चाहे हम तरक्की के आसमान छू रहे हों, लेकिन अभी भी कई मसलों पर समाज में अजीब सी चुप्पी है. इन्हीं में से एक है परिवार नियोजन. समाज में अभी भी खुलकर परिवार नियोजन के बारे में बात नहीं होती. अभी भी ऐसे लोगों की कमी नहीं है, जो कंडोम का विज्ञापन आते ही टीवी पर चैनल बदल देते हैं. मेडिकल स्टोर पर सैनेटरी पैड की तरह कंडोम भी काली पॉलीथिन में लपेटकर दिए जाते हैं.
बहरहाल, इन पिछड़ी मानसिकताओं के बीच भी हम कह सकते हैं कि हालात पहले से तो बेहतर ही हैं. कम से कम युवा पीढ़ी तो परिवार नियोजन के फायदे और मतलब समझने ही लगी है. पर यहां बातें आज की नहीं बल्कि उस वक्त की हो रही हैं जब समाज में परिवार नियोजन जैसे विषय पर बात करना शर्म की बात थी और वो भी एक महिला के लिए! ऐसे में अवाबाई वाडिया जिन्हें लोग बेबाक वकील साहिबा के नाम से भी पुकारते थे, उन्होंने भारत में पहली बार परिवार नियोजन की नींव रखी.
कोलंबो से तय किया भारत का सफर
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अवाबाई भारतीय परिवार का हिस्सा रहीं लेकिन उनका जन्म 1913 को कोलंबो में हुआ था. उनका परिवार प्रगतिवादी सोच रखता था इसलिए उस वक्त अवा को अपने तरीके से जीवन जीने मिला. उन्होंने उच्च शिक्षा हासिल की. अवा के पिता शिपिंग अधिकारी थे और उनकी माँ पिरोजबाई अर्सेवाला मेहता गृहिणी थीं लेकिन उन्होंने अवा को घर तक सीमित नहीं रखा. यही वजह रही कि अवाबाई यूनाइटेड किंगडम में ‘बार परीक्षा’ पास करने वाली सीलोन यानि अब जिसे श्रीलंका की पहली महिला बनी. इसके बाद श्रीलंका की सरकार ने महिलाओं को कानूनी शिक्षा देने के लिए प्रयास तेज कर दिए.
हालांकि अवाबाई ने श्रीलंका के बाद लंदन में काम किया और लगभग हर जगहलैंगिक भेदभावका सामाना किया. जब दुनिया दूसरे विश्व युद्ध से जूझ रही थी तब अवाबाई और उनके परिवार ने तय किया कि वे भारत वापिस चले जाएंगे. भारत पहुंचने पर अवाबाई के परिवार ने बम्बई में अपना घर बनाया. यहां पहुंचकर वे समाजसेवा में खुद को व्यस्त रखने लगी. वकालत पीछे रह गई पर वे अपने काम से खुश थीं.
1940 के दशक के अंत में दुनिया आबादी की जरूरतें पूरी करने की नई समस्या का सामना कर रही थी. मातृ मृत्यु और शिशुमृत्यु दर भी बढ़ रही थी. देश प्रगति कर रहे थे पर परिवार नियोजन और दूसरे मसलों पर बात करना किसी अपराध से कम नहीं था. इस बीच अवाबाई ने परिवार नियोजन के मसले को गंभीरता से लिया. उन्होंने समाजसेवा के दौरान यह महसूस किया के महिलाओं का जीवन बच्चों को जन्म देने, स्तनपान कराने और गर्भपात में ही बीत जाता है. इस तरह उनकी शारीरिक क्षमताएं तो कम हो रही हैं साथ ही कुपोषण बढ़ता जा रहा है.
