एकहीसफ़मेंखड़े हो गएमहमूद-ओ-अयाज़,
नाकोईबंदारहाना कोई बंदा नवाज़.
उर्दू के मशहूर शायर अल्लामा इक़बाल (1877-1938) के इस शेर का अर्थ है कि महमूद ग़ज़नवी (971-1030 ईस्वी) और उनके ग़ुलाम अयाज़, जब नमाज़ पढ़ने के लिए खड़े होते हैं तो दोनों एक ही लाइन में होते हैं. यानी न तो उस समय कोई बादशाह होता है और न ही कोई ग़ुलाम.
इक़बाल इस शेर के ज़रिए यह बताने की कोशिश करते हैं कि इस्लाम धर्म के सभी मानने वाले बराबर हैं और उनमें किसी प्रकार की कोई ऊंच-नीच नहीं है.
- क्यों बेरोज़गार हैं मुसलमान युवा?
- ‘…तो फिर ख़ुदा ही मुसलमानों की ख़ैर करे!’
लेकिन क्या सच में मुस्लिम समाज ऐसा है, जहां कोई जाति नहीं, कोई भेदभाव नहीं और सभी बराबर हैं?
यह प्रश्न ऐसे समय में उठाया जा रहा है, जब बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने बुधवार को सर्वदलीय बैठक के बाद राज्य में जाति आधारित जनगणना करवाने का एलान किया. गुरुवार को तो कैबिनेट ने इस फ़ैसले पर अपनी मुहर भी लगा दी है.
नीतीश कुमार ने कहा, “जातीय जनगणना के लिए समय निर्धारित किया गया है. इसका नामकरण हम लोग ‘जाति आधारित गणना’ के नाम से करने जा रहे हैं. इसमें हर धर्म और जाति से आने वाले लोगों की गिनती होगी. उनका पूरा आकलन किया जाएगा.”
बातें उन मुश्किलों की जो हमें किसी के साथ बांटने नहीं दी जातीं…
ड्रामा क्वीन
समाप्त
ये जातीय जनगणना कैसे होगी, इसके मापदंड क्या होंगे, इसे कैसे किया जाएगा इसे लेकर अभी ज़्यादा जानकारी बिहार सरकार ने नहीं दी है.
सर्वदलीय बैठक में लिए गए फ़ैसले के बाद भाजपा के नेता और केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह ने मांग की कि मुसलमानों की भी जनगणना होनी चाहिए. यह अलग बात है कि उन्होंने मुसलमानों की जनगणना को रोहिंग्या और बांग्लादेशी मुसलमानों से जोड़ दिया.
गिरिराज सिंह बुधवार को संपन्न हुई भाजपा की राज्य कार्यकारिणी की दो दिवसीय बैठक में भाग लेने के लिए कटिहार गए हुए थे.
कटिहार में पत्रकारों से बात करते हुए गिरिराज सिंह ने कहा कि मुसलमानों के भीतर जातियों और उपजातियों को गिना जाना चाहिए. उनके अनुसार, सरकार को मुसलमानों की जातीय जनगणना के ज़रिए रोहिंग्या और बांग्लादेशी घुसपैठियों की पहचान भी करनी चाहिए.
गिरिराज सिंह ने चाहे जिस भी कारण से मुसलमानों के भीतर जातियों और उपजातियों की गणना की बात की हो, लेकिन यह भी एक सच कि आम तौर पर मुसलमानों के भीतर जातियों की बात कम ही हो पाती है.
बहुत सारे लोगों को तो लगता है कि मुसलमानों में जाति के आधार पर कोई भेद ही नहीं है. वहीं कुछ लोगों का मानना है कि मुसलमानों में भी जातियां तो हैं, लेकिन उनमें उतने गंभीर मतभेद हैं नहीं, जितना कि हिंदुओं में है.
लेकिन सच्चाई क्या है? आख़िर मुसलमान समाज की संरचना कैसी है? और क्या वहां भी समाज के सभी वर्गों के बीच रोटी-बेटी का रिश्ता है?
इस रिपोर्ट में इन्हीं कुछ सवालों के जवाब तलाशने की कोशिश की गई है. बीबीसी ने इसके लिए जाने-माने समाजशास्त्री प्रोफ़ेसर इम्तियाज़ अहमद, हैदराबाद सेंट्रल यूनिवर्सिटी के समाजशास्त्री प्रोफ़ेसर तनवीर फ़ज़ल और राज्यसभा के पूर्व सांसद और पसमांदा मुस्लिम आंदोलन के नेता अली अनवर अंसारी से बात की.
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मुसलमानों में कितनी जातियां हैं?
भारतीय मुसलमान मुख्यतः तीन जाति समूहों में बंटा हुआ है. इन्हें ‘अशराफ़’, ‘अजलाफ़’, और ‘अरज़ाल’ कहा जाता है. ये जातियों के समूह हैं, जिसके अंदर अलग-अलग जातियां शामिल हैं. हिंदुओं में जैसे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्ण होते हैं, वैसे ही अशराफ़, अजलाफ़ और अरज़ाल को देखा जाता है.
