Baisakhi 2023: पंजाबी समुदाय में बैसाखी पर्व को बहुत धूमधाम से मनाया जाता है। इस दिन सूर्य मेष राशि में आते हैं, जिससे इस दिन को मेष संक्रांति के नाम से भी जाना जाता है। मेष संक्रांति पर स्नान, ध्यान, जप-तप व दान पुण्य आदि धार्मिक चीजों का विशेष महत्व है। हिंदू धर्म में इस दिन सत्तू खाने और दान करने का विशेष महत्व है। आइए जानते हैं बैसाखी पर क्यों खाया जाता है सत्तू…
सत्तू का धार्मिक महत्व
बैसाखी पर यही वजह है कि बिहार सहित कई क्षेत्रों में इस दिन सत्तू खाने और दान करने की परंपरा रही है। ज्योतिषीय दृष्टि से चने की सत्तू का संबंध सूर्य, मंगल और गुरु से भी माना जाता है। इसलिए कहते हैं कि, सूर्य के मेष राशि में आने पर सत्तू और गुड़ खाना चाहिए और इनका दान भी करना चाहिए। जो इस दिन सत्तू खाते हैं और इनका दान करते हैं वह सूर्य कृपा का लाभ पाते हैं। मृत्यु के बाद इन्हें उत्तम लोक में स्थान मिलता है और फिर नया जन्म लेने पर गरीबी का मुंह नहीं देखना पड़ता है। सत्तू का दान करने मात्र से सूर्य, शनि, मंगल और गुरु इन चारों ग्रहों की प्रसन्नता प्राप्त हो जाती है।
सत्यनारायण भगवान की जाती है पूजा
मेष संक्रांति पर गंगा स्नान, जप-तप दान आदि का विशेष महत्व है। साथ ही इस दिन सत्यनारायण भगवान की पूजा भी की जाती है और कथा भी सुनी जाती है, जिसमें सत्तू का भोग लगाया जाता है और घर-घर प्रसाद के रूप में वितरण किया जाता है। इस दिन कई लोग सत्तू का शर्बत बनाकर दान करते हैं और पीते भी हैं।
मेष संक्रांति पर खत्म खरमास
सूर्य के मेष राशि में आने पर खरमास भी खत्म हो जाता है और शादी-विवाह के लिए शुभ मुहूर्त भी शुरू हो जाते हैं। बैसाखी पर गंगा स्नान करने के बाद नई फसल कटने की खुशी में सत्तू और आम का टिकोला खाया जाता है। इस दिन घरों में खाना नहीं पकाया जाता बल्कि सिर्फ सत्तू का ही सेवन करते हैं। इस दिन सत्तू के साथ मिट्टी के घड़े, तिल, जल, जूते आदि चीजों का भी दान किया जाता है।
ककोलत में स्नान का बड़ा महत्व
बिहार में इस शुभ दिन पर ककोलत जलप्रपात में स्नान करने का विशेष महत्व है। मान्यता है कि मेष संक्रांति पर इस जल में स्नान करने से कुष्ठ रोग से मुक्ति मिलती है और गिरगिट व सर्प योनी में जन्म नहीं लेना पड़ता। यहां पर इस उपलक्ष्य में मेले का भी आयोजन किया जाता है। पौराणिक कथाओं के अनुसार, महाभारत काल में पांडवों के आज्ञातवास के दौरान पांडव काम्यक वन आज के ककोलत जगह पर आए थे, तब उनके साथ भगवान श्रीकृष्ण भी थे। दुर्वासा ऋषि को शिष्यों के साथ कुंति ने यहीं पर सूर्यदेव के दिए पात्र में भोजन बनाकर खिलाया था। साथ ही यहीं पर मां मदलसा ने अपने पति को कुष्ठ रोग से मुक्ति दिलाई थी।