साल 1971, भारत-पाकिस्तान सीमा और राजस्थान में लोंगेवाला पोस्ट. लड़ाई के दौरान ब्रिगेडियर चांदपुरी, लोंगेवाला पोस्ट पर तैनात थे. एक तरफ़ सीमा पर पाकिस्तान की पूरी टैंक रेजिमेंट और चांदपुरी की कमांड में सिर्फ़ 120 भारतीय जवान.
पाकिस्तान की टैंक रेजिमेंट और उन 120 सैनिकों के बीच क्या हुआ, कैसे हुआ…इसी को लेकर 1997 में आई थी निर्माता -निर्देशक जेपी दत्ता की फ़िल्म बॉर्डर.
यूँ तो युद्ध पर 90 के दशक से पहले भी हक़ीक़त जैसी फ़िल्में बन चुकी थीं लेकिन पिछले 30 सालों की बात करें तो भारत-पाकिस्तान पर लोकप्रिय ‘वॉर फ़िल्म्स’ के श्रेणी में फ़िल्म बॉर्डर का नाम सबसे पहले आता है.
ऐसी फ़िल्म जिसमें युद्ध, राष्ट्रवाद, देशभक्ति ये सारे पुट थे जो बाद में अलग-अलग रूप में शेरशाह, उरी-द सर्जिकल स्ट्राइक, केसरी जैसी फ़िल्मों में देखने को मिली. इस लिहाज से बॉर्डर को ट्रेंडसेटर माना जाता है. इस साल फ़िल्म ने अपने 25 साल पूरे किए हैं.
कौन थे ब्रिगेडियर चांदपुरी
बॉर्डर फ़िल्म जेपी दत्ता के दिल के बेहद करीब रही है क्योंकि ये उनके भाई स्कवाड्रन लीडर दीपक दत्त के अनुभवों के इर्द-गिर्द बुनी गई थी, जो भारतीय वायु सेना में थे. जेपी दत्ता ने 1971 के युद्ध के वाकयों से जोड़कर फ़िल्म बनाई.
फ़िल्म में सनी देओल ने जिस फ़ौजी अफ़सर का रोल किया था वो थे ब्रिगेडियर चांदपुरी जिन्हें भारत-पाक युद्ध में लोंगोवाला लड़ाई का हीरो माना जाता है और उन्हें महावीर चक्र और विशिष्ट सेवा मेडल से नवाज़ा गया था.
फ़िल्म बॉर्डर में फ़ौज या वायु सेना के बारे में जो भी सीन दिखाए गए हैं, वह सारे सरकार की ओर से क्लियर किए गए थे.
2018 में बीबीसी पंजाबी के सरबजीत धालीवाल से बातचीत में ब्रिगेडियर चांदपुरी ने भारत- पाक जंग के बारे में बताया था, “लड़ाई 1971 को तीन दिसंबर शाम को शुरू हुई थी. उसमें 60 के क़रीब पाकिस्तान के टैंक आए थे जिनके साथ क़रीब तीन हज़ार जवान थे. उन्होंने क़रीब आधी रात को लोंगेवाला पर घेरा डाल दिया था. बाक़ी फ़ौज का सबसे क़रीबी बंदा मेरे से 17-18 किलोमीटर दूर था. जब हम घिर गए तो मेरी पंजाब रेजिमेंट की कंपनी को एक आदेश था कि लोंगेवाला एक अहम पोस्ट है जिसके लिए आपको आख़िरी बंदे तक लड़ना होगा. हर हालत में उसे कब्ज़े में रखना होगा. हमने फ़ैसला किया कि हम यहीं लड़ेंगे.”
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मौत से हर बंदा डरता है
अगर आपने बॉर्डर देखी है तो आपको सनी देओल के वो दहाड़ वाले भारी डायलॉग याद होंगे जो वो मैदान-ए जंग में कहते हैं – पहली गोली वो चलाएगा,आख़िरी गोली हम या आज से तुम्हारी हर गोली पर देश के दुश्मन का नाम लिखा होगा.
