अंग्रेज़ों को नाकों चने चबवाने वाली बेगम हज़रत महल: विवेचना

बात 3 जुलाई, 1857 की है. लखनऊ के क़ैसरबाग़ महल के बाग़ में चाँदीवाली बारादरी की तरफ़ एक बड़ा जुलूस बढ़ रहा था. उस जुलूस के बीचों-बीच एक 14 साल का दुबला पतला, साँवला सा लड़का चल रहा था.

लड़के का नाम था बिरजिस क़द्र. वो एक साल पहले निर्वासित किए गए अवध के नवाब वाजिद अली शाह का बेटा था. उसकी माँ बेगम हज़रत महल उन नौ महिलाओं में शामिल थीं जिन्हें वाजिद अली शाह ने लखनऊ छोड़ने से पहले तलाक दे दिया था.

जुलूस का मक़सद था 14 साल के बिरजिस क़द्र को अवध का नया नवाब घोषित करना.

रोज़ी लिउलिन जोंस अपनी किताब ‘द ग्रेट अपराइज़िंग इन इंडिया: अनटोल्ड स्टोरीज़ इंडियन एंड ब्रिटिश’ में लिखती हैं, ‘अंग्रेज़ों का मानना था कि उनके ख़िलाफ़ विद्रोह करने वाले सिर्फ़ एक साँकेतिक जुलूस में भाग ले रहे थे, जबकि ये सच नहीं था. ये एक गंभीर घड़ी थी जिसने अंग्रेज़ों द्वारा अवध पर कब्ज़ा करने के बाद दरकिनार कर दिए गए समूह के नेताओं को एक साथ आने का मौका दिया था और वो छिन गए राज्य को दोबारा हासिल करने की फ़िराक में थे.’

दिल्ली, मेरठ और कानपुर के बाद अब लखनऊ में भी 1857 के विद्रोह की आग पहुंच चुकी थी. विद्रोह की पहली चिंगारी 30 मई, 1857 को भड़की थी जब शहर की मारियन छावनी के सैनिकों ने अफ़सरों के घरों में आग लगा दी थी और तीन ब्रिटिश सैनिकों की हत्या कर दी थी.