आप दूध लाने घर से निकले हैं और रास्ते में आपको याद आता है कि दूध की दुकान तो आज बंद रहती है. आपको यह भी पता है कि आप जहां से दूध खरीदते हैं, वहां आसपास और कोई दुकान नहीं है.
ये समझ लेने के बाद भी कि आपके आगे जाने का कोई फ़ायदा नहीं है, आप बढ़ते जाते हैं. आप उस दुकान तक पहुंच जाते हैं, जिसके बंद होने के बारे में आपको पहले से पता था.
आप आधे रास्ते से लौट सकते थे, लेकिन आप लौटे नहीं. ये वो मूर्खता है जो लोग अक्सर करते हैं. पैसे के मामले में भी कई फ़ैसले इसी मूर्खतापूर्ण तरीक़े से लिए जाते हैं.
जुआरी हारे हुए पैसे को वापस जीतने के लिए दांव पर दांव लगाते जाते हैं.
ब्रिटेन में एक कहावत है कि ‘डूबे हुए पैसे के लिए बचे हुए पैसे मत फेंको.’ अर्थशास्त्री इसे ‘डूब लागत भ्रम’ कहते हैं.
ये दुनिया में हर जगह होता है. हम सभी ऐसा करते हैं. आप कोई फिल्म देखने जाते हैं और पहले 10 मिनट में ही पता चल जाता है कि फ़िल्म बेकार है फिर भी उसे आख़िर तक देखते रहते हैं.
कोई टीवी सीरियल पिछले सीज़न आपको अच्छा लगा था, इसलिए नये सीजन में भी आप उसे देखते हैं, भले ही इस बार वो अच्छा ना हो.
वो राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय ख़बरें जो दिनभर सुर्खियां बनीं.
ड्रामा क्वीन
समाप्त
आप पुरानी कार को नहीं बेचते और उसकी कीमत से भी ज़्यादा पैसे लगाकर बार-बार ठीक कराते रहते हैं.
कोई रिश्ता बिगड़ गया हो, फिर भी अलग होने का फ़ैसला करने की जगह साथ रहते जाते हैं.
ये सब डूबे हुए को उबारने के लिए और डूबते जाने के उदाहरण हैं. लोग इस उम्मीद में अपना समय और पैसा फूंकते जाते हैं कि चीज़ें ठीक हो जाएंगी. लेकिन ऐसा हो नहीं पाता है.
लोग घाटा सहने को तैयार नहीं होते. हम बिना सोचे-विचारे ऐसे प्रोजेक्ट में पैसा और समय लगाते रहते हैं जो काम नहीं कर रहा. हम उसे छोड़कर आगे नहीं बढ़ पाते. हम आशावादी बने रहते हैं और नाकामी को मंज़ूर नहीं कर पाते.
जानवरों में भी यह प्रवृत्ति होती है. यूनिवर्सिटी ऑफ़ मिनेसोटा के एक नये शोध से पता चला कि चूहे भी इंसान की तरह इंतज़ार और इनाम के चक्कर में फंस जाते हैं.
जब चूहे को उनका पसंदीदा भोजन मिलने में देर होती है तो अगली बार भोजन पाने से पहले उनके वहां से चले जाने की संभावना नहीं के बराबर होती है. जैसे-जैसे अंतराल बढ़ता है, वे ज़्यादा देर तक इंतज़ार करने के आदी हो जाते हैं.
आर्थिक मामलों में मूर्खतापूर्ण फ़ैसलों के पीछे भी यही लालच होता है.
जीतने का भ्रम
डूब चुके पैसे को वापस पाने की ज़िद के विनाशकारी परिणाम हो सकते हैं.
किसी छोटी कंपनी में यदि किसी कर्मचारी की ट्रेनिंग पर महीनों ख़र्च किए गए हैं तो उसे नौकरी से निकालने में झिझक होती है, भले ही वह कर्मचारी कभी काम लायक नहीं बन पाए.
भविष्य के संभावित मुनाफ़े के बारे में सोचते रहने का अर्थ है उस पैसे को भूल जाना जो पहले ही ख़र्च किया जा चुका है और जिसे दोबारा हासिल नहीं किया जा सकता.
यदि आपने किसी प्रोजेक्ट पर 10 मिलियन पाउंड लगाए और काम नहीं बना तो आप उस पर पांच मिलियन डॉलर और ख़र्च कर देते हैं.
पैसे लगाते वक़्त आप यह सोचते हैं कि 5 मिलियन पाउंड से कितना मुनाफ़ा कमाया जा सकता है. लेकिन असल में आपने कुल 15 मिलियन पाउंड का निवेश किया है.
आप यह मंज़ूर नहीं करना चाहेंगे कि आपका पहले का निवेश काम नहीं आया और आपने ग़लती की थी. आप उस प्रोजेक्ट को आसानी से छोड़ नहीं पाते.
नोबेल पुरस्कार से सम्मानित अर्थशास्त्री डैनियल कहनेमन ने अपनी किताब ‘थिंकिंग फास्ट एंड स्लो’ में यह परिकल्पना की है जब कोई प्रोजेक्ट डूब रहा हो तो उस समय डूबते पैसे को उबारने के लिए ही मैनेजमेंट में बदलाव होते हैं, सलाहकार नियुक्त किए जाते हैं.