मौत के साए के बीच अपने साथियों को सनी देओल बड़े ही बेखौफ़ अंदाज़ में ये डायलॉग बोलते हैं. लेकिन रियल लाइफ़ हीरो ब्रिगेडियर चांदपुरी ने इसपर बीबीसी को क्या बताया था?
उन्होंने कहा था, “लड़ाई तो जो होनी थी वो हुई पर एक बात ज़रूर बताना चाहूंगा कि मौत से हर बंदा डरता है, बड़े-बड़े योद्धा डरते हैं. मैं भी डरता हूं. बाक़ी सब भी डरते हैं. ख़ुद लड़कर मरना कोई मुश्किल काम नहीं है पर अपने साथ बाकियों को खड़े करना और कहना कि आप भी मेरे साथ लड़ो और मरो यह बेहद मुश्किल काम है.”
बॉर्डर के 25 साल
सोलो हीरो वाले दौर में बॉर्डर मल्टी स्टार कास्ट वाली बड़ी फ़िल्म थी जिसमें सनी देओल, सुनील शेट्टी, अक्षय खन्ना, पूजा भट्ट, तब्बू, पुनीत इस्सर, सुदेश बेरी, कुलभूषण खरंबदा, राखी, जैकी जैसे कलाकार थे. हर एक्टर अपने आप से जैसे ये कह सकता था कि वो ही फ़िल्म का हीरो है.
जैसे फौज में नया रंगरूट अक्षय खन्ना जिसके लिए गोली चलाना लगभग नामुमकिन सा था लेकिन जंग के मैदान में जिसने जान देकर सबको मात दी. गाँव में उसकी माँ (राखी) और प्रेमिका (पूजा भट्ट) बस उसका इंतज़ार ही करती रहीं. या राजस्थान के रेत में पला बड़ा भैरों सिंह ( सुनील शेट्टी) जो शादी की रात ही मोर्चे पर बुला लिया जाता है और वही शादी के बाद उसकी पहली और आख़िरी मुलाक़ात होती है.
या फौज का ख़ानसामा कुलभूषण खरबंदा जो मौका पड़ने पर चकला-बेलन छोड़ बंदूक संभाल लेता है.
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बॉर्डर के संवाद और गाने
वो राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय ख़बरें जो दिनभर सुर्खियां बनीं.
ड्रामा क्वीन
समाप्त
फ़िल्म के संवाद आज थोड़े ओवर-द-टॉप लग सकते हैं लेकिन उस वक़्त एक-एक संवाद पर थिएटर में ख़ूब तालियाँ बजी थी.
मसलन सनी देओल का ये 2 मिनट 21 सेकेंड लंबा और गरजता हुआ मोनोलॉग जब वो सुदेश बेरी यानी मथुरा दास को जंग से पहले छुट्टी मिलने पर ख़ुशी से नाचते-कूदते देखते हैं और उस पर बरस पड़ते हैं-
“मथुरा दास जी आप ख़ुश हैं कि आप घर जा रहे हैं. लेकिन ख़ुशी का जो बेहुदा नाच अपने भाइयों के सामने कर रहे हैं अच्छा नहीं लगता. आपकी छुट्टी मंजूर हुई है क्योंकि आपके घर में प्रॉब्लम है. दुनिया में किसे प्रॉब्लम नहीं.. जिंदगी का दूसरा नाम प्रॉब्लम है. बताओ अपने भाइयों में कोई ऐसा भी है जिसकी विधवा माँ आखों से देख नहीं सकती और उसका एकलौता बेटा रेगिस्तान की धूल में खो गया है.”
