धर्मशाला शहर तिब्बत ही नहीं, दुनियाभर में रह रहे तिब्बत के लोगों के लिए बेहद खास है। हो भी क्यों न। आखिर, हिमाचल का यही खूबसूरत शहर उन्हें आजादी के जुनून की ताकत और हौसलों की उड़ान दे रहा है। भविष्य की उम्मीदों का जहां भी दिखा रहा है। तिब्बती संस्कृति को सहेजने का काम भी यहीं से हो रहा है। धर्मशाला शहर का उपनगर मैक्लोडगंज तिब्बती लोगों का दशकों से बड़ा ठिकाना है और यहीं से उनकी निर्वासित सरकार चलती है। पेश है धर्मशाला से सुनील चड्ढा की रिपोर्ट…
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देवभूमि हिमाचल का धर्मशाला शहर तिब्बत ही नहीं, दुनियाभर में रह रहे तिब्बत के लोगों के लिए बेहद खास है। हो भी क्यों न। आखिर, हिमाचल का यही खूबसूरत शहर उन्हें आजादी के जुनून की ताकत और हौसलों की उड़ान दे रहा है। भविष्य की उम्मीदों का जहां भी दिखा रहा है। तिब्बती संस्कृति को सहेजने का काम भी यहीं से हो रहा है। धर्मशाला शहर का उपनगर मैक्लोडगंज तिब्बती लोगों का दशकों से बड़ा ठिकाना है और यहीं से उनकी निर्वासित सरकार चलती है। पेश है धर्मशाला से सुनील चड्ढा की रिपोर्ट…
तिब्बत की स्वायत्तता के संघर्ष को करीब छह दशकों से धर्म गुरु दलाईलामा धर्मशाला को अपनी कर्मभूमि बनाकर आगे बढ़ा रहे हैं। उन्होंने दुनियाभर में तिब्बत की पहचान और संस्कृति को जीवंत बना रखा है। अपने इस संघर्ष में दलाईलामा ने तिब्बती संस्कृति को संरक्षित करने के लिए मठों को संरक्षित किया। 31 मार्च, 1959 को दलाईलामा तिब्बत से भारत की शरण में आए थे। 17 मार्च को चीन सरकार से बचकर वह तिब्बत की राजधानी ल्हासा से पैदल निकले थे। हिमालय के पहाड़ों को पार करते हुए 15 दिन बाद वह भारतीय सीमा में दाखिल हुए थे। उस समय तिब्बत की पहचान और आजादी के संघर्ष को हमेशा जीवंत बनाए रखना दलाईलामा के सामने बड़ी चुनौती थी।
बुद्ध के उपदेश तिब्बत की सबसे सशक्त पहचान हैं। दलाईलामा ने इन उपदेशों को अपनी टीचिंग और मठ की शिक्षा व्यवस्था के माध्यम से निरंतर जीवंत बनाए रखा है। इस अभियान में वह महायान परंपरा के दुनिया भर में 262 मठ चल रहे हैं। इन मठ में तथागत बुद्ध की शिक्षाओं पढ़ाया-सिखाया जा रहा है। धर्मयोद्धा दलाईलामा इन्हीं मठों के माध्यम से तिब्बत की मूल पहचान को बचाने का अथक प्रयास कर रहे हैं। शिक्षा, संस्कार और संघर्ष को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक ले जाने में उन्होंने मठों के विकास पर विशेष जोर दिया। तिब्बत में चीन सरकार की ओर से नष्ट कर दी गई मठ परंपरा को भारत में पुनर्जीवित कर दलाईलामा ने तिब्बत की पहचान और स्वायत्तता के संघर्ष को निरंतर जीवंत बनाए रखा है।
मठ से शिक्षा हासिल कर तिब्बती शरणार्थियों के दिलो दिमाग में जहां संस्कृति और संस्कार विकसित हो रहे हैं। साथ ही राष्ट्रीय स्वाभिमान को जगाते हुए उनमें आजादी की ललक को हमेशा-हमेशा जलाए हुए है। निर्वासित तिब्बत संसद के पूर्व उप सभापति आचार्य येशी के अनुसार चीन के पूर्व शासक माओत्सुंग की विधारधारा पर चलने वाली चीन की कम्युनिस्ट सरकार धर्म को मान्यता नहीं देती है। इसी विचारधारा का अनुसरण करते हुए चीन तिब्बती के धर्म, संस्कृति और सभ्यता के सर्वनाश कीयोजना पर कार्य कर रहा है। चीन ने अपनी इस योजना के तहत चाहे जितना जोर लगा लिया हो, इसके बावजूद मठ की शिक्षा-दीक्षा में तपने वाले तिब्बतियों के दिलों दिमाग से वह अब तक आजादी की सोच को खत्म नहीं कर सका है।
हजारों लोगों के दिलों में आजादी की आग
धर्म गुरु दलाईलामा से प्रेरणा पाकर दुनियाभर में शरणार्थी बने तिब्बत के हजारों लोगों के दिलों में आजादी की आग आज भी धधक रही है। धर्म और आध्यात्म की शक्ति बनकर दलाईलामा छह दशकों से अपने लोगों की कठिन संघर्ष यात्रा धर्म योद्धा बनकर डटे हैं। शक्तिशाली चीन के सामने अहिंसा और करुणा का यह पुजारी शांति को ढाल बनाकर अजेय बना है।
दलाईलामा अपने मित्र प्रो. पीएन शर्मा के साथ – फोटो : अमर उजाला
यहीं निर्वाचित होती है निर्वासित तिब्बत सरकार
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भू-भाग नहीं, दलाईलामा हैं तिब्बत में राष्ट्र और राष्ट्रीयता का प्रतीक
