कलयुग के प्रत्यक्ष देवता भगवान हनुमान को बताया गया और मंगलवार को ही हनुमानजी का दिन माना जाता है। लेकिन दमोह जिला मुख्यालय से 27 किमी दूर बटियागड़ ब्लाक के बकायन गांव में प्राचीन हनुमान मंदिर में मंगलवार ओर शनिवार को हजारों की संख्या में श्रद्धालु दर्शनों के लिए पहुंचते हैं।
दमोह जिले में विराजमान हनुमानजी की प्रतिमा इमली के पेड़ के नीचे खुदाई में मिली थी। इसलिए कहा जाने लगा इमला वाले हनुमान। यहां मांगी गई मनोकामना पूरी होने पर कपूर की आरती कराई जाती है। जिला मुख्यालय से 27 किमी दूर दमोह-छतरपुर मार्ग पर बकायन गांव में यह दिव्य स्थान है, यहां इमला वाले हनुमान विराजमान हैं। यह मंदिर लोगों की आस्था का प्रमुख केंद्र है। यहां साल भर भक्तों का आना लगा रहता है, लेकिन मंगलवार और शनिवार को भगवान को झंडा और चोला चढ़ाने की परंपरा है। इस स्थान की ऐसी मान्यता है कि पांच मंगलवार यहां हाजरी लगाने से सभी मनोकामनाएं पूरी होती हैं।
कहा जाता है कि यह प्रतिमा 250 साल पुरानी है। गांव के बड़े बुजुर्ग बताते हैं कि यहां पहले श्मशानघाट हुआ करता था, जहां बड़ी संख्या में खजूर और इमली के पेड़ लगे थे। यहां एक संत महाजनदास आए थे। रात में उन्होंने यहां विश्राम किया। तब उन्हें एक सपना आया कि यहां एक हनुमान जी की मूर्ति है। सुबह होते ही संत ने यह बात ग्रामीणों को बताई और इमली के पेड़ के नीचे खुदाई करने पर हनुमान जी की प्रतिमा निकली, जिसे यहां विराजमान किया गया और तभी से यह स्थान इमला वाले हनुमान मंदिर के रुप में पहचाना जाने लगा।
इस स्थान के बारे में एक और किवंदती है कि कई साल पहले यहां माफीदार के यहां एक पुत्र ने जन्म लिया था, जिसके पैर पीछे थे। तब उसने हनुमान जी से विनती की कि उसके बेटे के पैरे सीधे हो जाएं। जैसे ही माफीदार घर पहुंचा उसके बेटे के पैर सीधे मिले तभी से यह स्थान चमत्कारी स्थान माने जाने लगा। इसके बाद यहां सुंदरकांड, भजन, कीर्तन शुरु हो गया और कपूर आरती भी तभी से प्रारंभ हुई। इसके बाद यहां रामचरणदास महाराज आए, जिन्होंने पूजा करके मंदिर के लिए दो एकड़ जमीन खरीदी और श्रीराम का मंदिर बनवाया। इसके बाद संत गोपालदास आए, जिन्होंने तीन एकड़ जमीन खरीदी फिर जयरामदास गांव में बनी बड़ी शाला मंदिर की पूजा के साथ साथ यहां की पूजा करने लगे। जिन्होंने 11 हेक्टेयर जमीन खरीदी इसी प्रकार प्रक्रिया चलती रही।
कहा जाता है कि करीब 55 साल पहले यहां डाकुओं ने दावत दी तो उन्हे बंदर ही बंदर नजर आए, जिससे वह डाकू धीरे-धीरे पीछे पिछलते गए और भाग निकले। महंत जयरामदास कुटरी गांव से युवा पंडित महादेवदास को यहां लाए, जिन्हें बोरे महाराज के नाम से जाना जाता था। 60 साल तक यहां बोरे महाराज रहे, जिन्होंने मंदिर के लिए छह एकड़ जमीन खरीदी और मंदिर का निर्माण करवाया, साल 2018 में वे ब्रम्हलीन हो गए। वर्तमान में यहां महंत हरिदास हैं, जो मंदिर संभालते हैं। बोरे महाराज के भतीजे रामदास बिदुआ भी साल 1978 से मंदिर की सेवा में जुटे हैं। सत्यम गौतम वर्तमान में मंदिर के पुजारी हैं।