जब खुद किया सामना
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इन सब दिक्कतों को अवाबाई ने खुद करीब से तब जाना जब उन्होंने खुद गर्भपात का सामना किया. अपनी आत्मकथा ‘द लाइट इज़ आवर’ में अवा ने बताया कि उनकी शादी 26 अप्रैल 1946 को बोमनजी खुरशेदजी वाडिया से हुई. 1949 में, उन्होंने फैमिली प्लानिंग एसोसिएशन ऑफ इंडिया की स्थापना की. अवाबाई 1952 में माँ बनने वाली थीं, लेकिन उनका गर्भपात हो गया. तब समझ आया कि असल में महिलाएं कैसा जीवन जी रही हैं. इस घटना के बाद उनके पति के साथ संबंध खत्म हो गए पर नया रिश्ता देश की महिलाओं के साथ बन गया.
अवाबाई ने परिवार नियोजन के मसले को सरकार तक पहुंचाया और 1951-52 में परिवार नियोजन नीतियों को आधिकारिक रूप से बढ़ावा देने के लिए भारत सरकार का काफी नाम हुआ. एफपीएआई ने भारत के कुछ सबसे गरीब क्षेत्रों के लोगों के साथ काम किया और महिलाओं, पुरुषों में परिवार नियोजन के प्रति जागरूकता लाने का प्रयास किया. एफपीएआई ने यह प्रयास शुरू करने से पहले ग्रामीण इलाकों में पर्यावरण जागरूकता को बढ़ावा दिया, सड़कों का विकास किया, रोजगार की दिशा में कदम बढ़ाया और फिर परिवार नियोजन की बात शुरू की.
और फिर बदनाम हुआ मिशन
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अवाबाई ने कभी भी मिशन के तहत परिवार नियोजन को लोगों पर नहीं थोपा. उन्होंने हमेशा इस बात पर जोर दिया कि लोगों को खुद परिवार नियोजन को अपनाना चाहिए. एफपीएआई के प्रयास से 1970 के दशक तक कर्नाटक क्षेत्र में शिशु मृत्यु दर में कमी देखी गई. विवाह की औसत आयु को बढ़ाने से कई और राज्यों में भी इसका प्रभाव देखने मिला. लेकिन 1975-77 में परिवार नियोजन मिशन की काफी आलोचना हुई. इस दौरान देखा गया कि कुछ राज्यों में खास समुदाय के लोगों को जबरदस्ती परिवार नियोजन के लिए कैम्प ले जाया गया. उपचार के दौरान कई लोगों के मरने की भी खबरें आईं.
1980 में अमेरिका ने परिवार नियोजन मिशन को फंड देने से इंकार कर दिया. चूंकि इस मिशन के तहत कई और देशों में गर्भपात को सहमति मिल रही थी इसलिए अमेरिका ने पूरे मिशन को फंड देने से इंकार कर दिया. ऐसे में भारत सरकार के साथ मिलकर अवाबाई ने एक बार फिर मिशन को नए सिरे से शुरू किया. परिवार नियोजन मिशन के तहत उन्होंने गर्भपात को बढावा नहीं दिया लेकिन मिशन की छवि सुधारने पर बहुत काम किया. साल2000 में जब महाराष्ट्र राज्य में दो बच्चों के मानदंड को लागू करने और राशन, मुफ्त प्राथमिक शिक्षा का लाभ तीसरे बच्चे को न देने की बात हुई, तो अवाबाई ने इसका विरोध किया.
अवाबाई ने अपने मिशन के बारे में कहा कि हम उन नियमों का समर्थन नहीं कर सकते हैं, जो बुनियादी मानवाधिकारों को छीनने की बात करते हों. वैसे भी कोई भी अभियान तब तक सफल नहीं हो सकता जब तक उसे दिल से ना अपनाया जाए. अवाबाई को 1971 में पद्म श्री पुरस्कार से सम्मािनत किया गया. वे अपनी आत्मकथा में कहती हैं कि मुझे जीवन में क्या करना है, इसकी तलाश मैंने नहीं की, बल्कि मेरा काम खुद मेरे पास चलकर आया. मैंने अपने जीवन में आगे जो भी काम किए, उसमें कानून एक मजबूत फेक्टर था इसलिए कभी दुख नहीं हुआ कि मैंने वकालत नहीं की!