छत्तीसगढ़: आदिवासियों का आरोप, ड्रोन से बमबारी, पुलिस का इनकार : ग्राउंड रिपोर्ट

बम

यह इलाका बस्तर संभाग के सुदूर सुकमा ज़िले में आता है. मगर सिलगेर तक जाने के लिए बीजापुर से होकर जाना पड़ता है क्योंकि सुकमा से सड़क के रास्ते यहाँ पहुंचा नहीं जा सकता है. कुछ सालों पहले तक बीजापुर के बासागुड़ा पर जो नदी का पुल मौजूद है वो एक तरह से अघोषित सरहद का काम करता था.

यानी पुल के इस पार तक सरकार की मौजूदगी थी और उस पार, यानी सार्केगुड़ा से भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) की ‘जनताना सरकार’ का अधिकार क्षेत्र शुरू हो जाता था.

अब पुल के उस पार भी सड़क बनाने का काम चल रहा है. कुछ एक सालों में ही बासागुड़ा के आगे अर्द्ध सैनिक बलों के भी कई कैंप स्थापित कर दिए गए ताकि माओवादी छापामारों को पीछे धकेल दिया जा सके.

लेकिन पिछले साल के मई महीने में जैसे ही सिलगेर के तिम्मेर में रातों रात कैंप लगाया गया, स्थानीय आदिवासी ग्रामीणों का विरोध उमड़ पड़ा.

गांववालों का आरोप है कि इस कैंप के लिए ज़मीन को, ‘रात के पहर में’ बिना किसी को कुछ बताए ‘कुछ ही घंटों में’ घेर लिया गया.

विरोध प्रदर्शन

आदिवासियों और सुरक्षाकर्मियों के बीच तनाव

ये बात पिछले साल 12 मई की है और अगले तीन चार दिनों में ही पूरे इलाके के आदिवासी ग्रामीण गोलबंद होने लगे. सुदूरवर्ती गांवों से आदिवासी जमा होने लगे और टकराव की स्थिति पैदा होने लगी. इस बीच यहाँ पर तैनात सुरक्षा बलों के जवानों और आदिवासियों के बीच झड़पें भी होने लगीं.

तेलम रामदास, सुकमा के जंगलों में बसे कोडपल्ली पंचायत के रहने वाले हैं. वो बताते हैं कि पहली बार ऐसा हुआ कि जंगल में सुरक्षा बलों के जवान आंसू गैस के गोले दाग़ रहे थे.

मगर 17 मई को हालात ऐसे पैदा हो गए जब स्थिति नियंत्रण से बाहर होने लगी. हज़ारों की संख्या में आदिवासी कैंप के विरोध में तिम्मेर की तरफ़ बढ़ने लगे. सुरक्षा बलों ने इस दौरान गोली चला दी जिसमें घटनास्थल पर ही तीन लोगों की मृत्यु हो गयी जबकि एक गर्भवती महिला ग्रामीण की मौत अस्पताल में हुई.

स्थानीय आदिवासियों का आरोप है कि लगभग 258 लोगों को चोटें भी आयीं जिन्हें पुलिस ने ‘बेरहमी से पीटा’ था. 17 मई से रह रहकर चल रहे आंदोलन की दिशा बदल गयी और दूर दराज़ के जंगलों से आदिवासियों ने सिलगेर के इलाके में रात दिन डेरा डाल दिया.

दिल्ली की सरहदों पर किसानों के प्रदर्शन के बाद ये दूसरा ऐसा आन्दोलन है जो एक साल से ज़्यादा समय से चल रहा है. वो भी घने जंगलों के अन्दर. आदिवासियों का कहना है कि सुरक्षा बलों के कैंपों की वजह से जंगल कट रहे हैं और निर्दोष लोगों को नक्सली बताकर जेल भेजा जा रहा है.

एक साल से जारी आंदोलन

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ड्रामा क्वीन

समाप्त

बीजापुर के एसपी आंजनेय वार्ष्णेय ने बीबीसी से बात करते हुए कहा कि आदिवासियों का एक साल से ज़्यादा चल रहा आंदोलन स्वतःस्फूर्त नहीं है. उन्होंने आरोप लगाया कि माओवादी इस आन्दोलन में शामिल होने के लिए आदिवासी ग्रामीणों को फ़रमान जारी कर रहे हैं.

