15 अगस्त, 1969 को भारतीय अंतरिक्ष कार्यक्रम के शिल्पकार वैज्ञानिक डॉ. विक्रम साराभाई की अगुआई में भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) की स्थापना हुई. साराभाई का सपना था – दूरसंचार, शिक्षा, मौसम विज्ञान, नौवहन आदि क्षेत्रों में राष्ट्रीय हित के मद्देनजर अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी का विकास करना. साराभाई के नेतृत्व में भारतीय अंतरिक्ष कार्यक्रम अपनी शैशव अवस्था में ही नई ऊंचाइयों को छू रहा था, उसकी शुरुआती उपलब्धियां विकसित देशों के लिए भी चौंकाने वाली थीं. लेकिन 30 दिसंबर, 1971 को महज 52 साल की उम्र में साराभाई का अचानक निधन हो गया. उनकीआकस्मिक मृत्यु से भारतीय अंतरिक्ष कार्यक्रम मानो पितृहीन-सा हो गया. अब इसरो को साराभाई के सपनों को साकार करने वाले किसी ऐसे ईश की जरूरत थी, जो भारतीय अंतरिक्ष कार्यक्रम के लिए सतीश बनकर आए.
तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के प्रधान सचिव पीएन हक्सर को यह विश्वास था कि एक ऐसा सतीश भारत के पास है जो बीच मंझधार में फंसे इसरो की कमान संभालकर वैज्ञानिकों के मनोबल को दोबारा बढ़ा सकता है. पीएन हक्सर की सलाह पर इंदिरा गांधी ने भारतीय विज्ञान संस्थान (आईआईएससी) के तत्कालीन निदेशक प्रोफेसर सतीश धवन, जो कैल्टेक, अमेरिका में अध्यापक के रूप में काम कर रहे थे, को एक लंबा तार (टेलीग्राम) भिजवाकर भारत वापस लौटने और साराभाई की विरासत (इसरो) संभालने को कहा. देशप्रेमी सतीश धवन इस दायित्व को संभालने के लिए राजी हो गए, लेकिन उन्होंने इंदिरा गांधी के सामने विनम्रतापूर्वक अपनी तीन शर्तें भी रखीं.
पहली, उन्हें आईआईएससी, बेंगलुरु के निदेशक पद पर बने रहने दिया जाए. दूसरी, भारतीय अंतरिक्ष कार्यक्रम के मुख्यालय को अहमदाबाद से बेंगलुरु स्थानांतरित किया जाए. और तीसरी शर्त यह थी कि भारत लौटने से पहले उन्हें कैल्टेक (कैलिफोर्निया इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी) में तब तक अध्यापन कार्य करने दिया जाए, जब तक कि छात्रों का कोर्स पूरा न हो जाए. इससे आईआईएससी और शिक्षा के प्रति उनके प्रेम का पता चलता है. प्रो. धवन के इस प्रेम का सम्मान करते हुए इंदिरा गांधी ने इन तीनों शर्तों को सहर्ष स्वीकार कर लिया और तकरीबन 4 महीने बाद स्वदेश लौटने पर सितंबर 1972 में उन्होंने भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संस्थान का कामकाज संभाल लिया.
पद ग्रहण करने के बाद उन्होंने डॉ. विक्रम साराभाई के सपने को साकार करने की दिशा में काम करना शुरू किया. कालांतर में प्रो. धवन के नेतृत्व में भारत के अंतरिक्ष कार्यक्रम ने नए कीर्तिमान और मील के पत्थर कायम किए. देश के अंतरिक्ष कार्यक्रम को नई ऊँचाईयों पर पहुँचाने वाले और साराभाई के सपने को साकार करने वाले इन्हीं प्रो. सतीश धवन का आज जन्मदिन है. भारत का अंतरिक्ष कार्यक्रम विकसित करने में प्रो. धवन की भूमिका उन्हें स्वतंत्र भारत के सर्वाधिक प्रभावशाली व्यक्तियों में से एक बनाती है.
