जब महिलाओं की शिक्षा, आजादी और अधिकारों की बात होती है..खासतौर पर मुस्लिम महिलाओं के. तो अफगानिस्तान की दुर्दशा सामने दिखाई देती है. वहां ना तो महिलाओं शिक्षा की आजादी है ना भविष्य बनाने की. धर्म के नाम पर रूढिवादी सोच के नीचे मुस्लिम महिलाओं का जीवन घुट रहा है. शुक्र है कि हम उस देश का हिस्सा नहीं! पर ऐसा नहीं कि यहां महिलाएं आज जिस माहौल में हैं. वे हमेशा से वैसी थीं.
भारत में भी महिलाओं को उनकी आज की स्थिति में पहुंचाने के लिए लंबे नारीवादी आंदोलन चले, तब जाकर अब कार्यक्षेत्र और कार्यबल में महिलाएं पुरूषों के साथ दिखाई दे रही हैं. जब भी नारीवादी आंदोलनों की सफलता पर बात होती है तो एक महिला याद आती है. एक महिला जो मुस्लिम थी, एक महिला जिसे शिक्षा चाहिए थे और दूसरों तक उसे पहुंचाना भी था! एक महिला जो ना डरी ना डरने दिया. एक महिला जिसने भारत में पहले महिला मुस्लिम स्कूल की नींव रखी. नाम है-रोकैया सखावत हुसैन, या बेगम रोकैया!
लेडीलैंड की दुनिया
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एक दुनिया जहां पर्दा प्रथा नहीं है. एक दुनिया जहां महिलाएं आजादी की सांस ले रही हैं, वे शिक्षित हैं, विकास के पथ पर हैं… वे अपनी मर्जी से जीवन के निर्णय ले रही हैं… उन्हें घूमने फिरने की आजादी है, कोई बंधन नहीं कोई रोकटोक नहीं. ये दुनिया है लेडीलैंड! ख्यालों की इस दुनिया को बेगम रोकैया ने अपनी किताब सुल्तानाज़ ड्रीम में और विस्तार दिया है.
रोकैया, अपने ज़माने के चुनिंदा साइंस फिक्शन लेखकों में से एक थीं. रोकैया का मानना था कि कोलोनियल भारत में रहने वाली महिलाएं – खासतौर पर मुस्लिम महिलाओं के लिए नियति ने जो कुछ भी लिखा है, वे उससे ज़्यादा की हकदार हैं. वैसे रोकैया मूलरूप से बंगाली समाजिक कार्यकर्ता और शिक्षिका थीं. उनका जन्म 1880 में बंगाल प्रेसीडेंसी के रंगपुर में एक बंगाली मुस्लिम परिवार में हुआ था.
वह दौर ही ऐसा था जब महिलाएं पुरूषों के आदेशों के अधीन थीं. परिवार आर्थिक रूप से सम्पन्न था फिर भी वहां बेटियों को बेटो जैसी शिक्षा पाने का अधिकारी नहीं माना गया. इसलिए वे अपनी पिता की इजाजत से केवल उर्दु सीखने जाती थीं. पर ये सिर्फ दिखावा था. रोकैया अपनी बहन के साथ उर्दु क्लास के बहाने दूसरी भाषाओं को पढ़ना और लिखना सीखने लगी थीं.
स्कूल की क्लास के बाहर चोरी छिपे वे सारे विषयों का ज्ञान हासिल करती रहीं. रोकैया की बहन करीमुन्नेसी का मन साहित्य में था पर पिता ने 14 साल की होते ही उनका निकाह कर दिया. अपनी बहन को अपने सपनों से यूं समझौता कर देख रोकैया का दिल टूट गया. क्योंकि घर में अब उनकी शादी की बारी थी. 1898 में जब रोकैया 18 साल की हुईं, तो उनकी शादी के प्रस्ताव आए.
पति का मिला साथ
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रोकैया के दिल की बात केवल उनके बड़े भाई इब्राहिम समझते थे. वे जानते थे कि रोकैया घर की चारहदीवारी में कैद होकर जीवन नहीं जी पाएगी. इसलिए उन्होंने ऐसे परिवार की तलाश की जहां रोकैया के सपनों की कद्र हो सके. भागलपुर (बिहार) के रहने वाले अंग्रेज़ी सरकार के अफसर खान बहादुर सखावत हुसैन के साथ रोकैया का निकाह हो गया.
