दूसरे विश्व युद्ध के बाद जब अंग्रेजों ने भारत को छोड़ने का मन बनाया तो भारत की कई रियासतों ने आजाद रहने का सपना देखा था. आज कहानी एक ऐसी ही रियासत की, जिसकी कमान सैफ अली खान के नाना हाजी नवाब हाफिज सर हमीदुल्लाह खान के हाथों में थी. इस रियासत की एक पहचान यह भी है कि यहां करीब 100 साल तक महिला शासकों का राज रहा. मौजूदा समय में हम इसे झीलों का शहर भी कहते हैं. हम भोपाल रियासत की बात कर रहे हैं, जिसने आजादी के दो साल बाद तक अपने यहां भारत का तिरंगा झंडा नहीं लहराया था.
भोपाल रियासत की भारत में विलय की कहानी
इतिहासकार रामचंद्र गुहा अपनी किताब ‘इंडिया आफ्टर गांधी’ में लिखते हैं कि भोपाल के नवाब को जैसे ही पता चला कि अंग्रेज भारत छोड़कर जाने की तैयारी कर रहे हैं उसने नवंबर 1946 को एक शीर्ष ब्रिटिश अधिकारी को एक खत लिखा था. अपने इस खत में नवाब ने अपनी रियासत और वहां के लोगों को लेकर चिंता जाहिर की थी, लेकिन इसका अंग्रेजों पर कोई असर नहीं पड़ा. हुआ वही, जो अंग्रेजों ने प्लान किया था.
अंग्रेजों ने माउंटबेटन को भारत की जिम्मेदारी दी और सत्ता परिवर्तन की कार्रवाई पूरी करने को कहा. कुर्सी पर बैठते ही माउंटबेटन सक्रिय हो गए और उन्होंने वही किया जो उन्हें निर्देशित किया गया था. बताया जाता है कि जुलाई 1947 में माउंटबेटन ने भोपाल के नवाब और अपने दोस्त हमीदुल्लाह खान को एक खत लिखा और उन्हें सुझाव दिया कि उन्हें भारत के साथ अपनी रियासत का विलय कर देना चाहिए. इसी में उनकी और उनकी प्रजा की भलाई है. खत पढ़कर नवाब को भरोसा नहीं हुआ कि उनके दोस्त माउंटबेटन ने उनकी पसंद के विपरीत सुझाव दिया था.
नवाब के काम नहीं आई माउंटबेटन की दोस्ती
पत्र का जवाब देते हुए नवाब ने माउंटबेटन को अपनी दोस्ती याद दिलाई थी. नवाब ने याद दिलाया था कि वो और माउंटबेटन कैसे साथ में पोलो खेला करते थे. नवाब ने उन घटनाओं का जिक्र भी किया जब उन्होंने ब्रिटिश हुकूमत का साथ दिया था. साथ ही नवाब ने गुस्सा जाहिर करते हुए साफ शब्दों में लिखा था कि अगर ब्रिटिश हुकूमत उसकी मदद नहीं करेगी तो भारत में कांग्रेस का नहीं बल्कि कम्युनिस्टों का राज होगा.
कहते हैं, नवाब भारत के साथ जाने के लिए इसलिए नहीं तैयार था क्योंकि उसे कांग्रेस पार्टी पसंद नहीं थी. उसका पंडित नेहरू और गांधी से अधिक मोहम्मद अली जिन्ना और मुस्लिम लीग में भरोसा था.
यही कारण है कि नवाब अपने पत्र के जरिए जाहिर कर चुका था कि वो स्वतंत्र रहना चाहता हैं. उसने माउंटबेटन की उस मीटिंग से भी दूरी बना ली थी जिसमें सभी रियासतों के प्रतिनिधियों को बुलाया गया था. नवाब ने हर तरह से अंग्रेजों पर दवाब बनाने की कोशिश की, लेकिन बात नहीं बनी.
31 जुलाई को माउंटबेटन ने नवाब को एक और खत लिखा और उनकी हर दलील का कड़ा जवाब दिया. साथ ही नवाब को अपने फैसले पर विचार करने के लिए कहा था. माउंटबेटन ने कड़े शब्दों में अपने पत्र में लिखा था कि दो देशों के बीच में मौजूद भोपाल एक स्वतंत्र स्टेट बनकर नहीं रह सकती है. नवाब को जिद छोड़नी होगी.
26 अगस्त 1947 को विलय पर सहमति बनी
माउंटबेटन के इस पत्र के बाद नवाब समझ चुका था कि अब दाल गलने वाली नहीं है. क्योंकि, दूसरी रियासतों का भारत में तेजी से विलय शुरू हो चुका है. आज़ादी का दिन नज़दीक आने के वक्त तक किसी एक विकल्प के साथ जाना उसकी मजबूरी बन चुकी थी. 15 अगस्त 1947 तक भोपाल समेत हर एक रियासत को उस कागज पर हस्ताक्षर करने थे, जिसमें भारत के साथ उनकी रियासत के विलय की बात लिखी थी.
तेजी से वक्त निकल रहा था, ऐसे में भोपाल के नवाब ने चतुराई दिखाते हुए सहमति पत्र पर हस्ताक्षर करने के लिए 10 दिन का अतिरिक्त समय मांगा था, जिसके लिए सरदार पटेल तैयार नहीं थे. बाद में माउंटबेटन ने इसका तोड़ निकाला और भोपाल के नवाब से कहा था कि आप 14 अगस्त तक हस्ताक्षर कर दीजिए. बाकी कागज हम पंडित नेहरू के नेत़त्व वाली भारत सरकार को 26 अगस्त 1947 को ही देंगे.
2 साल तक भारत का तिरंगा नहीं फहराने दिया
जानकार बताते हैं कि नवाब ने मजबूरी में भारत के साथ विलय होने की सहमति दे दी थी. लेकिन, उसके मन में कुछ और ही चल रहा था. अंदर ही अंदर वो भोपाल को स्वतंत्र रियासत बनाने की जुगाड़ में लगा हुआ था. 26 अगस्त 1947 को उसने भारत में शामिल होने का ऐलान कर दिया था, बावजूद इसके उसने अगले करीब दो साल तक भोपाल में भारत का तिरंगा नहीं फहराने दिया.
लगातार वो भारत सरकार से भोपाल को अलग स्वतंत्र राज्य घोषित करने पैरवी करता रहा, लेकिन उसकी सारी कोशिशें उस वक्त बेकार हो गईं, जब भोपाल की जनता ही उसके खिलाफ हो गई. दिसंबर 1948 में नवाब के खिलाफ भोपाल में एक जनआंदोलन शुरू हुआ था, जिसकी अगुवाई शंकरदयाल शर्मा, भाई रतन कुमार गुप्ता जैसे नेताओं ने की. नवाब के लोगों ने इस आंदोलन को कुचलने की खूब कोशिश की.
1949 में आधिकारिक रूप से भारत में शामिल हुई
यहां तक कि आंदोलनकारियों पर गोलियां तक चलाई गईं, मगर लोग पीछे नहीं हटे. भोपाल की स्थिति बिगड़ते देख सरदार पटेल ने वीपी मेनन (सचिव, रियासत विभाग) को भोपाल भेजा और नवाब से बात करने को कहा. वीपी मेनन ने इस काम को बखूबी निभाया और नवाब को झुकना ही पड़ा था. इस तरह 1 जून 1949 तक यह रियासत आधिकारिक रूप से भारत में शामिल हुई और भोपाल में भारतीय तिरंगा लहराया गया था.