बहुमुखी प्रतिभा के धनी सतीश धवन का जन्म आज ही के दिन 1920 में श्रीनगर, जम्मू-कश्मीर में एक संपन्न परिवार में हुआ था. उनके पिता देवी दयाल लाहौर हाई कोर्ट में जज थे. उनका लालन-पालन और प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा श्रीनगर की खूबसूरत वादियों में संपन्न हुई.
धवन ने पंजाब यूनिवर्सिटी, लाहौर से भौतिकी और गणित में बी.ए. और अंग्रेजी साहित्य में एम.ए. की डिग्री प्राप्त की. अमेरिका की यूनिवर्सिटी ऑफ मिनेसोटा से 1945 में मैकेनिकल इंजीनियरिंग में बी.ई और कैल्टेक से 1947 में एयरोनॉटिकल इंजीनियरिंग में एम.एस. की डिग्री अर्जित करने के बाद 1951 में कैल्टेक से ही फ्लूइड मैकेनिक्स क्षेत्र के विश्व विख्यात वैज्ञानिक और इंजीनियर हेंस डब्लू लीपमैन के मार्गदर्शन में सतीश धवन ने गणित और एयरोस्पेस इंजीनियरिंग से डबल पी-एचडी डिग्रियाँ अर्जित कीं. विज्ञान, गणित, साहित्य और इंजीनियरिंग के इस अनोखे संगम से जिस अनूठी शख़्सियत का निर्माण हुआ उसमें जहां एक तरफ चिंतन में गहरी स्पष्टता थी, वहीं दूसरी तरफ अभिव्यक्ति में साफगोई थी. उनमें सामाजिक मूल्यों और राष्ट्र के प्रति भी गहरी प्रतिबद्धता थी.
बेंगलुरु को बनाई अपनी कर्मभूमि 1951 में स्वदेश लौटने के बाद धवन ने आईआईएससी, बेंगलुरु के एयरोनॉटिक्स डिपार्टमेंट में वरिष्ठ वैज्ञानिक के रूप नियुक्ति प्राप्त की. सराहनीय कार्यों और उपलब्धियों की बदौलत चार सालों के भीतर धवन प्रोफेसर और एयरोनॉटिक्स डिपार्टमेंट के प्रमुख बन गए. इस दौरान उन्होंने अपनी देखरेख में भारत के पहले सुपरसॉनिक विंड टनल का निर्माण कराया. प्रो. धवन ने भारत में एक्सपेरिमेंटल फ्लूइड डायनामिक्स के क्षेत्र में अनुसंधान की नींव रखी. आईआईएससी में ही कार्यरत निपुण साइटोजेनेटिकिस्ट नलिनी निरोदी से 1956 में उन्होंने प्रेम विवाह किया. 1962 में सराहनीय उपलब्धियों और योगदान के चलते उन्हें महज 42 साल की उम्र में आईआईएससी का निदेशक बना दिया गया. उन्होंने निदेशक बनते ही सकारात्मक रूप से संस्थान का कायापलट ही कर दिया.
प्रसिद्ध इतिहासकर रामचंद्र गुहा के मुताबिक ‘उन दिनों यह जगह धीरे-धीरे अकादमिक ऊंघ वाली आरामतलब अवस्था में परिवर्तित होती जा रही थी. सतीश धवन ने उसे उंघाई से जगाया और आईआईएसी को भारत का शीर्ष अनुसंधान केंद्र बना दिया.’ आईआईएससी में प्रो. धवन ने मॉलीक्युलर बायोफीजिक्स, माइक्रोबायोलॉजी, एटमोस्फियरिक साइंस, सॉलिड स्टेट केमिस्ट्री, इकॉलॉजी जैसे विषयों पर कई इंटरडिसिप्लिनरी लैब्स शुरू करवाएँ और साथ ही उनके कार्यान्वयन में सामाजिक और राष्ट्रीय विकास का भी विशेष ध्यान रखा. उन्होंने आईआईएमसी में अपने देश के अलावा विदेशों से भी युवा और प्रतिभाशाली वैज्ञानिकों को शिक्षण/अनुसंधान के लिए आमंत्रित किया. प्रो. धवन के शुरुआती छात्रों में से एक रोडम नरसिम्हा लिखते हैं कि ‘धवन ने संस्थान को युवाओं वाली ताज़गी, आधुनिकता, तत्परता और कैलिफ़ोर्निया की अनौपचारिकता से भर दिया, जिसने छात्रों और कई साथियों को मोहित किया. कम शब्दों में कहें तो वे परिसर में सबसे ज्यादा चहेते व्यक्ति थे.’