उनका कहना था, “माओवादी फ़रमान जारी करते हैं. किसी सप्ताह किसी गाँव के लोगों से धरने पर बैठने के लिए कहा जाता है तो अगले सप्ताह किसी और गाँव के आदिवासियों को इसमें शामिल होने की हिदायत दी जाती है.”

दावों के बावजूद ये भी सच है कि बस्तर के इतिहास में गोंड, मुड़िया और माड़िया आदिवासियों का ये सबसे लंबा चलने वाला आंदोलन है. अब सिलगेर में भी वैसे ही दृश्य दिखते हैं जैसे किसान आन्दोलन के दौरान देखने को मिलते हैं. एक मंच है जहां आन्दोलन कर रहे आदिवासी ग्रामीण मूलवासी बचाओ मंच के बैनर तले जमा हैं.

इस आन्दोलन का समर्थन करने वाले संगठनों के कार्यकर्ता भी सिलगेर पहुँचते हैं और मंच से आदिवासियों को संबोधित भी करते हैं. लेकिन मंच से पहले ही आदिवासियों ने डेरे बना रखे हैं जहां खाना पकाने का इंतज़ाम है. धरने पर बैठे लोगों के लिए यहाँ भोजन की व्यवस्था है.

तेलम रामदास कहते हैं कि डेरे पर भोजन सबके सहयोग से पकता है. गावों से ग्रामीण अनाज देते हैं जबकि सब्ज़ियां और इमली जंगल से लायी जाती हैं.

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तेलम रामदास
इमेज कैप्शन,तेलम रामदास, मूलवासी बचाओ मंच, सिलगेर

सुरक्षाबलों पर यातनाएं देने का आरोप

इसी डेरे में हमारी मुलाक़ात एक 15 साल के आदिवासी बच्चे से हुई जिसकी उंगलियाँ ‘की-बोर्ड’ पर आन्दोलन से संबंधित विरोध के गीतों की धुन बनाने के लिए बिजली की तरह दौड़ रही हैं.

इनके गीतों में विश्व भर के आदिवासियों के संघर्ष की दास्तां को बयान किया जा रहा है- चाहे वो अफ्रीका के आदिवासी हों, लैटिन अमेरिका या ब्राज़ील के आदिवासी हों. बच्चे की बनायी धुन पर आदिवासी महिलाएं और पुरूष पारंपरिक नृत्य भी करते रहते हैं.

धरने पर मौजूद ग्रामीण कहते हैं कि उनका आंदोलन शांतिपूर्ण तरीक़े से ही चल रहा था और अब भी शांतिपूर्ण तरीक़े से ही चल रहा है. वो आरोप लगाते हैं कि सुरक्षा बलों के जवानों और अधिकारियों ने ‘निहत्थे आदिवासियों’ पर गोलियां चलायीं और ‘यातनाएं दीं’.

तेलम रामदास कहते हैं, “बस्तर में सुरक्षा बलों के कैंप नहीं लगने चाहिए. बस्तर में जो नरसंहार हुआ उस दौरान जो मरे उनके आश्रितों को एक करोड़ और जो घायल हुए उन्हें पचास लाख रूपए बतौर मुआवज़ा मिले. बिना ग्राम सभा की अनुमति के यहाँ कैंप नहीं लगने चाहिए. रोड बनाने के नाम पर पेड़ों को काट रहे हैं. इमली के पेड़ों को काट रहे हैं. महुआ के पेड़ों को काट रहे हैं. गांवों के बीच से रोड ले जा रहे हैं.”

वो कहते हैं कि सरकार जंगलों में कैंप लगाती है फिर सुरक्षा बल के जवान “गश्त के नाम पर गावों में घुस जाते हैं”. उनका आरोप है कि आदिवासी ग्रामीणों और युवकों को नक्सली बताकर पकड़ लेते हैं और जेल भेज देते हैं. वो कहते हैं कि इसी वजह से आदिवासी कैंप और रोड का विरोध कर रहे हैं.”

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नोइका बसंती
इमेज कैप्शन,नोइका बसंती जिनका आरोप है कि उनके चाचा की मौत गोलीबारी में हुई

न्याय की आस में आंदोलन

नोइका बसंती के चाचा भी प्रदर्शनकारियों में शामिल थे. उनकी मौत गोली लगने से हुई. उनके परिजन इंसाफ़ की आस लिए सिलगेर के जंगलों में जमे हुए हैं. अब बसंती धरना स्थल पर ही रहती हैं. वो कहती हैं कि वो 17 मई को हुए गोलीकांड की चश्मदीद भी हैं.

