दास्तान-गो : किस्से-कहानियां कहने-सुनने का कोई वक्त होता है क्या? शायद होता हो. या न भी होता हो. पर एक बात जरूर होती है. किस्से, कहानियां रुचते सबको हैं. वे वक्ती तौर पर मौजूं हों तो बेहतर. न हों, बीते दौर के हों तो भी बुराई नहीं. क्योंकि ये हमेशा हमें कुछ बताकर ही नहीं, सिखाकर भी जाते हैं. अपने दौर की यादें दिलाते हैं. गंभीर से मसलों की घुट्टी भी मीठी कर के, हौले से पिलाते हैं. इसीलिए ‘दास्तान-गो’ ने शुरू किया है, दिलचस्प किस्सों को आप-अपनों तक पहुंचाने का सिलसिला. कोशिश रहेगी यह सिलसिला जारी रहे. सोमवार से शुक्रवार, रोज…
सुना है, वह वापस आ रही है. एंबेसडर कार. किसी महारानी की तरह नई सज-धज के साथ. कार होने लिहाज़ से महारानी तो वह पहले भी थी अलबत्ता. मग़र कहलाती थी ‘हिन्दुस्तान की सड़कों का राजा.’ और रजवाड़ी ऐसी हुआ करती थी उसकी कि किसी ‘सम्राट’ को भी रश्क हो जाए. क्या पूरब, क्या पश्चिम. क्या उत्तर, क्या दक्षिण. हिन्दुस्तान की सरहद का कोई कोना ऐसा न था, जो उसकी हद में न आता हो. गांव, कस्बे, शहर, बड़े, बहुत बड़े शहर. ग़रीब, अमीर, ख़ास-ओ-आम. हर कहीं, हर कोई उसकी पहुंच में हुआ करते थे. सब तक उसकी पहुंच होती थी. पूरे 56 साल हिन्दुस्तान की सड़कों और हिन्दुस्तानियों के दिलों पर राज किया उसने, इसी तरह.
हिन्दुस्तान की पहली कार. हिन्दुस्तान में बनी. हिन्दुस्तान मोटर्स ने बनाई. ये साल हुआ 1958 का. हालांकि इसकी आमद की आहट हिन्दुस्तान की आज़ादी से पहले ही हो चुकी थी. उस वक़्त महात्मा गांधी के एक ख़ास राजस्थान के मारवाड़ी कारोबारी हुआ करते थे जीडी बिड़ला. घनश्याम दास बिड़ला. उनके भाई हुए बीएम बिड़ला. उन्होंने हिन्दुस्तान मोटर्स नाम की कंपनी शुरू की थी. वह साल पड़ा 1942 का. हालांकि भारत में तब कोई ख़ास तकनीक वग़ैरह तो होती नहीं थी. जो था, ज़्यादातर अंग्रेजों के पास था. सो, बीएम बिड़ला ने एक अंग्रेजी कंपनी ‘मॉरिस मोटर्स’ के साथ साझेदारी कर ली. ये मॉरिस मोटर्स आज भी दिखती है एमजी (मॉरिस गैराज) के नाम से.
तो, इस तरह के बंदोबस्त के साथ हिन्दुस्तान मोटर्स ने अपना पहला कारख़ाना लगाया गुजरात के ओखा में. वहां कारख़ाना लगाने की वज़ह थी पुख़्ता. यूं कि मॉरिस मोटर्स कारों के कलपुर्ज़े वग़ैरह विलायत से समुद्र के रास्ते हिन्दुस्तान भेजा करती थी. यहां हिन्दुस्तान मोटर्स के कारखाने में उन सबको जोड़ा, मिलाया जाता. इस तरह कार बनकर तैयार हुआ करती थी. चूंकि ओखा में ही बंदरगाह था, इसलिए इस सामान को कहीं लाने-ले जाने का झंझट बच जाता था. लागत भी बच रहती थी. कार बहुत महंगी नहीं पड़ती थी. हालांकि इस तरह का सिलसिला ज़्यादा चला नहीं. बीच-बीच में दूसरे विश्वयुद्ध जैसे तमाम हिचकोले भी लगे इस काम के दौरान ही.
इसके क़रीब पांच बरस बाद जब हिन्दुस्तान आज़ाद हुआ, तो बिड़ला अपना कारख़ाना गुजरात से बंगाल ले गए. वहां कलकत्ते से करीब 10 किलोमीटर दूर उत्तरपाड़ा में कारख़ाना खोला. उन्होंने मॉरिस मोटर्स से फिर क़रार किया कि अब कार के कलपुर्ज़े जोड़े, मिलाए नहीं जाएंगे. बल्कि पूरी कार ही यहीं बनाई जाएगी. मॉरिस मोटर्स ने क़रार मंज़ूर कर लिया और भारत के लिए उस कंपनी की कारें कुछ नए नामों से हिन्दुस्तान मोटर्स के कारख़ाने में भी बनने लगीं. इस सिलसिले के शुरू में पहली कार आई मॉरिस-10, 1949 में. ये भारत में कहलाई हिन्दुस्तान-10. इसके बाद आई मॉरिस-14 यानी हिन्दुस्तान-14. फिर मॉरिस-माइनर मतलब ‘बेबी हिन्दुस्तान’.