एक वैद्य ने 137 साल पहले छोटे से क्लिनिक से शुरुआत की थी Dabur की, आज 1 लाख करोड़ का है ब्रांड

किसी भी बड़े बिजनेस साम्राज्य की शुरुआत हमेशा छोटे स्तर से ही होती है. बिजनेस की नींव रखने वाले अपना काम कर के चले गए, इसके बाद उनकी आने वाली पीढ़ियों ने ये तय किया वे इस नींव पर झोंपड़ी खड़ी करेंगे या फिर कामयाबी की बहुमंजिला इमारत. डाबर नामक बिजनेस साम्राज्य की नींव भी आज से लगभग 130 साल पहले ऐसे ही छोटे स्तर पर रखी गई थी लेकिन उनके बाद आने वाली पीढ़ी ने इस नींव पर सफलता की इमारत खड़ी कर दी.

तो चलिए आज हम आपको बताते हैं डाबर जैसे ब्रांड की कामयाबी की कहानी : 

क्या हैं आज डाबर के मायने

Sudarshna Sudarshna

पंजाब के पठानकोट जिले के नीम पहाड़ी क्षेत्र धार कलां के गांव हाड़ा की एक महिला का हमेशा लोग मज़ाक उड़ाते थे. ये 75 वर्षीय महिला जब भी अपने हाथों से बने उत्पाद लेकर बाजार की तरफ जाती तो लोग इनका मजाक उड़ाते हुए कहते कि ये तो कहीं भी झोला लेकर चल देती है. लेकिन इस महिला ने किसी की एक नहीं सुनी और अपने बनाए खाद्य उत्पादों को लोगों तक पहुंचाने की कोशिश करती रहीं. आज सुदर्शना नामक ये महिला कई ग्रामीण महिलाओं के लिए प्रेरणास्त्रोत हैं. सुदर्शना को राष्ट्रीय स्तर पर महिला किसान अवार्ड के लिए चुना गया तथा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा वह सम्मानित हुईं.

आप सोच रहे होंगे कि डाबर की कामयाबी की कहानी में सुदर्शना की क्या भूमिका है. तो जान लीजिए कि सुदर्शना जैसी महिलाओं से ही डाबर है और डाबर ही वो कंपनी है जिसने इन जैसी कई महिलाओं को राष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाई है. सुदर्शना सेल्फ हेल्प ग्रुप बनाकर अपने बगीचों के आम, आंवले और बांस से बने उत्पाद ऑनलाइन बेचने व लाखों रुपये की कमाई करके महिला सशक्तिकरण की मिसाल बन गई हैं. और उनकी इस सफलता में विश्वविख्यात कंपनी डाबर ने उनकी मदद की. आज वो डाबर की थोक सप्लायर भी हैं. उन्हीं के ग्रुप से आंवला और अन्य सामान डाबर को सप्लाई किया जाता है.

ऐसे बहुत से जरूरतमन्द लोग हैं जिनको आगे बढ़ाने में डाबर ने अपनी अहम भूमिका निभाई है. हालांकि ये भी सच है कि इन जैसे लोगों की वजह से ही आज डाबर देश का भरोसेमंद ब्रांड बना हुआ है. ऐसे में इस ब्रांड की सक्सेस स्टोरी जानना हम सबके लिए जरूरी है.

कैसे हुई डाबर की शुरुआत

Dr. SK BurmanTwitter

साल था 1884, आज आधुनिकता की दौड़ का हिस्सा बना हमारा देश उन दिनों हैजा और मलेरिया जैसी बीमारियों से उतना ही परेशान था जितना आज कोरोना से. ये बीमारियां उन दिनों ऐसी थीं जिनका इलाज जल्दी संभव नहीं था. इसी दौर में एक आयुर्वेदिक डॉक्टर हुए, जिनका नाम था डॉ एस के बर्मन. कलकत्ता के डॉ एस के बर्मन ने एक वैद्य के रूप में अपने छोटे से क्लीनिक में लोगों का आयुर्वेदिक इलाज करने से अपने करियर की शुरुआत की. उन्होंने आयुर्वेद की मदद से हैजा और मलेरिया में कारगर साबित होने वाली दवाइयां भी बनाईं. 1884 ही वो साल था जब डॉ बर्मन ने आयुर्वेदिक हेल्थकेयर प्रोडक्ट बनाने की शुरुआत की. दरअसल उनकी ये शुरुआत ही डाबर जैसे हेल्थ केयर बिजनेस की नींव थी.

कैसे पड़ा ‘डाबर’ नाम

डॉ बर्मन को लोग डाक्टर कहा करते थे. ऐसे में उन्होंने अपने ही नाम से शब्द लेकर अपने हेल्थ केयर प्रोडक्ट्स कंपनी का नाम रखा. उन्होंने डाक्टर का ‘डा’ और बर्मन का ‘बर’ लेकर इस ब्रांड को नया नाम दिया डाबर. डॉ साहब कहां जानते थे कि उनके द्वारा रखा गया ये नाम एक दिन पूरे देश ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में अपना नाम करेगा. हाथ से ही जड़ी बूटियां कूट कर अपने उत्पाद बनाने वाले डॉ बर्मन के प्रोडक्ट 1896 तक इतने लोकप्रिय हो गए कि उन्हें एक फैक्ट्री लगानी पड़ी.

