कहते हैं कि नाश्ता राजा की तरह, दोपहर का खाना राजकुमार की तरह और रात का खाना फ़क़ीर की तरह होना चाहिए. मतलब ये कि नाश्ता सबसे भारी-भरकम और रात का खाना बेहद हल्का-फुल्का होना चाहिए.
जब युवा यूनिवर्सिटी में दाख़िला लेते हैं, तो आम तौर पर उनका वज़न बढ़ जाता है. अमरीका में तो इसके लिए ख़ास शब्द गढ़ लिया गया है- फ्रेशमैन 15. माना जाता है कि यूनिवर्सिटी में पहले साल छात्रों का वज़न 15 पाउंड तक बढ़ जाता है.
इसकी एक वजह तो ये भी होती है कि छात्रों को घर का खाना नहीं मिलता. फिर उनकी उछल-कूद भी घर के मुक़ाबले कम हो जाती है.
वैसे, अब वैज्ञानिक युवाओं के वज़न बढ़ने की एक और वजह गिनाने लगे हैं. वो ये है कि छात्राओं के खान-पान का वक़्त यूनिवर्सिटी आते ही बदल जाता है. वो देर रात तक जगते हैं. खाना देर से खाते हैं. बेवक़्त सोते हैं. पार्टी करते हैं. शराब पीते हैं. इससे युवाओं की बॉडी क्लॉक बहुत डिस्टर्ब हो जाती है.
कई दशकों से हमें बताया जाता रहा है कि वज़न बढ़ने से हमें टाइप-2 डायबिटीज़, दिल की बीमारियां और दूसरी लाइफस्टाइल बीमारियां हो जाती हैं. इसके पीछे खाने की क्वालिटी तो एक वजह होती ही है. साथ ही वर्ज़िश में कम वक़्त लगाना और कम कैलोरी बर्न करना भी कारण बन जाते हैं.
लेकिन, तमाम नई रिसर्च से ये पता चल रहा है कि खान-पान का वक़्त भी मोटापा बढ़ाने और घटाने में अहम रोल निभाता है.
यानी आप क्या खाते हैं, ये तो अहम है ही. आप कब खाते हैं, ये भी बहुत महत्वपूर्ण है.
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वैज्ञानिक वजह
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ड्रामा क्वीन
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प्राचीन सभ्यताओं में भी खाने के वक़्त पर बहुत ज़ोर दिया जाता था. हिंदुस्तान में दिन में ज़्यादा खाने और रात में कम खाने पर ज़ोर था. प्राचीन चीन में सुबह 7 बजे से 9 बजे तक भारी नाश्ता और उसी हिसाब से दिन के अलग-अलग वक़्त में अलग ख़ुराक बतायी गई थी. चीन के विद्वान लोग भी रात के खाने को हल्का ही रखने की सलाह देते थे.
इस प्राचीन ज्ञान की वैज्ञानिक वजह भी है.
जो लोग डाइटिंग करते हैं, उनके खान-पान में ज़ोर कम से कम कैलोरी लेने पर होता है. पर, वो खाना कब खाएं, इस पर भी ज़ोर देने की ज़रूरत है.
एक रिसर्च में जब कुछ मोटी महिलाओं को दिन में ही खाने को कहा गया. वहीं कुछ और महिलाओं को कभी भी खाने की आज़ादी दी गई. तो, देखा गया कि जिन महिलाओं ने दिन में ही ज़्यादा कैलोरी ली, उन्हें वज़न घटाने में आसानी हुई. वहीं, देर रात तक खाने की आज़ादी वाली महिलाओं का वज़न कम घटा.
ब्रिटेन की सरे यूनिवर्सिटी के जोनाथन जॉन्सटन कहते हैं कि, ‘लोग सोचते हैं कि जब हम सोते हैं, तो शरीर के भीतर गतिविधियां भी बंद हो जाती हैं. लेकिन ये हक़ीक़त नहीं है.’
जब हम सुबह कुछ खाते हैं, तो उसे पचाने में ज़्यादा कैलोरी ख़र्च होती है. पर, दिन में या देर रात खाने पर उसे पचाने में कम कैलोरी ख़र्च होती है.
दूसरी बात ये है कि जब हम देर रात तक खाना खाते हैं, तो हमारे शरीर को फैट पचाने का वक़्त नहीं मिल पाता. पेट भरा रहता है, तो शरीर को फैट जलाने की ज़रूरत नहीं होती. क्योंकि शरीर की फैट तभी इस्तेमाल होती है, जब हमें कुछ खाने को नहीं मिलता.
