बावरा मन: मुन्ना दर्शन यानी गांधीगिरी

‘मुन्ना दर्शन’ यानी गांधीगिरी, देश दुनिया में आजकल जरा कम व्याप्त है. जिसे देखिए ‘आरपार’ को तैयार मिलता है. पुतिन/ वोलोडिमिर जेलेंस्की हों या सोशल मीडिया पर फिल्मी सितारे, लड़ाई कम या खत्‍म कैसे की जाए से ज्‍यादा, लड़ाई कैसे बढ़ाई जाए में लोगों को ज़्यादा सुकून मिलता है. शुरू-शुरू में ऑरकुट, फेसबुक, ट्विटर आए तो लगता था चलो भईया, स्कूल कॉलेज के पुराने दोस्तों को ढूंढा जाए, कुछ नए दोस्त बनाए जाएं. सोशल नेटवर्किंग की जाए. लिंक्स बढ़ाए जाएं. जब सोशल नेटवर्क बन गया, दोस्त रिलोकेट हो गए तो सब बड़ा अच्छा हो गया. लोग एक दूसरे को जन्मदिन/ शादी की सालगिरह पर विश करने लगे. इन सोशल मीडिया अकाउंट्स पर ऑल इस वेल वाली पाउट के साथ फोटो डालने लगे. कभी रेस्त्रां की तो कभी यात्रा की फोटो इन अकाउंट्स पर डलने लगीं. किसने जॉब बदली किसने नई गाड़ी ली, अब सबकी खबर रहती है. वैसे तो सब भला चंगा ही रहा है. पर अब माहौल धीरे धीरे बदल गया है.

अब ये साइट्स सिर्फ दोस्ती के प्लेटफार्म्स ही नहीं रहे. अब सोशल मीडिया साइट्स पर ट्रोल आर्मियां अवतरित हो चुकी हैं. मुद्दे भड़काए और मुद्दे भटकाए जा रहे हैं. जितनी जल्दी दोस्तों रिश्तेदारों के व्हाट्सअप एप ग्रुप्स बनते हैं, उतनी ही जल्दी उनमें से लोग तंग आ कर एग्जिट भी मारने लगते हैं.

सोशल साइट्स पर अनसोशल व्यवहार

अब इन सोशल नेटवर्किंग प्लेटफार्मस पर दोस्ती यारी के बीच धर्म, जाती, राजनीति ने भी एंट्री पा ली है. कोई विचार थोपने वाली प्रवृत्ति से ग्रसित है तो कोई सोशली नाराज होना अपना हक समझता है. लोग सहमति असहमति व्यक्त करने को सदा आतुर रहते हैं. यही नहीं, कई बार असहमति से आगे भी बात बढ़ जाती है. पहले लगती हुई बात करने से पहले लोग दस बार सोचते थे अब कहते हैं, ‘भाई मैं क्यों पीछे रहूं’. लोग जान गए हैं कि जितना ज़्यादा कटु बोल होंगे, जितना ज़्यादा विवाद होगा, उतना ही ज़्यादा मशहूर होने के चांस भी होंगे.

आज हर तरह की आवाज सोशल मीडिया पर तुरंत वायरल होने का दम रखती है. मीडिया में, ‘तू-तू, मैं-मैं’ टीआरपी बढ़ा रहे हैं. यानी टीआरपी बढ़ाना हो, तो तू-तू, मैं-मैं. फिल्म का प्रमोशन करना है तो कुछ विवादित बोल, बॉयकॉट कॉल्स, फिल्म की सफलता के चांस बढ़ा देते हैं. यानी फायदे के लिए भी नेगेटिव का सहारा ही जरूरी हो गया है. तो कुल मिला के समाज, ‘जादू की झप्पी’ के दायरे से बाहर निकल चुका है. गांधीगिरी से ज़्यादा दादागिरी फलने फूलने लगी है.

जादू की झप्‍पी

अब बात करे मुन्ना दर्शन यानी भाईगिरी की तो हम देखेंगे कि जब मुन्ना भाई ‘एमबीबीएस’ हुए थे तो उनके एमबीबीएस होते ही समाज की मरहम पट्टी शुरू हो गई थी. सब तरफ़ ‘जादू की झप्पी’ का जलवा फैल गया था. जनता, बिगड़े मिजाज वाले लोगों को गले लगा, ‘गेट वेल सून’ कहने की आदत डालने लगी थी. स्कूल, कॉलेज, दफ्तरों में पब्लिक, ‘गेट वेल सून’ और ‘मिट्टी पाओ’ से बिगड़े रिश्ते संवार रही थी. हर तरह के मानसिक और भावनात्मक ज़ख्म भरने के लिए हमको एक नया सामाजिक मंत्र मिल गया था.