डॉ बर्मन की मौत के बाद डाबर का सफर

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डाबर धीरे धीरे सफलता की ऊंचाइयां छूने की तरफ बढ़ रहा था लेकिन उन्हीं दिनों 1907 में डॉ एस के बर्मन डाबर को अपनी अगली पीढ़ी के हाथों में सौंप कर हमेशा के लिए इस दुनिया से चल बसे. उनके शुरू किये इस हेल्थ केयर बिजनेस की बागडोर अब उनके बेटे सी एल बर्मन के हाथ में थी. आगे सीएल बर्मन की सोच ही ये साबित करने वाली थी कि वह अपने पिता के इस बिजनेस को कामयाबी की ऊंचाइयों तक ले जाएंगे या फिर फिर से सब कुछ सिमट जाएगा. लेकिन सी अल बर्मन ने वही किया जो एक होनहार बेटा कर सकता है. उन्होंने डाबर के लिए रिसर्च लैब की शुरुआत की इसके साथ ही कंपनी के प्रोडक्ट्स का विस्तार भी किया.

डाबर ने की दिन दुगनी रात चौगुनी तरक्की

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कलकत्ता की तंग गलियों में शुरू हुआ डाबर का सफर 1972 में दिल्ली के साहिबाबाद की विशाल फैक्ट्री, रिसर्च और डेवलपमेंट सेंटर तक पहुंच चुका था. कंपनी का मुनाफा इतना बढ़ गया था कि 1994 में इसने अपने शेयर लॉन्च कर दिए. इधर लोगों का भरोसा भी इस स्वदेशी कंपनी पर बन चुका था. नतीजा ये निकला कि डाबर का IPO 21 गुना ज्यादा सब्सक्राइब किया गया.

डॉ बर्मन ने अपने हाथों से जिन हेल्थ केयर प्रोडक्ट्स को बनाने की शुरुआत की थी वो 1996 तक इतने ज्यादा बढ़ गए कि उन्हें तीन हिस्सों में बांटना पड़ा. अब डाबर हेल्थकेयर, फैमिली प्रोडक्ट और आयुर्वेदिक प्रोडक्ट जैसे तीन हिस्सों में बंट चुका था.

पहली बार बना कोई बाहरी सीईओ

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1998 में बर्मन परिवार पहला ऐसा व्यवसायी परिवार बना जिसने खुद को कंपनी की सीईओ पोस्ट से अलग रखते हुए किसी बाहरी को कंपनी का सीईओ चुना. अब डाबर कंपनी की बागडोर बर्मन परिवार के हाथों से निकाल कर  प्रोफेशनल्स के हाथों में सौंप दी गई थी. इसका नतीजा ये निकला कि साल 2000 में पहली बार डाबर कंपनी का टर्नओवर 1 हजार करोड़ के आंकड़े के पार पहुंचा.

2005 में डाबर ने 143 करोड़ रुपए में ओडोनिल जैसे हाइजीन प्रोडक्ट बनाने वाली बल्सरा ग्रुप का अधिग्रहण किया. 2006 में डाबर का मार्केट कैप 2 बिलियन डॉलर पार कर चुका था और 2008 में इस कंपनी ने फेम केयर फार्मा का अधिग्रहण कर लिया. 2010 में डाबर ने होबी कॉस्मेटिक नाम की पहली विदेशी कंपनी का अधिग्रहण किया. 2011 में डाबर ने प्रोफेशनल स्किन केयर मार्केट में एंट्री की. डाबर ने इसी साल अजंता फार्मा की 30-प्लस का अधिग्रहण किया.

बचपन की यादों में है डाबर

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डाबर हमारी बचपन की यादों से भी जुड़ा हुआ है. चटकारे लेकर खाने वाले हाजमोला से लेकर सर्दियों में खाए जाने वाले डाबर च्यवनप्राश तक हमने डाबर के कई उत्पादों को अपने करीब पाया है. आज डाबर, च्यवनप्राश, डाबर हनी, डाबर हनीटस, डाबर पुदीन हरा, डाबर लाल तेल, डाबर आंवला, डाबर रेड पेस्ट, रियल जूस और वाटिका जैसे कई प्रोडक्ट्स को चला रहा है. इसी के साथ इन्हीं 9 सेगमेंट में नए-नए प्रोडक्ट भी लॉन्च किए गए हैं.

डॉ एस के बर्मन द्वारा छोटे से क्लिनिक से शुरू हुआ डाबर का सफर कामयाबी की उन बुलंदियों तक पहुंच चुका है जहां बर्मन परिवार की टोटल नेट वर्थ 11.8 बिलियन डॉलर हो गई है. तथा इस कंपनी को डॉ सी के बर्मन की पांचवीं पीढ़ी चला रही है.