दाल बाटी चूरमा: सैनिकों की भूख मिटाने वाली 1300 साल पुरानी बाटी, जो आज राजस्थानी थाली की शान है

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इस देसी डिश का देसी स्वाद दिलों-दिमाग में घुल जाता है. जैसा इसका स्वाद है वैसा ही है इसका इतिहास है. इसके शुरू होने की कहानी बड़ी ही दिलचस्प है. सैनिकों से शुरू होते हुए मुग़ल दरबार में इसकी चर्चा की कहानी दिलचस्प है.

राजस्थान शब्द सुनकर दिमाग में एक छवि उभरती है. रेगिस्तान, ऊंट, पारंपरिक परिधान, किले-हवेलियां और खाना. खाना बोले तो सबसे पहले ज़हन में दाल-बाटी-चूरमा ही आता है. ये राजस्थानी डिश उत्तर भारत में लोगों द्वारा ख़ासा पसंद की जाती है. 

इस देसी डिश का देसी स्वाद दिलों-दिमाग में घुल जाता है. जैसा इसका स्वाद है वैसा ही है इसका इतिहास है. इसके शुरू होने की कहानी बड़ी ही दिलचस्प है. सैनिकों से शुरू होते हुए मुग़ल दरबार में इसकी चर्चा की कहानी दिलचस्प है.

1300 साल पहले भूखे सैनिकों का सहारा थी दाल बाटी

अपने आप में एक भरपूर खाना है दाल-बाटी-चूरमा. इसका ज़िक्र तो ट्रैवलर इब्नबतूता की बुक्स में भी मिल जाता है. ट्रेवलर इब्नबतूता ने इस डिश का जिक्र कुछ ऐसे किया है कि सूरज की रौशनी में पके गेंहू से बनी बाटी. इस समय गेहूं, ज्वार, बाजरा और अन्य अनाज आम और भोजन का हिस्सा थे.

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बाटी अस्तित्व में कैसे आई? 

बाटी बिना नमक डाले गेंहू से बनती है, जिसमें घी और ऊंट के दूध का इस्तेमाल किया जाता है. इसका ज़िक्र सबसे पहले राजस्थान में मेवाड़ साम्राज्य के संस्थापक बप्पा रावल के समय में मिलता है. यह बात 1300 साल पहले यानी 8वीं शताब्दी की है. अपना साम्राज्य स्थापित करने से पहले वो एक चारवाह योद्धा जनजाति थे. उन्हें मान मोरी से चित्तौड़ दहेज़ के रूप में मिला है. बाटी गुहिलाओं का ऑफिसियल युद्ध के समय खाया जाने वाला खाना था.

कहा जाता है कि भूखे सैनिक आटे के टुकड़े बनाकर गर्म रेत में दबा देते थे. जब वो वापस आते थे, तब तक वह गर्म रेत में अच्छी तरह से भुन चुके होते थे. इसके बाद वो इसमें घी डालकर खाते थे. अच्छा दिन होता था, तो दही या छाछ से वो काम चला लेते थे. 

व्यापारियों का आगमन और दाल का जुड़ना

धीरे-धीरे इस डिश में चूरमा और पंचमेल दाल भी जुड़ गए. पुरातत्वों का मानना है कि अभी भी ज़मीनी स्तर पर लोग बाटी को घी, छाछ और बकरी या ऊंट ने दूध से बनी दही से ही खाते हैं. जबकि ऊंच या संपन्न जाति के लोग इसके साथ दाल का इस्तेमाल करते हैं.

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बाटी के साथ दाल के कॉम्बिनेशन की कई कई कहानियां है. जैसे मेवाड़ में व्यापारियों के आकर बसने से इसकी शुरुआत और गुप्ताकाल में पंचमेल दाल का शाही खाने के रूप में शामिल किया जाना.

गलती से बाटी में गिरा गन्ने का रस और बना चूरमा!

दाल की बात तो कर ली, अब चूरमा का ज़िक्र तो बनता ही है. इसके पीछे भी हाउस ऑफ़ मेवाड़ और गुहिला साम्राज्य ही है. प्रचलित कहानियों के अनुसार, एक युद्ध के दौरान एक बावर्ची ने गलती से गन्ने के रस को बाटी में डाला दिया था, इसके बाद चूरमा ईजाद हुआ. जबकि एक कहानी के अनुसार, गृहणियां बाटी को गुड़ या चीनी के पानी में डाल देती थी ताकि उनके पति जब खाने पर आये तो ये नरम और ताज़ा रहे. 

इस तरह मेवाड़ से निकला सुपर टेस्टी खाना या डिश: दाल बाटी चूरमा. समय के साथ अलग-अलग जगहों और समुदायों ने इसमें अपना फ्लेवर और रूप दिया है. इसमें कढ़ी और साग भी जोड़े गए.

रानी जोधा बाई संग पहुंचा मुग़लों के बीच

इस डिश के मुग़ल दरबार तक पहुंचने की कहानी भी बड़ी ज़बरदस्त और इंटरेस्टिंग है. माना जाता है कि रानी जोधा बाई के ज़रिये ये डिश मुग़ल दरबार तक पहुंची. मुग़ल साम्राज्य के शाही शेफों ने इसे नए तरीके से बनाना शुरू किया और नाम दिया दाल-बाफ़ला और खीच. इस तरह दाल-बाटी-चूरमा राजस्थान से मुगल साम्राज्य पहुंचा. बाटी और बाफले में एक ही फर्क है की बाटी कंडों/ अवन पे सेंकी जाती है और बाफले उबाल कर कंडों पे सेंके जाते हैं.

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