अल्मोड़ा. नये दौर में जबकि स्मार्ट वाॅच का क्रेज़ युवाओं में है और जबकि ज़िंदगी दौड़ भाग वाली हो गई है, तब भी कुछ पुराने शहरों में चौक-चौराहों पर बीते ज़माने के घंटाघर दिख जाते हैं. कभी एक पल ठहरकर आपने सोचा है कि घंटाघरों की ये पुरानी घड़ियां आज भी कैसे चल पा रही हैं? क्या आप जानते हैं कि इन घड़ियों में सेल या बैटरी वाली तकनीक नहीं थी? जब कलाई घड़ी नहीं आई थी, तब लोग समय देखने के लिए शहर की इन घड़ियों तक आया करते थे. आपको बताते हैं और वीडियो के ज़रिये समझाते हैं कि एक ज़माने में मशहूर रहीं ये इन घड़ियों की तकनीक क्या है और आज भी इन्हें चालू रखने के लिए क्या कुछ किया जाता है.
अल्मोड़ा के चौघानपाटा में एक बड़ी सी घड़ी लगी है. सबसे पहले आपको बताते हैं कि यह घड़ी विवेकानंद पर्वतीय कृषि अनुसंधान संस्थान के संस्थापक बोसी सेन की पत्नी गर्ट्रूड एमर्सन सेन ने उनकी याद में लगवाई थी. न्यूज़ 18 लोकल ने जब इस घड़ी के इतिहास के बारे में जानकारी जुटाई तो पता चला कि यह घड़ी करीब 40 साल पुरानी है. अब सवाल था कि आखिर यह घड़ी कैसे चलती है? तो हमारे रिपोर्टर ने इस घंटाघर के भीतर जाकर भी जायज़ा लिया और तब पता चला कि इसके अंदर कोई सेल या चार्ज की जाने वाली तकनीक नहीं है.
हर 5 दिन में भरी जाती है चाबी
इस घड़ी का रखरखाव विवेकानंद पर्वतीय कृषि अनुसंधान केंद्र करता है और इस नगर पालिका के कर्मचारी इस घड़ी को चलाते हैं. नगरपालिका से हर पांच दिन में कोई कर्मचारी आकर इस घड़ी की चाबी भरता है, जिससे यह हमेशा चलती रहती है. इस घड़ी के भीतर आपको बीते ज़माने में इंजीनियरिंग का कारनामा समझी जाने वाली छोटी-छोटी कई मशीनें देखने को भी मिलेंगी.
नगर पालिकाध्यक्ष प्रकाश चंद्र जोशी ने बताया चौघानपाटा के सतीश चंद्र जोशी पार्क में लगी हुई इस घड़ी को करीब 40 साल पहले गर्ट्रूड एमर्सन सेन ने लगवाया था क्योंकि तब तक रिस्ट वाॅच आम जनजीवन का हिस्सा नहीं बनी थी. उन्होंने यह भी बताया कि यह घड़ी दो बार खराब हो चुकी है और एक्सपर्ट्स से इसे ठीक भी करवाया गया. उसके बाद से नगरपालिका इस घड़ी को संचालित करती है.