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बिजली की रौशनी के आविष्कार से पहले इंसान की दिनचर्या सूर्योदय से शुरू होकर सूर्यास्त तक कमोबेश खत्म हो जाती थी. यानी इंसान का ज़्यादातर खाना-पीना दिन में ही होता था.
पर, अब बनावटी रौशनी मौजूद है, तो हम देर रात तक जागते हैं. काम करते हैं. इसलिए खाना-पीना भी देर तक होता है.
कैलिफ़ोर्निया के साल्क इंस्टीट्यूट के बॉडी क्लॉक विशेषज्ञ सचिन पांडा कहते हैं कि, ‘हम बिजली की वजह से देर रात तक जूझते रहते हैं. ग़लत वक़्त पर खाना खाते हैं.’
पांडा की रिसर्च के मुताबिक़ ज़्यादातर अमरीकी अपनी कुल कैलोरी का एक तिहाई शाम 6 बजे के बाद ही लेते हैं.
पांडा कहते हैं कि, ‘छात्र आम तौर पर देर रात तक पार्टी करते हैं. या फिर वो पढ़ाई के लिए जागते हैं. इनमें से कईयों को सुबह जल्दी उठना पड़ता है, ताकि क्लास में जा सकें. इनके खाने-पीने और पचाने का वक़्त बहुत कम होता है.’
उनकी नींद कम होती है. इससे भी वज़न बढ़ता है. रात के वक़्त बाहर और ऊट-पटांग की चीज़ें खाना भी सेहत पर बुरा ही असर डालता है.
रिसर्च से साफ़ होता जा रहा है कि हमारे शरीर की घड़ी का हमारे खान-पान और पाचन सिस्टम से गहरा नाता है.
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हर कोशिका के भीतर एक घड़ी होती है
शरीर की हर कोशिका के भीतर एक घड़ी होती है. ये घड़ियां कोशिकाओं के भीतर की रासायनिक प्रक्रिया को नियंत्रित करती हैं. हर कोशिका की घड़ी, शरीर की मास्टर क्लॉक से संचालित होती है. जो दिमाग़ में होती है.
इसे वैज्ञानिक एससीएन यानी सुप्राकियास्मैटिक न्यूक्लियस कहते हैं. ये सूरज की रौशनी, दिन के उतार-चढ़ाव के हिसाब से चलती है. शरीर की इन घड़ियों का काम होता है दिन की शारीरिक गतिविधियों के हिसाब से शरीर को तैयार करना और संचालित करना. शाम ढलने के बाद ये घड़ियां शरीर के अंगों को आराम करने का इशारा करती हैं. ताकि वो तरोताजा महसूस कर सकें.
जब हम दूसरे देशों की यात्रा पर जाते हैं, तो हमें जेटलैग हो जाता है. इसकी वजह ये होती है कि हमारे शरीर की क़ुदरती घड़ी की चाल गड़बड़ हो जाती है. वो स्थानीय समय के हिसाब से तालमेल बैठाने में दिक़्क़त महसूस करती है.
वैसे, दिमाग़ की घड़ी के गड़बड़ होने की वजह केवल रौशनी नहीं होती. जब हम बेवक़्त खाना खाते हैं, तो हमारे जिगर और खाना पचाने वाले अंगों की घड़ी का हिसाब-किताब भी गड़बड़ हो जाता है. इसके अलावा वर्ज़िश के वक़्त में बदलाव भी हमारी बॉडी क्लॉक पर असर डालता है.
जब हम अलग-अलग टाइम ज़ोन में सफ़र करते हैं, तो हमारे शरीर के अंग, बदलते वक़्त से तालमेल नहीं बिठा पाते. इसी तरह देर रात खाने से दिमाग़ में मौजूद घड़ी कनफ्यूज़ हो जाती है कि वो पाचन अंगों को क्या इशारा दे.
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कम सोने से सेहत पर क्या असर होता है?
कार्बोहाइड्रेट और प्रोटीन पचाने की प्रक्रिया काफ़ी पेचीदा होती है. इसमें शरीर के कई अंगों का रोल होता है. जैसे जिगर, अग्न्याश्य, आंतें और प्लीहा. जब दिमाग़ की मास्टर क्लॉक ही कनफ्यूज़ हो, तो वो शरीर के दूसरे अंगों की घड़ियों को क्या निर्देश दे?
जो लोग लगातार कई दिनों तक पांच घंटे से कम सोते हैं, उनके ऊपर इंसुलिन हार्मोन का असर ख़त्म होने लगता है. इससे टाइप-2 डायबिटीज़ और दिल की बीमारियां होने लगती हैं. उनके पेट में जलन रहने लगती है.