बीबीसी से बात करते हुए बसंती का कहना था, “17 मई को फ़ायरिंग हुई. उस दिन हम सब यहीं थे. धरना दे रहे थे. मैं खुद अपनी आँखों से देखा हूँ अपने चाचा उईका पांडू को गोली लगते हुए. वो वहीं पर गिर गए थे. हम उनकी लाश को लेने गए तो पुलिस ने कहा कि तुम लोगों को भी इसी जगह पर मार डालेंगे. हम सब वापस लौट औए. गाँव में ख़बर भेजी. गाँव वाले आये लाश लेने. लाश को बीजापुर भेज दिया था. फिर वहां गए. 19 मई को लाश लेकर यहाँ आये और दफ़ना दिया.”

बसंती के अलावा उईका पांडू के दुसरे परिजन भी धरना स्थल पर ही रह रहे हैं. हाल ही में छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने बस्तर संभाग के दौरे के क्रम में पत्रकारों से बात करते हुए कहा कि सिलगेर गोलीकांड की जांच कराई गयी है जिसकी रिपोर्ट भी आ गयी है.

उनका कहना था कि रिपोर्ट के आधार पर जल्द कार्रवाई भी की जायेगी. लेकिन मुख्यमंत्री की घोषणा को एक महीने से भी ज़्यादा बीत गया है और घटना में मारे गए लोगों के परिजन और जो घायल हुए थे, उनके लिए इंतज़ार काफ़ी लंबा हो गया है.

जंगलों में कैंप का विरोध जारी

सिलगेर और इसके आगे के जो इलाके ऐसे हैं जहां पहुंचना बहुत ही मुश्किल है और जोख़िम भरा भी. सरकार इन इलाकों में सड़क निर्माण का काम कर रही है और इसी वजह से चप्पे चप्पे पर केंद्रीय सुरक्षा बलों के नए कैंप स्थापित किये जा रहे हैं.

गांगी मंडावी का गांव सिलगेर के धरना स्थल से 50 किलोमीटर दूर जंगलों के अन्दर है. वो बताती हैं कि उन्हें यहाँ तक जंगल के रास्ते पैदल आने में तीन दिन लग गए. मगर बावजूद इसके आदिवासियों को अपने इलाके में सड़क नहीं चाहिए. वो कहती हैं कि जंगलों में कैंप की वजह से आदिवासी ख़ुद को असुरक्षित महसूस कर रहे हैं.

गांगी कहती हैं, “पहले तो हम आदिवासी महिलाएं जंगल में अकेले भी जाती थीं. अब पुलिस की वजह से जंगलों में घुसने के लिए भी डर लगता है. हमारे मर्द भी जंगल में जाते हैं. वहां पुलिस के लोग मिलते हैं तो हमारे लोगों को पकड़ कर कैंप में ले जाते हैं. वहां लाठियों से मारते पीटते हैं. जब आदिवासी कुछ नहीं बोल पाते हैं तो नक्सली होने का आरोप लगाते हैं और जेल भी भेज देते हैं. अब डर की वजह से दो तीन लोग जमा होकर लकड़ी लेने जंगल जाते हैं.”

गांगी मंडावी
इमेज कैप्शन,आदिवासी ग्रामीण गांगी मंडावी

गांगी और उनके साथ धरना स्थल पर मौजूद आदिवासियों ने ये भी आरोप लगाया कि इस साल मार्च महीने में जंगल के बीच में आधी रात में सुरक्षा बलों द्वारा ‘ड्रोन से बम’ भी फेंके गए.

गांगी पूछती हैं, “रात को दो बजे का वक़्त होगा. ज़ोर से धमाके हुए. लाइट चमकी. हम बाहर निकले तो देखा धुंआ उठा रहा है. ज़मीन में बड़ा गड्ढा था. सोचिये वही बम अगर गांव के अन्दर गिरते तो कितने ग्रामीण हताहत हो जाते. बड़े बड़े बम गिराए. विस्फोट इतना शक्तिशाली था कि ज़मीन में बड़े बड़े गड्ढे हो गए हैं. आस पास के और भी गावों हैं जहां ऐसा हुआ. हमने अपनी आँखों से देखा ड्रोन उड़ते हुए.”

