विदेशी शेयर बाज़ारों में हो रही गिरावट क्या मंदी शुरू होने के संकेत हैं?

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दुनिया की अर्थव्यवस्था के हालचाल का संकेत देने वाले अमेरिकी ‘डॉउ जोन्स’ और ‘एसएंडपी 500’ सूचकांक, पिछले छह माह के दौरान रिकॉर्ड स्तर से क्रमश: 15 और 20 फ़ीसदी नीचे गिर चुके हैं.

पिछले शुक्रवार को ख़त्म हुआ हफ़्ता मार्च 2020 यानी कोरोना महामारी शुरू होने के समय से सबसे ख़राब साबित हुआ है.

हालांकि शेयर बाज़ार कभी-कभी कुछ वक़्त के लिए गिरता है, जिसे तकनीकी शब्दावली में ‘सुधार होना’ कहा जाता है. लेकिन कई जानकार बता रहे हैं कि शेयर बाज़ार में अब ‘मंदी’ का माहौल शुरू होने वाला है.

शेयर बाज़ार में ‘मंदी’ आ गई है, ऐसा तब माना जाता है जब शेयरों के दाम हाल के अधिकतम स्तर से 20 फ़ीसदी से भी अधिक गिर जाए.

दूसरे शब्दों में, जब किसी अवधि के दौरान निवेशकों ने जितने की ख़रीद की हो, यदि उससे ज़्यादा की बिक्री की हो और उस चलते बाज़ार की दिशा तय करने वाली कंपनियों का पूंजीकरण घट जाए, तब कहा जाता है कि बाज़ार में ‘मंदी’ हावी हो गई है.

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मंदी का दौर कब तक चलेगा?

एसएंडपी 500 सूचकांक 1929 से अब तक कुल 26 बार मंदी की चपेट में आ चुका है. हालांकि 1929 की आर्थिक मंदी के चलते पैदा हुई अस्थिरता के चलते 1950 तक ही 14 बार ऐसी गिरावट हो चुकी थी. लेकिन उसके बाद के 72 सालों में ऐसी गिरावट 12 बार हो चुकी है.

वैसे पिछले कुछ सालों के दौरान, बाज़ार में मंदी का आना पहले से काफ़ी कम हो गया है. ऐसा तभी होता है जब आर्थिक संकट या मंदी आने वाली होती या उसकी शुरुआत हो चुकी होती है.

1970 के दशक के शुरुआत में आए तेल संकट के दौरान एसएंडपी 500 सूचकांक में बहुत बड़ी गिरावट दर्ज हुई थी. नवंबर 1973 से 1974 के दौरान केवल तीन महीनों के भीतर सूचकांक 48.2 फ़ीसदी गिर गया था. उसके बाद, 2008 में आई आर्थिक मंदी से ठीक पहले अक्तूबर 2007 से नवंबर 2008 के बीच इस सूचकांक में क़रीब 52 फ़ीसदी की भारी गिरावट दर्ज की गई थी.

दो साल पहले, फरवरी और मार्च 2020 के बीच के केवल एक महीने में ही यह सूचकांक 33 फ़ीसदी गिर गया था. कोरोना महामारी की आशंका के चलते आर्थिक मंदी आने की आशंका के चलते ऐसा हुआ था.

अभी तक जितनी बार बाज़ार मंदी की चपेट में गया है, उसकी स्टडी बताती है कि एसएंडपी 500 के गिरने का दौर औसतन 289 दिनों तक चला है.

वहीं गिरावट के आंकड़ों का औसत निकालने पर पाया गया कि मंदी आने पर इस सूचकांक में उस समय के उच्चतम स्तर से औसतन 36 फ़ीसदी की गिरावट हुई थी.

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और तेज़ी कब तक रहती है?

बाज़ार में तेज़ी का दौर 991 दिन (क़रीब पौने तीन साल) रहा है और औसतन मुनाफ़ा 114% का हुआ है.

मंदी वाले बाज़ार की तुलना में बाज़ार में तेज़ी वाले हालात कहीं ज़्यादा बार बनते हैं और लंबे समय तक बरकरार रहते हैं. बाज़ार में जब तेज़ी आती है, तो उससे होने वाला मुनाफ़ा भी मंदी में होने वाले नुक़सान से कहीं अधिक होता है.

ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि लंबे अवधि के दौरान अर्थव्यवस्था का विस्तार होता रहता है. बाज़ार में मज़बूत तेज़ी के दौर आते हैं, उसके बाद थोड़ी देर के लिए गिरावट होती है और फिर मंदी के मज़बूत दौर में चली जाती है.

अब तक बाज़ार में तेज़ी का सबसे लंबा दौर 2009 से 2020 के बीच चला, जिसमें लाभ 300 फ़ीसदी से अधिक रहा है.

निवेशकों को सलाह दी जाती है कि बाज़ार में जब मंदी चल रही हो, तब स्टॉक ख़रीदें और उन्हें तब बेचें, जब बाज़ार तेज़ी के शिखर पर हो. ऐसा करना ही सही व्यापार है.

समस्या यह है कि इस बात का पता लगाना लगभग असंभव है कि हम कब इन दो चरम दशाओं में से एक पर पहुंच गए.

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तेज़ी के लिए बैल और मंदी के लिए भालू क्यों?

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आख़िर बाज़ार में जब तेज़ी आती है तो उसे बैल से और मंदी के दौर को भालू से क्यों दिखाते हैं?

इस बारे में कई सिद्धांत दिए गए हैं. उनमें से एक सिद्धांत इन दोनों चिह्नों के प्रचलित होने का श्रेय 16वीं और 19वीं सदी के बीच इंग्लैंड में जानवरों की लड़ाई के लोकप्रिय शो को देता है.

जानवरों की ऐसी लड़ाई में एक बंद बाड़े में कुत्तों के झुंड के सामने या तो बैल या तो भालू को खड़ा कर दिया जाता था. हालांकि इस तरह के खेल पर वहां की संसद में क़ानून बनाकर 1835 में रोक लगा दी थी.

इस लड़ाई में पाया जाता था कि बैल, कुत्तों पर अपने सिर से नीचे से ऊपर की ओर हमला करते थे, लेकिन भालू ऊपर से नीचे की ओर झुकते हुए हमला करते थे.

इसलिए अनुमान है कि 1801 में जब लंदन स्टॉक एक्सचेंज स्थापित हुआ होगा, तब इसके संस्थापकों ने ‘बुल’ यानी बैल और ‘बियर’ यानी भालू को अपनी शब्दावली में शामिल किया था.

इसके अलावा, कई लोग इन संकेतों के चुने जाने की एक सरल सी व्याख्या करते हैं. उनके अनुसार, सांड़ जोश, आक्रामकता और ताक़त का प्रतिनिधित्व करता है, जबकि भालू शर्मीला, नरम और सबसे बढ़कर लंबे समय तक निष्क्रिय पड़े रहने के लिए जाना जाता है.