हालांकि खान साहब की उम्र 40 साल थीपर रोकैया ने रिश्ता कबूल कर लिया. पति खान ने युवा रोकैया को पढ़ने का मौका दिया. इसके साथ ही उन्होंने रोकैया को सामाज सेवा के लिए भी प्रोत्साहित किया. बेगम रोकैया के साहित्यिक करियर की शुरुआत साल 1902 में हुई, जब उन्होंने ‘पिपासा (प्यास)’ नाम से एक बंगाली निबंध लिखा. इसके बाद 1905 में ‘मातीचूर’ नाम की उनकी एक किताब आई. ‘सुल्तानाज़ ड्रीम’ लिखने के साथ ही रोकैया उस दौर की चर्चित महिला लेखिकाओं में शामिल हो गईं.
पति का साथ मिला तो उन्होंने मुस्लिम बच्चियों को घर में कोचिंग देना शुरू किया. इसके साथ ही उन्हें साहित्य के बारे में भी सीख देती रहीं. 1909 मेंअचानक पति का निधन हो गया, जिसके बाद रोकैया के पास परिवार में कोई नहीं रहा. इसके बाद उन्होंने अपना पूरा वक्त बच्चियों की शिक्षा, महिला हिंसा के विरोध और नारीवादी आंदोलन को दे दिया.
फिर शुरू हुआ विरोध
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रोकैया परिवार में अकेली महिला रह गईं थीं. उनके काम महिलाओं के भीतर चेतना पैदा कर रहे थे पर पुरूषवादी विचारधारा को कहां ये रास आने वाला था. इसलिए उनका विरोध शुरू हो गया. रोकैया की धमकियां दी गईं कि वे बच्चियों को शिक्षा देने का मनसूबा तत्काल त्याग दें वरना परिणाम अच्छे नहीं होंगे. इसके बाद भी उन्होंने अपना लक्ष्य नहीं त्यागा.
रोकैया ने पति के बचे हुए पैसों से मुस्लिम महिलाओं और बच्चियों के लिए पहला स्कूल खोला. यह पहला मौका था जब मुस्लिम महिलाओं की शिक्षा की तरफ इतना सख्त कदम उठाया गया हो. स्कूल खुलने के बाद उनके अपने धर्म के लोगों ने विरोध शुरू कर दिया. बिरादरी से बाहर निकाल देने की बात हुई पर रोकैया ने स्कूल बंद करने से इंकार कर दिया. इसके बाद बच्चियों को स्कूल जाने से रोका गया. पर रोकैया घर घर गईं और मुस्लिम बच्चियों को हिफाजत के साथ स्कूल लेकर आईं और फिर उन्हें सुरक्षित घर छोड़ने जाया करतीं. इस तरह भागलपुर में मुस्लिम लड़कियों के लिए भारत का पहला स्कूल खुला.
पर धीरे—धीरे विरोध तेज हो गया और इस स्कूल को कोलकता शिफ़्ट करना पड़ा. आज भी यह स्कल वैसे ही चल रहा है. अब तो ये कोलकाता के सबसे मशहूर कन्या विद्यालयों में से एक है. 1911 में आठ छात्राओं के साथ यह स्कूल शुरू हुआ था और अब यहां सैकड़ों बच्चियां शिक्षा ले रही हैं.
रोकैया ने अपनी किताब में लिखा है कि जब भी कोई महिला अपना सिर उठाने की कोशिश करती है, तो तरह-तरह के भावनात्मक हथियारों से उन पर वार किया जाता है. पुरुष हमें अज्ञानता के अंधेरे में डालकर, वश में करने के लिए शास्त्रों को ईश्वर की आज्ञा के रूप में प्रचारित करते हैं. जबकि असल में वे ग्रंथ कुछ और नहीं, बल्कि पुरुषों द्वारा बनाई गई एक प्रणाली है.
1932 में पाकिस्तान और बांग्लादेश के निर्माण से बहुत पहले बेगम रोकैया का निधन हो गया. उन्होंने अपने पूरे जीवनभर बार-बार कहा, “किसी भी जाति-धर्म के पुरुष संत जो बातें करते हैं, वही बातें अगर कोई महिला कहती, तो उसके शब्द, पुरुषों से बिल्कुल अलग होते. हम उम्मीद करते हैं कि धीरे धीरे ही सही पर ‘सुल्तानाज़ ड्रीम’ को पूरा जरूर करेंगे.