राज्यसभा के पूर्व सांसद और पसमांदा मुस्लिम आंदोलन के नेता अली अनवर अंसारी कहते हैं कि अशराफ़ में सैयद, शेख़, पठान, मिर्ज़ा, मुग़ल जैसी उच्च जातियां शामिल हैं. मुस्लिम समाज की इन जातियों की तुलना हिंदुओं की उच्च जातियों से की जाती है, जिनमें ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य शामिल हैं.
दूसरा वर्ग है- अजलाफ़. इसमें कथित बीच की जातियां शामिल हैं. इनकी एक बड़ी संख्या है, जिनमें ख़ास तौर पर अंसारी, मंसूरी, राइन, क़ुरैशी जैसी कई जातियां शामिल हैं.
क़ुरैशी मीट का व्यापार करने वाले और अंसारी मुख्य रूप से कपड़ा बुनाई के पेशे से जुड़े होते हैं. हिंदुओं में उनकी तुलना यादव, कोइरी, कुर्मी जैसी जातियों से की जा सकती है.
तीसरा वर्ग है- अरज़ाल. इसमें हलालख़ोर, हवारी, रज़्ज़ाक जैसी जातियां शामिल हैं. हिंदुओं में मैला ढोने का काम करने वाले लोग मुस्लिम समाज में हलालख़ोर और कपड़ा धोने का काम करने वाले धोबी कहलाते हैं.
प्रोफ़ेसर तनवीर फ़ज़ल बताते हैं कि अरज़ाल में वो लोग हैं, जिनका पेशा हिंदुओं में अनुसूचित जाति के लोगों का होता था. इन मुसलमान जातियों का पिछड़ापन आज भी हिंदुओं की समरूप जातियों जैसा ही है.
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क्या अपनी ही जाति में शादी करते हैं भारतीय मुसलमान?
प्रो. इम्तियाज़ अहमद बताते हैं कि मुसलमानों में भी जाति प्रथा हिंदुओं की तरह ही काम करती है. विवाह और पेशे के अलावा मुसलमानों में अलग-अलग जातियों के रीति रिवाज भी अलग-अलग हैं.
डॉ. तनवीर फ़ज़ल का कहना है कि मुसलमानों में भी लोग अपनी ही जाति देखकर शादी करना पसंद करते हैं. मुस्लिम इलाक़ों में भी जाति के आधार पर कॉलोनियां बनी हुई दिखाई देती हैं. कुछ मुसलमान जातियों की कॉलोनी एक तरफ़ बनी हुई है, तो कुछ मुसलमान जातियों की दूसरी तरफ़.
प्रो. फ़ज़ल के अनुसार पश्चिमी उत्तर प्रदेश के संभल में तुर्क, लोधी मुसलमान रहते हैं. उनके बीच काफ़ी तनाव रहता है. उनके अपने-अपने इलाक़े हैं. राजनीति में भी ये देखा जाता है.
वो कहते हैं कि मस्जिद में जाति व्यवस्था लागू नहीं होती, क्योंकि इस्लाम इसकी इजाज़त नहीं देता. उनके अनुसार, दिल्ली की कई मस्जिदों में ऐसी मुस्लिम जातियों के इमाम बने हुए हैं, जो काफ़ी पिछड़ी जाति से ताल्लुक़ रखते हैं.
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आपसी संबंधों पर राज्यसभा सांसद रहे अली अनवर अंसारी की राय थोड़ी अलग है. वे कहते हैं, “जीने से लेकर मरने तक मुसलमान जातियों में बंटा हुआ है. शादी तो छोड़िए, रोटी-बेटी का रिश्ता भी नहीं है एक दो अपवाद को छोड़कर.”
उनका कहना है कि जाति के आधार पर कई मस्जिदें बनाई गई हैं. गांव-गांव में जातियों के हिसाब से क़ब्रिस्तान बनाए गए हैं. हलालख़ोर, हवारी, रज्जाक जैसी मुस्लिम जातियों को सैयद, शेख़, पठान जातियों के क़ब्रिस्तान में दफ़नाने की जगह नहीं दी जाती. उनके अनुसार, कई बार तो पुलिस को बुलाना पड़ता है.
क्या मुसलमानों को आरक्षण मिलता है?
मुसलमानों में कोई जाति कितनी भी पिछड़ी हो, उसे अनुसूचित जाति का दर्जा नहीं मिलता है, लेकिन मुसलमानों की कुछ जातियों को ओबीसी आरक्षण का लाभ मिलता है.
प्रो. तनवीर फ़ज़ल कहते हैं, “संविधान के अनुच्छेद 341 के ज़रिए, अनुसूचित जाति को आरक्षण मिलता है लेकिन उसमें राष्ट्रपति का एक आदेश जुड़ा हुआ है. इसके तहत, हिंदुओं में अछूत माने जाने वाली जातियों को ही इसका लाभ मिलेगा. बाद में इसमें दो बदलाव लाए गए, जिसके तहत मज़हबी सिख और बौद्ध धर्म के मानने वाले लोगों को शामिल किया गया. लेकिन अभी तक इस्लाम और ईसाई धर्म मानने वाली जातियों को इसमें शामिल नहीं किया गया है.