जो लोग शिफ्ट में काम करते हैं, उनके साथ ये दिक़्क़त होने की आशंका ज़्यादा रहती है. यूरोप और उत्तर अमरीकी देशों में 15 से 30 फ़ीसद आबादी किसी न किसी पाली में काम करती है. इनके मोटे होने, डायबिटीज़ और डिप्रेशन के शिकार होने की आशंका बढ़ जाती है.
वैसे भी वर्किग डे और छुट्टी के दिन सोने-जागने का वक़्त अलग ही होता है. यानी की हमारा पाचन तंत्र भी खाना पचाने के लिए इस उठा-पटक से जूझता है.
तो, खाने का वक़्त बेहद अहम है. साथ ही महत्वपूर्ण ये भी है कि हम कब, कितना खाते हैं.
किंग्स कॉलेज लंदन की गेर्डा पॉट ने इस बारे में रिसर्च की है. गेर्डा कहती हैं उनकी दादी हमेशा तय वक़्त पर नाश्ता और खाना खाया करती थीं. नतीजा ये कि वो 90 साल के बाद भी सेहतमंद रहीं.
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तो हमें क्या करना चाहिए?
इंसुलिन हमारी सेहत के लिए बहुत अहम होता है. ये ग्लूकोज़ को पचाने और उससे ईंधन बनाने में मददगार होता है. जब हम देर से खाना खाते हैं, तो ग्लूकोज़ ज़्यादा देर तक हमारे शरीर में मौजूद होता है.
इसका नतीजा ये होता है कि इंसुलिन का असर ख़त्म होने लगता है. हमें डायबिटीज़ होने का डर बढ़ जाता है. शरीर में देर तक शुगर होने से शरीर के टिश्यू ख़राब होने लगते हैं. इससे अंधापन भी आ सकता है.
गेर्डा पॉट ने ब्रिटेन में 5000 हज़ार लोगों के 70 साल की सेहत का रिकॉर्ड खंगाला. उन्होंने पाया कि जो लोग नियमित रूप से समय पर खाना काते थे, उन्हें कम बीमारियां हुईं. जबकि बेवक़्त खाने वालों को डायबिटीज़ ज़्यादा होते देखा गया.
तो, हमें क्या करना चाहिए?
हमारी कोशिश ये होनी चाहिए कि हमारा खाने का वक़्त एक ही हो. या उसके आस-पास हो. सोने का वक़्त भी नियमित ही हो तो अच्छा होगा. जब हम सुबह उठ कर कमरे के पर्दे खोलते हैं, तो हमारे दिमाग़ को संकेत जाता है कि दिन शुरू हो गया है. इसके तुरंत बाद हम ब्रेकफास्ट कर लें, तो हमारे शरीर को काम शुरू करने का संकेत मिलेगा. इससे हमारे शरीर की घड़ी गड़बड़ नहीं होगी.
जो लोग सुबह नाश्ता नहीं करते, वो जब देर से खाते हैं, तो उनके शरीर में ग्लूकोज़ बहुत बढ़ जाता है.
खाने के अलावा हमें तय वक़्त पर ही सोने की कोशिश भी करनी चाहिए. सोने से पहले अगर हम बत्तियां बुझा कर अंधेरा कर लें, तो भी हमारे ज़हन को संकेत जाएगा कि आराम करने का वक़्त हो गया है. रोज़ाना सात से 8 घंटे की नींद लेने की कोशिश होनी चाहिए.
सचिन पांडा कहते हैं कि, ‘इस धरती का हर जीव, सूरज के उगने और अस्त होने के हिसाब से 24 घंटे के साइकिल के हिसाब से विकसित हुआ है. इसकी बड़ी वजह ये है कि शरीर को रिपेयर और आराम करने के लिए रात में आराम की ज़रूरत होती है. दिन में जब शरीर पूरी तरह से सक्रिय होता है, तब वो आराम नहीं कर सकता.’
पांडा मिसाल देते हुए कहते हैं कि, ‘आप किसी हाइवे की मरम्मत तब तो नहीं कर सकते जब उस पर ज़्यादा गाड़ियां चल रही हों.’
तो, बेहतर होगा कि हम पुरानी कहावत पर अमल करें. और, राजा की तरह नाश्ता करें, राजकुमार की तरह लंच और भिखारी की तरह रात का खाना लें.
(मूल लेख अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें, जो बीबीसी फ्यूचर पर उपलब्ध है.)
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