फुटबॉल जैसे खेल को हमेशा पुरुषों का ही खेल माना जाता है. वहीं जब बात दूर गांव में रहने वाली बेटी की हो तो उसके लिए और भी मुश्किल हो जाता है. लेकिन समाज की तमाम बेड़ियों को तोड़ते हुए राजस्थान की चंद्रकला राव न सिर्फ इस खेल को खेल रही हैं, बल्कि उन्होंने दूसरों को इस खेल के गुन सिखाने का निर्णय लिया.
वह एक फुटबॉल कोच के रूप में खेल सिखाने के साथ ही समानता का पाठ भी सिखा रही हैं. अपने भाई के नक़्शे कदम पर चलते हुए कड़ी मेहनत के बाद चंद्रकला राजस्थान की पहली महिला फुटबॉल कोच बनीं
एक घटना ने बदल दिया जिंदगी का मकसद
कहते हैं एक घटना ने चंद्रकला की जिंदगी बदलकर रख दी. चंद्रकला के भाई संदीप एक फुटबॉल खिलाड़ी थे. जब वह मैच खेलते तो उनकी बहन चंद्रकला उनको और उनकी टीम को चियर करती थीं. भाई का फुटबॉल खेलना उनको बेहद पसंद था. संदीप ने भी इस खेल में अच्छा प्रदर्शन किया और राष्ट्रीय फुटबॉल टीम का हिस्सा बनें. संदीप ने राजस्थान के साथ ही अपने परिवार का मान बढ़ाया था.
अब देश के लिए गोल्ड मेडल लाने का उनका सपना था. लेकिन इस बीच एक सड़क हादसे में संदीप की मौत हो गई. उनकी मौत का उनके परिवार पर गहरा असर पड़ा. खासकर उनकी बहन चंद्रकला भाई के साथ बिताए पल को याद करतीं. आखिरकार भाई संदीप के सपनों को सजोएं चंद्रकला ने भी फुटबॉल खेलने का फैसला लिया और एक फुटबॉल खिलाड़ी बनीं.
राजस्थान के हनुमानगढ़ जिले के नोहर में एक बेटी चंद्रकला राव ने वो कर दिखाया, जो साहस और कड़ी मेहनत के बाद ही संभव था. भाई की मौत के बाद चन्द्रकला ने फुटबॉल के लिए खुद को समर्पित कर दिया.
अपने भाई के साथ बिताए लम्हे को याद करते हुए चंद्रकला कहती हैं कि “मैं उन्हें खेलते हुए देखना पसंद करती थी. मैं उनके खेलने के अंदाज को बहुत ही बारीकी से देखती थी और हर लक्ष्य को सेलिब्रेट करती थी, जैसे मैं उनकी टीम की साथी थी.” आखिरकार वह इस खेल में आगे बढ़ी और इस तरह हनुमानगढ़ जिले के उनके होमटाउन नोहर में भी पहली महिला फुटबॉल टीम बनीं.
मुश्किलों से भरा सफ़र, पर हौसला बुलंद रहा
चंद्रकला एक पिछड़े इलाके से आती थीं. फुटबॉल में अपना करियर बनाना उनके लिए आसान नहीं था. ऐसे में उन्हें कई परेशानियों का डटकर मुकाबला करना पड़ा. जब वह दसवीं कक्षा की छात्रा थीं. तब उनके पिता का स्वर्गवास हो गया. उसके बाद उनके भाई संदीप भी चल बसे. अब परिवार में उनकी मां, बड़ी बहन और एक छोटा भाई रह गया. परिवार मुश्किलों के दौर से गुजरने लगा.
चंद्रकला ने अपने मां के साथ भाई-बहनों का हौसला बनाए रखा. बहरहाल, इन सब हालातों के बावजूद उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और खुद को मजबूत रखा. आगे उन्होंने जिला, राज्य व राष्ट्रीय स्तर पर कई फुटबॉल टूर्नामेंट का हिस्सा बनीं. परिवार की ख़राब स्थिति को संभालने के लिए अब उनको पैसों की ज़रुरत थी. इसके लिए उन्होंने फुटबॉल कोचिंग की ओर रुख किया.