प्रेरणादायी शिक्षक प्रो. धवन ने एक साथ कई-कई जिम्मेदारियाँ निभाईं. उन्होंने वैज्ञानिक अनुसंधान, सामाजिक विकास, इंजीनियरिंग, विज्ञान कर्मियों का प्रशिक्षण, विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी नीति निर्माण, प्रशासन, विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी संस्थानों के निर्माण और मौजूदा संस्थानों के कायापलट में बेहद अहम योगदान दिया. लेकिन उनके करिबियों के मुताबिक उनकी नैतिकता, अनुशासन और उत्कृष्टता को ध्यान में रखते हुए उन्हें मूल रूप से एक प्रेरणादायी शिक्षक माना जाना चाहिए. वास्तव में वे स्वयं भी अपने आप को एक शिक्षक ही मानते थे. 1971-72 में प्रो. धवन आईआईएससी से 1 साल का सब्बैटिकल अवकाश लेकर विजिटिंग प्रोफेसर के रूप में कैल्टेक, अमेरिका में अध्यापन करने लगे. इस दौरान उन्होंने दुनिया भर के विभिन्न देशों के लिए अनेक मेधावी वैज्ञानिक और इंजीनियर तैयार किए. वहीं उन्हें एक दिन तत्कालीन प्रधानमंत्राी इंदिरा गांधी का एक लंबा तार मिला जिसमें उन्हें भारत वापस लौटने और भारतीय अंतरिक्ष कार्यक्रम की कमान संभालने के लिए कहा गया था. जवाबी तार में प्रो. धवन ने तीन शर्तें रखीं थीं, जिसमें से एक शर्त यह थी कि वे कोर्स के अध्यापन कार्य को पूरा किए बिना वह भारत वापस नहीं आ सकेंगे. भारत सरकार द्वारा शिक्षा के प्रति उनके प्रेम को सम्मान दिया गया और उनके सभी शर्त स्वीकार कर लिए गए.
उत्कृष्ट योजनाकार और सजग प्रशासक आखिरकार भारत, इसरो और सतीश धवन तीनों के लिए वह शुभ दिन 1972 में आया जब प्रो. धवन ने इसरो अध्यक्ष के रूप में भारतीय अंतरिक्ष कार्यक्रम के जनक विक्रम साराभाई की विरासत को संभाला. इसके अलावा उन्हें नवस्थापित अंतरिक्ष आयोग का प्रमुख और अंतरिक्ष विभाग का सचिव भी नियुक्त किया गया. इन तीनों पदों को प्रो. धवन ने पूर्ण निष्ठा और गरिमा के साथ संभाला. साराभाई के बाद भारतीय अंतरिक्ष कार्यक्रम की बागडोर संभालते हुए प्रो. धवन ने साराभाई के प्रयासों को बेहद चतुराई के साथ नियोजित किया और उनके सपनों को एक ठोस आकार दिया. प्रो. धवन ने भारतीय अंतरिक्ष कार्यक्रम को असाधारण विकास और शानदार उपलब्धियों के साथ निर्देशित किया. वे उत्कृष्ट योजनाकार, सजग प्रशासक और संवेदनशील व्यवस्थापक थे.