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प्रो. फ़ज़ल के अनुसार, मुसलमानों में कम से कम 15 ऐसी जातियां हैं, जिन्हें अनुसूचित जाति का दर्जा मिलना चाहिए. मुसलमानों में जो पिछड़ी जातियां हैं, उन्हें ओबीसी कैटेगरी में रखा गया है, लेकिन उससे हलालख़ोर जैसी जातियों के लोगों को कोई फ़ायदा नहीं मिलता, जबकि उनका पिछड़ापन हिंदू दलितों जैसा है.
अली अनवर अंसारी कहते हैं, “न सिर्फ़ अनुसूचित जाति बल्कि अनुसूचित जनजाति में भी कोई मुसलमान नहीं आता है. हिंदुओं में मीणा जाति अनुसूचित जनजाति में आती है और उसे आरक्षण मिलता है, वहीं मुसलमानों में उसी से मिलती जुलती मेव जाति को अनुसूचित जनजाति का आरक्षण नहीं मिलता. उसे ओबीसी का दर्जा दिया गया है.”
हालांकि यह बात भी सच है कि पूरे भारत में कहीं कहीं मुसलमानों की कुछेक जातियों को अनुसूचित जनजाति का दर्जा मिला हुआ है.
हिंदू से मुसलमान बनने पर नहीं मिलता आरक्षण
हिंदू धर्म को मानने वाले अनुसूचित जाति और जनजाति का अगर कोई व्यक्ति इस्लाम धर्म अपना लेता है, तो उन्हें अनुसूचित जाति के तहत आरक्षण नहीं मिलता.
प्रो. तनवीर फ़ज़ल बताते हैं कि कोई भी दलित व्यक्ति आज़ादी से अपना धर्म नहीं चुन सकता, क्योंकि हिंदू धर्म में उसे अनुसूचित जाति के तहत आरक्षण का लाभ मिलता है, जबकि मुस्लिम धर्म में शामिल होने के बाद उन्हें ओबीसी कोटे के तहत आरक्षण का लाभ मिलता है.
प्रो. फ़ज़ल के अनुसार ये सीधा-सीधा आज़ादी से धर्म चुनने के अधिकार का हनन है.
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मुसलमानों में जाति प्रथा कैसे आई?
भारतीय समाज की सामाजिक संरचना के मूल में जाति व्यवस्था है. ये सभी धर्मों में पाई जाती है. वर्ण व्यवस्था की बात हिंदू धर्म ग्रंथों में देखने को मिलती है, लेकिन इस्लाम के मूल में ये नहीं मिलता.
प्रो. तनवीर फ़ज़ल कहते हैं कि भले ही वर्ण व्यवस्था इस्लाम में न हो, लेकिन भारतीय मुसलमान के समाज को देखें तो उनमें जाति व्यवस्था स्थापित है.
समाजशास्त्री प्रो. इम्तियाज़ अहमद बताते हैं कि इस्लाम धर्म जब तुर्की और ईरान होते हुए हिंदुस्तान पहुंचा तो उसमें एक विस्तृत शुद्धिकरण का विकास हो चुका था और जब ये धर्म हिंदू जाति प्रथा के संपर्क में आया तो इसे और मज़बूती मिली.
वहीं प्रो. तनवीर फ़ज़ल इसके पीछे कुछ दूसरे कारण भी बताते हैं.
वे कहते हैं, “धर्म परिवर्तन के समय लोग अपने साथ अपनी अपनी जातियां भी लेकर आए. इस्लाम धर्म अपनाने के बाद भी उन्होंने जाति को नहीं छोड़ा. उत्तर प्रदेश के जिन राजपूतों ने मुस्लिम धर्म अपनाया, वे अभी भी अपने नाम के साथ चौहान लिखते हैं. ख़ुद को राजपूत मानते हैं.”
यह भी माना जाता है कि जो तुर्क, मुग़ल और अफ़ग़ान भारत में आए. उन्होंने अपने लोगों को शासन व्यवस्था में ऊंचा स्थान दिया और यहां के लोगों को कमतर निगाहों से देखा. प्रोफ़ेसर फ़ज़ल के अनुसार हो सकता है कि वहां से भी इसकी शुरुआत हुई हो.
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जातीय जनगणना से मुसलमानों को कितना फ़ायदा
देश में हर 10 साल के बाद जनगणना होती है. इसमें किसी जाति की कितनी संख्या है, उसका विवरण नहीं होता. मुसलमान समाज की जनसंख्या भी धर्म के आधार पर की जाती है. जब जातीय जनगणना होगी, तब हर धर्म में मौजूद जातियों का पता चलेगा.
प्रो. तनवीर फ़ज़ल बताते हैं कि सरकार जनगणना करेगी तो सामाजिक और आर्थिक दर्जे का भी ध्यान रखेगी. उनके अनुसार, इससे पिछड़ी हुई मुसलमान जातियों को फ़ायदा मिलेगा और पिछड़ेपन के आधार पर उन्हें आरक्षण मिलने में मदद मिल सकती है.