” कोई ऐसा भी है जिसकी माँ की अस्थियाँ इंतज़ार कर रही हैं कि उसका बेटा जंग जीतकर आएगा और उसे गंगा में बहा देगा. किसी का बूढ़ा बाप अपनी ज़िंदगी की आख़िरी घड़ियाँ गिन रहा है और हर रोज़ मौत को ये कहकर टाल देता है कि मेरी चिता को आग देने वाला दूर बॉर्डर पर बैठा है. अगर इन सबने अपनी प्रॉब्लम का बहाना देकर छुट्टी ले ली तो ये जंग कैसे जीती जाएगी. बताओ. मथुरा दास इससे पहले मैं तुझे गद्दार करार देकर गोली मार दूं भाग जा यहां से.”
फ़िल्म की सफलता में बड़ा हाथ रहा इसके संगीत का. ऊँची है बिल्डिंग जैसे गानों वाले अनु मलिक ने इस फ़िल्म में बिल्कुल अलहदा किस्म का संगीत दिया .
जावेद अख़्तर ने अपने शब्दों से हर एक गाने में उस पल की रूह को कैद कर लिया था. मसलन पहली पहली मोहब्बत का खुमार जो ‘हमें तुमसे मोहब्बत हो गई है में’ नज़र आता है.
या फिर जब गीतकार लिखता है ‘ऐ जाते हुए लम्हों, ज़रा ठहरो ज़रा ठहरो. मैं भी चलता हूँ , ज़रा उनसे मिलता हूँ. जो इक बात दिल में हैं उनसे कहूँ. तो चलूँ”..
शादी की रात बॉर्डर पर जाने के हुक़्म के बीच, वक़्त से चंद लम्हे चुराता ये गीत उस फौजी की दास्तां हैं जिसे पता है कि सुबह ऐसा मंज़र लेकर आएगी जिसके बाद वो शायद कभी घर वापस न आए.
उसके पास बस सुबह तक का समय है और वक़्त उसके हाथ से निकलता जा रहा है. रूपकुमार राठौड़ की आवाज़ में ये गाना बहुत मकबूल हुआ था.
और इनसे भी बढ़कर वो गाना जो उस वक्त एक तरह का नेशनल एंथम बन गया था- संदेशे आते हैं. नौ मिनट लंबा एक गाना और गाने में बुने अनगिनत इमोशन.
क्या बॉर्डर सिर्फ़ एक वॉर फ़िल्म है या फिर रिश्तों को पिरोता और संजोता एक कैनवास भी है? जब आप ‘संदेशे’ आते हैं सुनते हैं तो जंग से परे हर फौजी का एक अलग चेहरा, अलग जज़्बात सामने आता है- एक दोस्त, एक बेटा, एक प्रेमी, एक पिता की भावनाओं को एक चिट्ठी में पिरोकर ये गीत बुना गया है.
जावेद अख़्तर का लिखा ये गाना रवायती गीत परंपरा से काफ़ी अलग तरीके से लिखा गया था. ये सोनू निगम और रूप कुमार राठौड़ की आवाज़ में सुनते हुए ही समझ में आता है-
ए गुजरने वाली हवा बता ,मेरा इतना काम करेगी क्या. मेरे गाँव जा मेरे दोस्तों को सलाम दे...
किसी भी फ़िल्म की तरह बॉर्डर में भी सिनेमा के हिसाब से असल वाकयों से इतर कई चीज़ें बढ़ाई-घटाई गईं. और किसी भी जंग की तरह मौत का साया भी मैदान पर देखने को मिला.
ब्रिगेडियर चांदपुरी ने बीबीसी को बताया था, “मौत तो हमें यक़ीनन नज़र आ रही थी. जब 40-50 टैंक आपको घेर लें और हर टैंक में मशीनगन लगी हो और दो किलोमीटर तक उसकी मार हो तो उस दायरे से बचकर निकलना बेहद मुश्किल है.”