प्रो. धवन ने अपनी दूरदर्शिता की बदौलत एक सरकारी व्यवस्था के भीतर भी एक बहु-विषयक और तकनीकी रूप से जटिल अंतरिक्ष कार्यक्रम का प्रबंधन पूरी मुस्तैदी के साथ पूरा किया. वैज्ञानिक आर. अर्वामुदन प्रो. धवन के इसरो आने और फलस्वरूप संस्था में हुए कायापलट के बारे में अपनी किताब ‘इसरो: ए पर्सनल हिस्ट्री’ में लिखते हैं, ‘हमारे नए प्रमुख एक सम्माननीय और विलक्षण बौद्धिक ईमानदारी वाले व्यक्ति थे. उन्होंने खरी आलोचना को बढ़ावा दिया. उनमें योग्यता को पहचानने की अद्भुत खूबी थी. साराभाई के काम करने का तरीका तब तक ठीक थी जब तक ढांचा ढीला-ढाला और विकास की प्रक्रिया में था. लेकिन अब हमें चीजों को अपनी जगह पर व्यवस्थित करने और परियोजनाओं को जमीन पर उतारने की आवश्यकता थी. व्यवस्थित नजरिए और अपने काम से काम रखने वाले धवन इस काम के लिए बिलकुल ठीक थे.’
विक्रम साराभाई के सपने को किया साकार साराभाई ने एक ऐसे भारत का सपना देखा था, जो कृत्रिम उपग्रहों के विकास व प्रमोचन में समर्थ हो और अत्याधुनिक तकनीकों के साथ तालमेल बैठाते हुए अंतरिक्ष कार्यक्रम का पूरा लाभ उठा सके. प्रो. धवन के प्रयासों से ही कम्युनिकेशन सैटेलाइट इन्सैट, सुदूर संवेदी उपग्रह आईआरएस, भारतीय दूरसंचार प्रणाली और ध्रुवीय उपग्रह प्रक्षेपण यान ‘पीएसएलवी’ का विकास हो सका. उनकी अगुआई में ही 19 अप्रैल 1975 को इसरो द्वारा निर्मित भारत के प्रथम कृत्रिम उपग्रह ‘आर्यभट’ की कामयाब लांचिंग सोवियत संघ में की गई. प्रो. धवन के कुशल नेतृत्व की बदौलत न सिर्फ भारत अंतरिक्ष विज्ञान के क्षेत्र में दुनिया के गिने-चुने देशों की सूची में शामिल हुआ, बल्कि उनकी दूरदर्शिता ने मौजूदा समय के मंगलयान, चंद्रयान और गगनयान को अंतरिक्ष में पहुंचाने के मार्ग भी प्रशस्त किए.
पूर्व राष्ट्रपति और महान वैज्ञानिक डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम अपनी किताब ‘इग्नाइटेड माइंड्स’ में लिखते हैं कि ‘यह प्रो. सतीश धवन ही थे जिन्होंने डॉ. साराभाई के सपने को साकार किया. 1972 में इसरो का पदभार संभालने के बाद प्रो. धवन ने अंतरिक्ष योजनाओं के साथ इसरो की भावी रूप रेखा तैयार की. उनके इस काम से सुदूर संवेदन और संचार उपग्रहों के रूप में कई महत्वपूर्ण उपलब्धियां और फायदे हासिल हुए. इसरो के ध्रुवीय उपग्रह प्रक्षेपण वाहन (पीएसएलवी) ने भारत और अन्य देशों के कई उपग्रहों को एक ही मिशन में एक साथ अलग-अलग कक्षाओं में छोड़ने का करिश्मा कर दिखाया.’ गहरी सामाजिक प्रतिबद्धता प्रो. धवन अंतरिक्ष विज्ञान का अध्ययन समाज को संवारने के लिए करना चाहते थे. उनके लिए विज्ञान से केवल आर्थिक लाभ हासिल करना ही सबकुछ नहीं था. विज्ञान और प्रौद्योगिकी का लाभ समाज के अंतिम पायदान पर खड़े व्यक्ति तक कैसे पहुंचे, इसको लेकर वह प्रतिबद्ध थे.