राजू हिरानी ने वो कर दिखाया था जो सिनेमा का असली रूप होना चाहिए था. ढेर सारा मनोरंजन और उस मनोरंजन के साथ लिपटा एक प्यारा सा संदेश. उस समय मुन्ना भाई एमबीबीएस से ‘जादू की झप्पी’ फोर फ्रंट में आ गई थी. इसी तरह जब मुन्ना दर्शन वाली दूसरी फिल्म, ‘लगे रहो मुन्नाभाई’ आई तो इस फिल्म में साक्षात गांधी जी ही परदे पर नज़र आने लगे थे. व्यापक सामाजिक असर छोड़ती फिल्मों के बारे में बात करें तो ‘मुन्ना दर्शन’ वाली इन दो फिल्मों के नाम सबसे ऊपर आते हैं.

इन्हीं दो फिल्मों का असर था कि लोग गलती करने वाले को गुलाब देने लगे थे. ट्रैफिक पुलिस, अपनी मुहिम में ट्रैफिक रूल तोड़ने वालों को चालान की जगह लाल गुलाब का फूल थमा रही थी. आंदोलनकारी, तम्बू गाड़ के भूख हड़ताल करने लगे थे. मोमबत्ती और गुलाब नए हथियार हो गए थे.

फुल ऑन मनोरंजन के साथ समाज के लिए एक अप्रत्याशित परिवर्तन की दिशा तय की थी इन फिल्मों ने. जिस समय ये ‘मुन्ना फिल्में’ आईं थीं, उस समय के भारतीय समाज में गांधीगिरी का ही नया नाम पड़ गया था ‘भाईगिरी’. यानी मुन्ना भाई की भाईगिरी. आज समाज में इसी वाली भाईगिरी की जरा कमी है. हमारे आसपास मुन्ना दर्शन और गांधीगिरी जरा कम हो गए हैं.

गांधी मत

गांधी जी ने कहा था, बुरा न देखो, बुरा न सुनो, बुरा न कहो. हम गांधी को तो भूले ही, उनकी कही बातों पे भी हंसने लगे हैं. हंसने तक भी ठीक था पर अब उनकी बातें, उनके विचार कुछ लोगों को क्रोधित भी कर देते हैं और वो गांधी जी को ही कुछ भी बोलने लगते हैं. और हमारी इसी मानसिकता का असर समाज में साफ दिख रहा है. नेगेटिव कैंपेन, बॉयकॉट कॉल्स आए दिन दिमाग का दही करते रहते हैं. बेनाम अपना नाम करने को, मशहूर और मशहूर होने को आए दिन अपनी ‘सोशल बैटरी’ का इस्तेमाल इन कामों के लिए करते हैं. लोग सिर्फ प्रतिक्रियात्मक नहीं रहे उनके असंवेदनशीलता के कण भी सार्वजनिक होने लगे हैं.

अब इन्हें कौन समझाए कि…

जवाब देना जरूरी नहीं है. कोई पोस्ट पसंद ना हो तो उसे नजरअंदाज करने में ही सयानापन है. इन नेगेटिव पोस्ट्स पर प्रतिक्रिया देने से कहीं अच्छा है अमर चित्र कथा उठा के खुद पढ़ें और बच्चों को भी पढ़ के सुनाएं. सबसे पहली अमरचित्रकथा तो गांधी जी पर ही लें और पढ़ लें और सुना लें. राजू श्रीवास्तव अपने पीछे कॉमेडी शोज का जखीरा छोड़ कर गए हैं. तनाव कम करने के लिए उन्हें देखें.

सोशल मीडिया पर छोटे छोटे बच्चों की शैतानियों वाले और छोटे puppies/ नन्हें कुकरों की हरकतों वाले वीडियोज/रील/शॉर्ट्स देखें, मज़ा आएगा. क्या देखना है और क्या लिखना है, ये अपनी चॉइस का मामला है.

कबीर ऐसे ही थोड़े कह गए हैं…

बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलया कोय.

जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय.

इसलिए ना बुरा लिखो और न ही बुरे का जवाब और ज्यादा बुरा लिख के दो. इस के साथ बावरे मन की बात खतम और पैसा हजम!

थ्री ईडियट्स वाले रेंचो ने कहा था ‘ऑल इस वेल’. बावरा मन ‘ऑल इस वेल’ के पीछे का फलसफा जो समझा है वो है…

“चलो, ज़िंदगी जीने के लिए आज एक छोटा सा उसूल बनाते हैं, रोज कुछ अच्छा याद रखते हैं, और कुछ बुरा भूल जाते हैं…!

चलिए, इसी के साथ इस 2 अक्टूबर गांधीगिरी को अपनाते हैं. धन्यवाद