2022-09-01
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द्विभाषी नीति से भाषायी हमला
चीन ने तिब्बत में कई शिक्षण संस्थान तोड़ने के बाद नीतिगत स्तर पर अपने प्रयास तेज कर दिए हैं, जिससे तिब्बत में भाषायी और सांस्कृतिक पहचान को ही मिटा दिया जाए। चीन इस नई रणनीति पर काम कर रहा है। इसके तहत प्रयास है कि तिब्बत की नई पीढ़ी आजादी की बात करना ही छोड़ दे। चीन ने कुछ समय पहले तिब्बत के स्कूलों में द्विभाषी फार्मूला लागू कर दिया था। तिब्बत के स्कूलों में तिब्बती भाषा के अलावा चीनी भाषा सीखना भी अनिवार्य कर दिया गया। पाठ्य पुस्तकों को भी चीनी भाषा में शुरू किया गया ताकि, तिब्बत की नई पीढ़ियां अपनी जड़ों से कट सके।
31 मार्च, 1959 में मैकमोहन रेखा पार कर तिब्बती धर्मगुरु अपने सहयोगियों के साथ भारत में दाखिल हुए थे। निर्वासन के शुरुआती कुछ दिन देहरादून में बिताने के बाद तिब्बत के आध्यात्मिक गुरु दलाईलामा धर्मशाला आ गए थे। धर्मशाला के मैक्लोडगंज की भौगोलिक परिस्थितियां और जलवायु काफी हद तक तिब्बत से मेल खाती हैं। इसलिए, धर्म गुरु दलाईलामा को यह जगह काफी पसंद आई। अपने भाषणों में वह कई बार धर्मशाला की इन खूबियों का जिक्र भी कर चुके हैं। धर्मशाला को कर्मभूमि मानने वाले धर्म गुरु मैक्लोडगंज को जन्मभूमि से भी महान मानकर इससे प्रेम करते रहे हैं। दुनिया भर के देशों में धर्मशाला से ही उन्होंने अहिंसा, शांति और करुणा के जीवन मूल्यों को प्रचारित एवं प्रसारित किया है।
दलाई लामा के अवास स्थान के अलावा यहां रह रहे करीब दस हजार तिब्बती अपनी परंपराओं, त्योहारों और उत्सवों को पारंपरिक तरीके से मनाते हैं। इनमें एक प्रमुख अवसर है तिब्बती समुदाय का नव वर्ष यानी लोसर पर्व। इस अवसर पर मुख्य बौद्ध मंदिर एवं मठों में विविध धार्मिक अनुष्ठान किए जाते हैं। समुदाय की ओर से विश्व शांति के लिए दीप जलाकर विशेष पूजा अर्चना की जाती है। धर्म गुरु दलाईलामा की दीर्घायु के लिए लगाया गया ध्वज भी बदला जाता है। यह ध्वज गुरु की दीर्घायु के साथ ही समुदाय के शुभंकर का प्रतीक है। मैक्लोडंगज के मुख्य बौद्ध मंदिर में हर वर्ष जुलाई माह में दलाई लामा का जन्मदिन पारंपरिक तरीके से पूरे हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। वहीं, मैक्लोडगंज के चुगलाखंग बौद्ध मठ में लोकतंत्र दिवस की वर्षगांठ पर हर साल दो सितंबर को प्रजातंत्र दिवस मनाया जाता है। इस दौरान रंगारंग छटा बिखेरते सांस्कृतिक कार्यक्रम तिब्बती की मनोहारी लोक संस्कृति आईना होते हैं। हर वर्ष बुद्ध पुर्णिमा से लेकर तथागत बुद्ध के जीवन को खास पर्वों को भी जोरशोर से मनाया जाता है।
तिब्बती धर्म गुरु दलाईलामा को 10 दिसंबर, 1989 को शांति नोबेल पुरस्कार से नवाजा गया था। 10 दिसंबर को दलाई लामा को नोबेल पुरस्कार मिलने की याद में हर वर्ष कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है। इस दिन तिब्बती विशेष पूजा-पाठ करते हैं। पारंपरिक परिधानों और अपनी संस्कृति को जीवंत रूप में संजोए रखने वाले तिब्बती समुदाय के लोग एक-दूसरे को बधाई देते हैं। पारंपरिक लोक नृत्यों तथा गीतों का सिलसिला दिनभर चलता है। इस प्रकार से हर वर्ष मनाए जाने वाले उत्सवों, त्योहारों या खास अवसरों में तिब्बत की सांस्कृतिक विविधता और खूबियां झलकती हैं। मैक्लोडगंज में इन सांस्कृतिक रंगों को देखने वालों को तिब्बत जैसा ही आभास होता है।
तिब्बती संघर्ष को दिखाता संग्रहालय