“मेरे लिए ऐसे हालात में फ़ैसला लेना बेहद मुश्किल था. मैं पोस्ट छोड़कर भाग नहीं सकता था और न ही मुझे ऐसा टास्क मिला था कि जब पाकिस्तान की फ़ौज आए तो आप बोरिया-बिस्तर उठाकर घर भाग जाओ. दूसरा यह था कि वहां लड़ना है और लड़ने के लिए मैं बिलकुल तैयार था मेरे जवान बिलकुल तैयार थे. मैंने उनको प्रेरित किया. वे भी ख़ुद को टैंकों से घिरे हुए देख रहे थे. ”
”मैंने उन्हें गुरु गोबिंद सिंह और उनके बेटों की शहादत की मिसालें दीं और कहा कि अगर हम युद्ध छोड़कर भागेंगे तो यह पूरी सिख कौम पर कलंक होगा. मेरे जवानों ने लड़ाई का फ़ैसला मेरे ऊपर छोड़ दिया था और मैंने उनसे कहा कि अगर मैं पोस्ट से पैर हटाता हूं तो आप 120 के 120 जवान मुझे गोलियां मार देना.”
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युद्ध पर बनी फ़िल्में
जंग पर बनी फिल्मों की बात करें तो इससे पहले 1962 के भारत-चीन युद्ध पर चेतन आनंद ने फ़िल्म हक़ीकत बनाई थी जिसमें लद्दाख में तैनात भारतीय सैनिकों की एक छोटी सी टुकड़ी है और सामने कहीं शक्तिशाली सेना.
हालांकि हक़ीक़त और बॉर्डर दो अलग-अलग मिजाज़ की फ़िल्में हैं पर इन दोनों में कुछ समानताएँ भी दिखती हैं.
कैफ़ी आज़मी का लिखा और मदन मोहन के संगीत से सजा ये गाना शायद आपने सुना हो जब लद्दाख के मुश्किल हालात में बैठे सैनिक ये गाना गाते हैं.-
होके मजबूर मुझे उसने भुलाया होगा, ज़हर चुपके से दवा जान के खाया होगा.
संदेशे आते हैं और होके मजबूर मुझे…ये दोनों गानों में 58 सालों का फ़र्क हो सकता है लेकिन जज़्बात वही है.
बॉर्डर ने एक अलग तरह की युद्ध टेंपलेट को स्थापित किया -जिसमें एक्शन है, मेलोड्रामा है, भारी डायलॉग है, राष्ट्रभक्ति है और इसको कई गुना बढ़ा-चढ़ाकर आज की फ़िल्मों में इस्तेमाल किया जा रहा है. लेकिन बहुत कम फ़िल्मों को बॉर्डर जैसी सफलता मिली.
जेपी दत्ता की ख़ुद की फ़िल्म एलओसी कारगिल, टैंगो चार्ली, मिशन कश्मीर, लक्ष्य, केसरी लंबी फेहरिस्त है. पिछले साल आई शेरशाह और उरी-द सर्जिकल अटैक हालांकि सफल रहीं.
राष्ट्रवाद और देश पर मर मिटने वाले जज़्बे के बीच बॉर्डर के कुछ अनकहे से लम्हे भी हैं जो कुछ अलग कहने की कोशिश करते हैं.
जैसे जब एयर फ़ोर्स और सैन्य टुकड़ी के जवान मिलकर जीत हासिल करते हैं तो एक संवाद आता है- हम ही हम हैं तो क्या हम हैं, तुम्हीं तुम हो क्या तुम हो.
ये पूरा शेर कुछ यूँ है-
चमन में इख़्तिलात-ए-रंग-ओ-बू से बात बनती है,
हम ही हम हैं तो क्या हम हैं तुम ही तुम हो तो क्या तुम हो
उपहार त्रासदी
दुर्भाग्यवश फ़िल्म बॉर्डर से एक ऐसा हादसा जुड़ा हुआ है जिसके ज़ख़्म आज भी लोगों को दिलों में ज़िंदा है.