हालांकि बस्तर पुलिस ने ‘ड्रोन से बमबारी’ की बात से इनकार किया है. बस्तर के आईजी पी सुंदरराज ने मीडिया को बताया था कि जंगल में सर्च ऑपरेशन के दौरान रौशनी करने वाले उपकरणों का इस्तेमाल किया जाता है. स्थानीय पुलिस अधिकारियों से इनमें एक आध ग्रेनेड कोई छूट गया होगा जबकि कुछ को पुलिस बल के जवानों ने निष्क्रिय कर दिया है.

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आदिवासी युवक सोढ़ी भीमा
इमेज कैप्शन,आदिवासी युवक सोढ़ी भीमा

ड्रोन से कार्रवाई पर रोक की मांग

हालांकि इस मामले में करीब तीस मानवाधिकार कार्यकर्ताओं ने मई महीने में केंद्रीय गृहमंत्रालय और छत्तीसगढ़ सरकार से ड्रोन से होने वाली कार्रवाई पर तत्काल रोक लगाने की मांग भी की थी.

आदिवासी युवक सोढ़ी भीमा मेरे पास आकर पूछते हैं, “क्या मैं आपको नक्सली लगता हूँ?” मेरे पास इसका कोई जवाब नहीं था. मैंने उनसे जानना चाहा कि वो ऐसा क्यों पूछ रहे हैं तो भीमा ने कहा, “कल परसों भी मैं (पास के ही क़स्बे) बासागुड़ा गया था सामान खरीदने. चेक पोस्ट में तैनात पुलिसवाले बोल रहे थे. तुम्हारे पीछे नक्सली हैं. वो तुम्हे समर्थन और पैसा दे रहे हैं. मैं जवाब दे रहा था तो मुझे धमकाते हुए कहा ज़्यादा मत बोल नहीं तो….”

भीमा कहते हैं कि बाज़ार या पास के कस्बों में लगने वाले हाट जाने पर आदिवासी युवकों और युवतियों को इसी तरह का सामना करना पड़ता है. “बाज़ार जाने से नक्सली कहकर हमें परेशान करते हैं. मुझे बोलते हैं तू नक्सलियों का आदमी है. इसलिए कैंप हमको नहीं चाहिए और रोड नहीं चाहिए.”

पुलिस और स्थानीय प्रशासन का दावा है कि अगर माओवादियों का समर्थन ना हो तो सिलगेर का आंदोलन इतना लंबा नहीं खिंच पाता. बीजापुर के पुलिस अधीक्षक आंजनेय वार्ष्णेय से जब बीबीसी ने संपर्क किया तो उनका कहना था, “आदिवासी ग्रामीण विकास चाहते हैं. वो सड़क चाहते हैं. लेकिन कुछ लोग ऐसे हैं जो नक्सलियों के दबाव में आ रहे हैं और फ़र्ज़ी आंदोलन खड़ा कर रहे हैं.”

बीजापुर के पुलिस अधीक्षक आंजनेय वार्ष्णेय
इमेज कैप्शन,बीजापुर के पुलिस अधीक्षक आंजनेय वार्ष्णेय

वार्ष्णेय के अनुसार जो एक ‘मौलिक आन्दोलन’ होता है ‘उस तरह की कोई चीज़ नहीं’ है यहाँ पर.

उन्होंने कहा, “सड़क का विस्तार हो रहा है. बिजली के तार जा रहे हैं. वहाँ पर राशन की दुकानें खोली जा रही हैं. स्वास्थ्य केंद्र खुल रहे हैं. क्योंकि जनता की मंशा है, शासन की मंशा है. सब लोग एक साथ हैं. उनकी जो मांगें हैं उस पर सरकार विचार कर रही है. जो भी जांच में आया है प्रशासन के स्तर पर उस पर कार्यवाही की जायेगी.”

हालांकि राज्य सरकार ने स्थानीय आदिवासियों के साथ संवाद स्थापित करने की कोशिश भी की है, लेकिन जाँच की रिपोर्ट पर कार्रवाई और मुआवज़े के बिना सरकार के आश्वासनों पर लोगों को भरोसा करना मुश्किल हो रहा है. यही वजह है कि धरना लगातार जारी है और अब कई संगठनों का समर्थन भी इसे मिल रहा है.

जहां तक आदिवासियों की बात है तो सुरक्षा बलों और माओवादी छापामारों के बीच चल रहे युद्ध में वे पहले भी पिसते रहे हैं और आज भी पिसते दिख रहे हैं.