अपर धर्मशाला में तिब्बत के प्रधानमंत्री पेंपा सेरिंग ने केंद्रीय तिब्बती प्रशासन के माध्यम से तिब्बत संग्रहालय शुरू किया गया है। इस संग्रहालय में देश विदेश से आने वाले तिब्बतियों और विदेशियों को तिब्बती संघर्ष के बारे में जानकारी उपलब्ध करवाई जाती है। वहीं, धर्मशाला के नोर्बुलिंका में तिब्बती मठ के साथ ही एक विशाल म्यूजियम बनाया गया है। इस म्यूजियम में तिब्बती इतिहास और संस्कृति से जुड़े महत्वपूर्ण लेख, कलाकृतियां और दस्तावेज तिब्बती जीवन और संघर्ष की यादों को संजोकर रखा गया है। इसी वर्ष दलाई लामा के जन्मदिन पर एक नया म्यूजियम और पुस्तकालय उनके आवास स्थान के नजदीक खोला गया है। इस म्यूजियम में तिब्बती साहित्य के अलावा दलाई लामा से जुड़े महत्वपूर्ण दस्तावेज, प्रशस्ति-पत्र एवं पुरस्कार संरक्षित कर रखे गए हैं।
भारत और दुनिया के विभिन्न देशों में करीब डेढ़ लाख तिब्बती शरणार्थी के रूप में रह रहे हैं। धर्म गुरु दलाईलामा के जीवन और शिक्षाओं से प्रभावित होकर बड़ी संख्या में अन्य लोग उनका अनुसरण करते हैं। अपने भगवान या गुरु के रूप में दलाईलामा के दर्शनों के लिए तिब्बती रंगों में रचे-बसे मैक्लोडगंज में जब ये लोग आते हैं, तो अपनी मन की कल्पना से मानों तिब्बत देश में ही पहुंच जाते हैं। मैक्लोडगंज धर्म गुरु दलाईलामा और तिब्बती संस्कृति के प्रभाव से पूरी तरह से प्रभावित नजर आता है। इसलिए, मैक्लोडगंज को ‘मिनी तिब्बत’ के रूप में भी जाना जाता है। -आचार्य येशी फुंचोंक, निर्वासित तिब्बती संसद के उपाध्यक्ष
भारत में शासक कोई भी रहा हो, सभी मानते थे कि तिब्बत एक स्वतंत्र और अलग देश है। यहां तक कि नेहरू, जिनके राज्यकाल में तिब्बत का अस्तित्व और भविष्य दांव पर लगा, वे भी मानते थे कि तिब्बत एक अलग आजाद देश है। यही कारण था कि 1947 से कुछ महीने पहले उन्होंने दिल्ली के पांडव किला में एशिया के देशों का एक सम्मेलन बुलाया था, जिसमें तिब्बत और चीन दोनों ने हिस्सा लिया था और दोनों देशों के झंडे लहराए गए थे। इस बार दलाईलामा के जन्मदिन को भारत सरकार ने जिस प्रकार महत्ता प्रदान की है, उसके संकेत भी चीन से छिपे हुए नहीं हैं। चीन जानता है कि भारत-चीन विवाद से तिब्बत के भीतर रह रहे तिब्बतियों को नैतिक बल मिलता है।
तिब्बत में निरंतर चीन के खिलाफ विद्रोह होते रहते हैं
तिब्बत के लोग, तिब्बत के भीतर और बाहर निरंतर चीन से लड़ाई लड़ रहे हैं। उनकी दलाईलामा में आस्था डगमगाई नहीं है। ध्यान रखना चाहिए तिब्बत में राष्ट्र एवं राष्ट्रीयता का प्रतीक तिब्बत का भू-भाग नहीं है, बल्कि दलाईलामा हैं। तिब्बत के लोग मानते हैं कि जब तक दलाईलामा सुरक्षित हैं, तब तक तिब्बत एवं उसकी राष्ट्रीयता सुरक्षित है। यही कारण है कि तिब्बत के भीतर निरंतर विद्रोह होते रहते हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि विद्रोह करने वाली युवा पीढ़ी है, जिसने कभी दलाईलामा के दर्शन भी नहीं किए हैं। वे दलाईलामा के नाम पर चीन की सरकार को ललकारते रहते हैं।
शायद बहुत कम लोगों को पता होगा कि पिछले पांच साल में डेढ़ सौ से भी ज्यादा तिब्बती युवाओं व भिक्षुओं ने चीन के आधिपत्य का विरोध करते हुए आत्मदाह किया है। दुनिया के स्वतंत्रता संग्रामों में यह विलक्षण उदाहरण है। तिब्बत का यह स्वतंत्रता संग्राम अहिंसक है। वे आत्म बलिदान कर रहे हैं, लेकिन चीन के अधिकारियों के खिलाफ बल प्रयोग नहीं कर रहे। चीन चाहता है कि तिब्बत के लोग चीन के खिलाफ बल प्रयोग करें। जाहिर है चीन राज्य सरकार की मशीनरी का प्रयोग कहीं बड़े स्तर पर करके, इसी बहाने से तिब्बती स्वतंत्रता आंदोलन को कुचल सकता है।
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