क्योंकि चंद्रकला कमाने के साथ ही फुटबॉल से जुड़े रहना चाहती थीं. इसीलिए उन्होंने कृष्णा पब्लिक स्कूल के छात्रों को प्रशिक्षित करने लगीं. साथ में वो बच्चों को पढ़ाती भी थीं. अगले पांच सालों तक यह सिलसिला यूहीं चलता रहा. लेकिन चंद्रकला का फुटबॉल से उनका लगाव कम नहीं हुआ. वो इस खेल के लिए कुछ करना चाहती थीं.
जिसके लिए उन्होंने ऑल इंडिया फुटबॉल फेडरेशन (एआईएफएफ) से कोचिंग लाइसेंस का आवेदन किया. चंद्रकला ने उदयपुर के जावर में लाइसेंस परीक्षा पास की. जिसके बाद 2018 में उन्हें कोचिंग लाइसेंस प्राप्त हो गया. इसके बाद उन्होंने उदयपुर के जिंक फुटबॉल अकादमी में प्रशिक्षण कार्य शुरू कर दिया.
फुटबॉल के साथ सिखा रही हैं समानता का पाठ
चंद्रकला पिछले दो वर्षों से लगातार जवार के जिंक फुटबॉल अकादमी में 50 से अधिक लड़के और लड़कियों को फुटबॉल सिखा रही हैं. उनका मानना है कि उनका परिवार उनको इस खेल के लिए सपोर्ट किया लेकिन सुदूर गावों में कई ऐसा परिवार है जो अपनी बच्चियों को खेल में अपना करियर बनाने से रोकता है. जिसको लेकर चंद्रकला ऐसे परिवार को समानता का पाठ भी सिखाती हैं.
वो इस क्षेत्र में सराहनीय कार्य को अंजाम दे रही हैं. चंद्रकला अक्सर ऐसे परिवारों का दौरा करती हैं, जिनके माता पिता अभी भी अपनी लड़कियों को घरों से दूर बाहर खेलने के लिए भेजने में हिचकिचाते हैं. वो उनको लड़कों और लड़कियों के लिए समान अवसर देने का लाभ बताती हैं. उनको समझाती हैं. इस तरह चंद्रकला राव फुटबॉल प्रशिक्षण के साथ साथ लोगों को समानता का भी पाठ पढ़ा रही हैं.
चंद्रकला अपनी कोचिंग के दौरान प्राप्त अनुभव को शेयर करते हुए कहती है कि लड़कियां जो फुटबॉल प्रशिक्षण ले रही हैं वो न सिर्फ शौक के रूप में इस खेल को खेल रही हैं, बल्कि इनमें से कई फुटबॉल में अपना करियर बनाना चाहती हैं. चंद्रकला के मुताबिक जबसे उन्होंने मिडिल स्कूल की छात्रा के रूप में फुटबॉल खेलना शुरू किया, तब से अब देश में महिलाओं को लेकर इस खेल के प्रति बदलाव देखने को मिला है.
वो कहती हैं कि उस समय 11 खिलाड़ियों को एकत्र करना मुश्किल हो जाता था. लोगों को पता ही नहीं था कि फुटबॉल लड़कियों द्वारा भी खेला जाता है. लेकिन अब देश में होने वाली सभी महिला लीगों में लड़कियों के माता पिता को समझाना पहले की अपेक्षाकृत आसान हो गया है. अब लड़कियां भी फुटबॉल या किसी दूसरे खेलों में अपना करियर बना सकती हैं.
फ़िलहाल चंद्रकला फुटबॉल के मैदान में मौज मस्ती के साथ लड़के व लड़कियों को फुटबॉल सिखाने के साथ ही समानता और नैतिक जीवन के मूल्यों से भी उनको शिक्षित करने का प्रयास कर रही हैं.