यह ज़रूरी नहीं कि नये मैनेजर पिछले मैनेजरों से ज़्यादा काबिल हों. नये लोग सिर्फ इसलिए लाए जाए जाते हैं क्योंकि वे किसी से जुड़े नहीं होते और फ़ैसले लेने में हिचकते नहीं.
जैसे कोई जुआरी हारे हुए पैसे के पीछे भागता है और दांव पर दांव लगाता जाता है, वैसे ही डूबे हुए पैसे के फंदे में फंसा व्यक्ति यह दिखावा करता रहता है कि वह जीत रहा है.
‘कपटी कारोबारी’ के नाम से बदनाम निक लीज़न ने 1995 में कुछ ग़लत सौदे किए. उनसे उबरने के लिए ही उसने एक के बाद एक ग़लतियां कीं, जो अंत में बेरिंग्स बैंक के पतन का कारण बनी.
सियासी शाहखर्ची
डूबे हुए पैसे को निकालने के लिए किए जाने वाले बेवकूफ़ी भरे फ़ैसले कंपनियों को और घाटा पहुंचाते हैं. उनके पैसे बर्बाद होते हैं. बाज़ार में उनकी हिस्सेदारी घटती है और अंत में वे एक जगह पर ठहर जाती हैं.
राजनीतिक फ़ैसलों से जुड़ी परियोजनाओं में फ़ैसलों को जांचने और सुधारने का सिस्टम मौजूद नहीं होता. यू-टर्न लेने वाले नेता को कमज़ोर माना जाता है, इसलिए ख़र्चीली परियोजनाएं चलती रहती हैं.
दुनिया भर में ऐसे उदाहरण बिखरे हुए हैं. सार्वजनिक सुविधाओं वाली परियोजनाएं बजट से ज़्यादा ख़र्च के लिए बदनाम हैं.
ब्रिटेन में हाई स्पीड रेल-2 परियोजना परअनुमान से 50 अरब पाउंड से ज़्यादा ख़र्च हो चुका है. फिर भी अभी तक यह परियोजना पूरी नहीं हुई है.
जापान में बुनियादी सुविधाओं पर ख़र्च में बेतहाशा बढ़ोतरी होती रहती है. यहां कई परियोजनाएं अर्थव्यवस्था के लिए मददगार नहीं हैं. कई पुल तो ऐसे बना दिए गए हैं, जिनकी ज़रूरत ही नहीं थी.
अमरीका में मादक द्रव्यों के ख़िलाफ़ सरकारी नीति ने कई लोगों को जेल पहुंचाया. इसके लिए बड़े-बड़े क़ैदख़ाने बनाने पड़े.
लेकिन सिर्फ़ ड्रग्स की आपूर्ति रोकने पर ध्यान देने से मादक द्रव्यों के इस्तेमाल और इसके साइड इफ़ेक्ट्स को नहीं रोका जा सका. अमरीकी आज भी इससे बुरी तरह प्रभावित हैं और कांग्रेस को इस बीमारी को ख़त्म करने में जूझना पड़ रहा है.
बुरे फ़ैसलों के कारण डूबे हुए धन के कुचक्र ने जो फ़ैसले कराए हैं उनसे अरबों-ख़रबों का नुकसान हुआ है. सरकारी ख़जाने को तो नुकसान हुआ ही, निजी तौर पर भी इससे घाटे हुए हैं.
लोग अपनी बचत का बड़ा हिस्सा ऐसी जगह ख़र्च कर देते हैं, जहां से कोई लाभ नहीं होने वाला.
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भ्रम से कैसे बचा जाए
डूब लागत भ्रम के बड़े दुष्परिणाम हैं- माइक्रो लेवल पर भी और मैक्रो लेवल पर भी. व्यक्तिगत भी और राजनीतिक स्तर पर भी.
बिज़नेस लीडर और सियासी नेता जब ऐसी ग़लतियां करें तो उनको ज़िम्मेदार ठहराने से मदद मिल सकती है. लेकिन इन गड्ढों में गिरने से बचा कैसे जाए?
लीडेन यूनिवर्सिटी के मनोचिकित्सक डॉक्टर जिम एवरेट कहते हैं कि हम सब इन फंदों में फंस जाते हैं, लेकिन जब हम विकल्पों पर सोचना शुरू करते हैं तो घाटा कुछ हद तक कम कर सकते हैं.
किसी फ़ैसले पर पहुंचने से पहले ख़ुद से पूछिए कि अगर मैं अपने पहले फ़ैसले पर क़ायम रहता हूं तो मुझे क्या नफ़ा और कितना नुकसान होगा और अगर मैं इसे छोड़ देता हूं तो क्या होगा.
इसके बाद भी शक रह जाए तो डॉक्टर एवरेट की सलाह होती है कि शुरू से लेकर अब तक के अपने सारे फ़ैसलों के बारे में सोचिए जिसने आपको यहां तक पहुंचाया है. आपके फ़ैसले जिन तथ्यों पर आधारित थे, उनकी सत्यता भी परखना ज़रूरी है कि वे सही थे भी या ग़लत थे.
डॉक्टर एवरेट कहते हैं, “यदि फिर भी मुझे लगता है कि मेरा फ़ैसला सही था तो मैं उस पर टिका रहूंगा. यदि नहीं लगता तो मैं फ़ैसला बदल लूंगा.”
आख़िर में जुए का पहला सबक़ ही काम आता है. एक अच्छे जुआरी को पता रहता है कि दांव कब छोड़ देना चाहिए.
सब कुछ लुटाके होश में आने का क्या फ़ायदा?