13 जून 1997 को दिल्ली के उपहार सिनेमाहॉल में फ़िल्म बॉर्डर लगी और सैकड़ों लोगों ने इसकी टिकट ख़रीदी.
नीलम कृष्णमूर्ति ने भी उपहार सिनेमा में ‘बॉर्डर’ फ़िल्म के लिए दो टिकट खरीदी थी. नीलम कृष्णमूर्ति के दोनों बच्चे 17 साल की उन्नति और 13 साल का उज्जवल ये फ़िल्म देखना चाहते थे.
उस दिन शाम को 4:55 पर उपहार सिनेमा हॉल की पार्किंग में आग लग गई और सीढ़ियों में धुंआ फैल गया और सिनेमा हॉल में आ गया. प्रत्यक्षदर्शियों का कहना है कि लोग इमारत के ग्रांउड फ्लोर से बाहर आने लगे. जो लोग ऊपर की मंज़िलों पर थे वो खिड़कियों से बाहर कूद रहे थे. लेकिन, कई लोग अंदर ही फंस गए थे क्योंकि इमरजेंसी की गाड़ियां जाम में फंसी हुई थीं.
बॉर्डर फ़िल्म हादसे में 59 लोगों की मौत हो गई थी जिनमें 23 बच्चे शामिल थे. सबसे छोटा बच्चा एक महीने का था. इसमें नीलम के बच्चे भी शामिल थे.
उपहार सिनेमा के सामने एक स्मारक पीड़ितों की याद में बनाया गया है और उसमें मरने वालों के नाम और जन्म की तारीख़ दर्ज है.
बॉर्डर में जहाँ जंग के मैदान के फ़ौजी की कहानी थी वहीं उपहार सिनेमा त्रासदी का हीरो भी एक फ़ौजी ही था. उस दिन कैप्टन मनजिंदर सिंह भिंडर अपने चार साल के बेटे और पत्नी के साथ फ़िल्म देखने गए और आग की लपटों में फँस गए. कैप्टन मंज़िंदर ने जब वहाँ अफ़रा तफ़री देखी तो अपनी और अपने परिवार की जान की परवाह करते हुए आग में कूद गए और वहाँ फँसे लोगों को बाहर निकालने लगे.
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कैप्टन मंजिंदर सिंह भिंदर ने कई लोगों की जान बचाई हालांकि अपने परिवार को न बचा पाए और न ही ख़ुद को. बाद में उनके माँ-बाप को पेंशन भत्ते के लिए लड़ाई लड़नी पड़ी क्योंकि कैप्टन मंजिंदर की मौत सैन्य सेवा के दौरान नहीं हुई थी. हाई कोर्ट के दख़ल के बाद ही उन्हें पेंशन मिल पाई.
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फ़िल्म बॉर्डर की लाखों टिकट बिके और उस सफलता का अपना इतिहास और दास्तां है .लेकिन अजब इत्तेफ़ाक ये है कि असल ज़िंदगी में भी जला हुआ वो उपहार सिनेमाघर, बर्बादी के वो मंज़र, वो टिकट आज भी बहुत कुछ कहते हैं. नीलम ने वो दो ग़ुलाबी टिकटें आज भी काले लेदर वाले वॉलेट में संभाल कर रखी हैं, जो उन्होंने उज्जवल को तोहफ़े में दिया था.
किनारे से फटे ये टिकट जिस पर सिनेमाहॉल का नाम और शो का टाइम देखा जा सकता है, शुक्रवार शाम 3:15. दो साल पहले बीबीसी को दिए इंटरव्यू में कही नीलम की बात आज भी कानों में गूँजती हूँ- ”मैं इन टिकटों को मौत बोलती हूं. एक मां के तौर पर मैं दोषी महसूस करती हूं क्योंकि मैंने वो टिकट बुक किए थे.”