाती है. इतने वर्ष पूर्व मीनू की मम्मी की बदलाव की इस सोच का असर समाज पर हुआ. अखबारों में उनके लिए प्रशंसित भाव से बहुत कुछ छापा गया. प्रभावित पाठकों के पत्र भी प्राप्त हुए. कई बेटियों की मॉओं ने उनके इस सराहनीय कदम की प्रशंसा की और कहा कि उन्होनें समाज को नई दिशा दी महिलाओं को बल मिला और वे स्वयं भी इस व्रत को करने लगीं.

आज के दौर में तो शिक्षित महिलाओं के लिए बेटे-बेटियों का फर्क खत्म ही हो गया है. बेटियां ही बेटे हैं. संतान के निमित्त होने वाले त्योहारों की वे अधिकारिणी हैं. संतान की खुशी. स्वास्थ्यवर्धन व दीर्घायु के लिए किए जानेवाला अहोई अष्टमी का व्रत वे स्त्रियां भी कर सकती हैं जिन्हें संतान नहीं है. अहोई माता के सामने अपनी इच्छा प्रकट कर विनती करें जिससे प्रसन्न होकर मां उन्हें भी संतान होने का वर दें.

अहोई अष्टमी का पर्व कार्तिक मास की अष्टमी को मनाया जाता है. अपनी संतान के मंगल के लिए माताएं व्रत रखती हैं. व्रत महिमा की कहानी कहती हैं. सूर्यदेव को जल चढ़ाकर पूजा स्थल पर मां की तस्वीर के सामने दो घड़ों में जल भरकर रखती हैं. सायंकाल में स्याउ माता की पूजा अर्चना करके अपनी संतान की खुशहाली की कामना करती हैं. अहोई माता मनवांछित फल प्रदान कर सभी की झोलियां खुशियों से भर दें और संतान का कल्याण करें.