पूर्व इसरो प्रमुख कृष्णास्वामी कस्तूरीरंगन के मुताबिक ‘धवन में प्रौद्योगिकी को लेकर अत्यधिक प्रबल भावना और खासकर समाज के साथ इसके संबंध की अनोखी समझ थी. उनका सरोकार समाज से संबंधित सुदूर संवेदन और संचार सरीखी अंतरिक्ष तकनीकों को विकसित करने से था.’ वह सम्पूर्ण समाज से सरोकार रखते थे. श्रीहरिकोटा में प्रेक्षण केंद्र बनाने की प्रक्रिया में विस्थापित हुए येनादि जनजाति के लोगों के पुनर्वास के लिए उन्होंने पहले से पूरी व्यवस्था की. लेकिन उसके बाद राज्य सरकार के फैसले की वजह से जब उन्हें वहां से भी हटाया गया तो उन लोगों को श्रीहरिकोटा के जंगलों में आवास और काम दिलाया. जब पर्यावरण और प्रदूषण उतना चर्चा में नहीं था तब भी प्रो. धवन पर्यावरण को लेकर बहुत सजग थे. श्रीहरिकोटा प्रेक्षण केंद्र के निर्माण के दौरान उनका स्पष्ट आदेश था कि अनावश्यक रूप से किसी भी पेड़ को काटा न जाए, प्रत्येक पेड़ काटने से पहले उनसे लिखित अनुमति लेनी जरूरी थी.
सफलता का श्रेय पूरी टीम को और असफलता की जिम्मेदारी खुद पर 1979 में एसएलवी-3 की पहली प्रायोगिक उड़ान असफल हो गई थी, जिसका नेतृत्व डॉ. अब्दुल कलाम कर रहे थे. कलाम के लिए यह लज्जित कर देने वाली स्थिति थी. वह यह सोचकर और भी दुखी थे कि प्रेस के सामने यह घोषणा कैसे करेंगे. लेकिन जब तत्कालीन इसरो अध्यक्ष प्रो. धवन को इस बारे में पता चला तो उन्होंने असफल प्रयोग की घोषणा करने वाली इस प्रेसवार्ता से कलाम को दूर रखा और इसरो अध्यक्ष होने के नाते असफलता की जिम्मेदारी खुद अपने ऊपर लेते हुए कहा कि हम असफल रहे! परंतु मुझे अपनी टीम पर पूरा विश्वास है कि अगली बार हम निश्चित रूप से सफल होंगे. यही नहीं जब अगले ही महीने एसएलवी-3 ने सफल उड़ान भरी, तब प्रो. धवन ने टीम को बधाई दी और कलाम को अपनी उपस्थिति के बिना प्रेसवार्ता में जाने के लिए कहा. उक्त घटना का वर्णन स्वयं कलाम ने कई जगहों पर किया है.
वे कहते थे, ‘जब हम असफल हुए तो हमारे नेतृत्वकर्ता ने इसकी ज़िम्मेदारी ली. लेकिन जब हम सफल हुए तो उन्होंने इसका श्रेय टीम को दिया.’ यह घटना प्रो. धवन की ज़िंदादिली और संवेदनशीलता को दर्शाती है.
महाविभूति का महाप्रयाण 3 जनवरी 2002 को 81 साल की उम्र में अंतरिक्ष में भारतीय सीमाओं का यह अन्वेषक अंतरिक्ष में विलीन हो गया. तत्कालीन राष्ट्रपति के. आर. नारायणन ने धवन के निधन पर शोक व्यक्त करते हुए कहा था कि ‘भारत के अंतरिक्ष कार्यक्रम के बहुआयामी विकास और उच्चस्तरीय परिपक्वता का श्रेय काफी हद तक प्रो. धवन के दूरदर्शी नेतृत्व और प्रबंधन को जाता है.’ प्रो. धवन आज हमारे बीच में नहीं हैं लेकिन उन्होंने भारत में अंतरिक्ष अनुसंधान का जो रोडमैप तैयार किया था उस पर चल कर ही आज इसरो विकसित राष्ट्रों से इस क्षेत्र में प्रतिस्पर्धा कर पा रहा है. भारत के अंतरिक्ष कार्यक्रम और विभिन्न संस्थाओं को आकार देने वाले प्रो. धवन सही मायनों में एक महान वैज्ञानिक और आकादमिक समुदाय के नैतिक और सामाजिक विवेक थे. अस्तु!