दास्तान-गो : ‘रोमांस के राजा’ यशराज चोपड़ा का दायरा सिर्फ़ इतने पर बंधा नहीं है

दास्तान-गो : किस्से-कहानियां कहने-सुनने का कोई वक्त होता है क्या? शायद होता हो. या न भी होता हो. पर एक बात जरूर होती है. किस्से, कहानियां रुचते सबको हैं. वे वक़्ती तौर पर मौज़ूं हों तो बेहतर. न हों, बीते दौर के हों, तो भी बुराई नहीं. क्योंकि ये हमेशा हमें कुछ बताकर ही नहीं, सिखाकर भी जाते हैं. अपने दौर की यादें दिलाते हैं. गंभीर से मसलों की घुट्‌टी भी मीठी कर के, हौले से पिलाते हैं. इसीलिए ‘दास्तान-गो’ ने शुरू किया है, दिलचस्प किस्सों को आप-अपनों तक पहुंचाने का सिलसिला. कोशिश रहेगी यह सिलसिला जारी रहे. सोमवार से शुक्रवार, रोज़…

जनाब, यूं ही किसी से सवाल कर लिया जाए कि यशराज चोपड़ा के बारे में कितना जानते हैं? या फिर यशराज फिल्म्स के बारे में? तब मुमकिन है, वह ज़वाब दे ही न पाए या ज़ेहन में कुछ ज़ोर डालना पड़े उसे. लेकिन अगर सवाल यूं किया जाए कि ‘दिलवाले दुलहनिया ले जाएंगे’ (1995), ‘मोहब्बतें’ (2000), ‘कभी-कभी’ (1976), ‘चांदनी’ (1989), ‘सिलसिला’ (1981), ‘वीर-ज़ारा’ (2004), जैसी फिल्में देखी हैं क्या? तो यक़ीनन ज़्यादातर ज़वाब ‘हां’ में ही आएंगे. ये फिल्में अधिकांश लोगों ने कई-कई बार देखी होंगी. इस क़िस्म के तमाम लोग ‘यशराज फिल्म्स’ के बैनर से वाक़िफ़ होंगे. उन्होंने यशराज चोपड़ा का नाम भी सुन ही रखा होगा, जो अपनी ऐसी यादग़ार रोमांटिक फिल्मों की वज़ह से ही हिन्दी फिल्मों की दुनिया में ‘रोमांस के राजा’ कहे जाते थे. आज, 27 सितंबर को उन्हीं यशराज साहब का जन्मदिन है. साल 1932 में पंजाब के लाहौर में पैदा हुए थे वह.

यशराज साहब आठ भाई-बहनों में सबसे छोटे थे. इन्हीं के भाई-बहनों में एक होते थे बलदेव राज चोपड़ा यानी बीआर चोपड़ा, जिन्होंने साल 1988 से 1990 तक 94 कड़ियों में दूरदर्शन पर प्रसारित हुआ मशहूर धारावाहिक ‘महाभारत’ बनाया था. तो जनाब, यशराज साहब के बारे में दास्तान के शुरू में ही ये बता देना लाज़िम है कि फिल्मों के शौक़ीन आम लोग भले इन्हें ‘रोमांस के राजा’ का तमगा दिया करें, लेकिन जानकार उन्हें इस हद में बांधकर नहीं रखा करते. वे तमाम मिसालें दिया करते हैं. जैसे- यशराज साहब की आख़िरी फिल्म ‘जब तक है जान’ (2012) और उन्हीं के निर्देशन वाली पहली फिल्म ‘धूल का फूल’ (1959). इन दोनों को सामने रखने पर, जैसा कि कहा जाता है, कोई यह समझ नहीं पाएगा कि दोनों फिल्में एक ही फिल्मकार की हैं. ऐसी और भी मिसाालें गिनाई जाती हैं, जिनसे पता चले कि यशराज साहब का दायरा ‘रोमांटिक फिल्मों’ तक ही नहीं है

मसलन- यशराज साहब की ही एक फिल्म ‘वक़्त’ (1965), हिन्दी सिनेमा में यह पहली थी, जिसमें बहुत से नामी आदाकारों को लिया गया था. यानी पहली ‘मल्टी-स्टारर’. आगे इम्तियाज़ अली, करण जौहर जैसे फिल्मकारों ने ‘मल्टी-स्टारर’ फिल्मों के इस सिलसिले को बड़ी नफ़ासत से आगे बढ़ाया. वैसे, करण जौहर का ज़िक्र आया है, तो बताते चलें कि इनके पिता यश जौहर के भाई होते थे इंद्रसेन जौहर यानी आईएस जौहर. फिल्मी दुनिया में बड़ा नाम हुआ उनका. अलहदा क़िस्म के हास्य-कलाकार होते थे. फिल्मों की कहानियां लिखते थे, उन्हें बनाते थे और उनका निर्देशन भी किया करते थे. इन्हीं आईएस जौहर के बारे में कहते हैं कि इन्होंने यशराज साहब और उनके बड़े भाई बीआर चोपड़ा को फिल्मी दुनिया में पैर ज़माने में बड़ी मदद की. बल्कि यशराज साहब ने तो अपने फिल्मी सफ़र की शुरुआत ही आईएस जौहर के साथ असिस्टेंट डायरेक्टर के तौर पर की थी.

ख़ैर, बात चल रही थी यशराज साहब के फिल्मी शाहकारों के बारे में. तो जनाब, उनके दायरे में एक और फिल्म आती है, ‘काला पत्थर’ (1979). बंगाल की एक कोयला खदान में हुए अस्ल हादसे पर बनी इस फिल्म को देखकर भी शायद ही कोई कह सके कि यह उन्हीं यशराज साहब ने बनाई है, जिन्हें ‘रोमांस का राजा’ कहा जाता है. वह जिनकी फिल्मों में स्विट्ज़रलैंड जैसे दूसरे देशों के झरने, पहाड़ों, वादियों के बीच अदाकार-अदाकारा रोमांस करते दिखाई देते हैं. इतने पर भी अगर कोई मुतमइन न हो तो ‘दीवार’ (1975) है. अमिताभ बच्चन को ‘एंग्री यंग-मैन’ की शक़्ल देने वाली फिल्म. अमिताभ साहब की आगे यही सूरत उनके चाहने वालों को ज़्यादा पसंद आई, यूं कहें तो कोई ग़लत न होगा. और सिर्फ़ अमिताभ साहब ही क्यों? राजेश खन्ना को भी उनकी पहली हिट फिल्म देने का ज़िम्मा भी यशराज साहब पर ही आता है, बहुत से जानकार इससे जुड़ा एक वाक़ि’आ बताते हैं

बात यह साल 1969 की है. इसी दौर के आस-पास बीआर चोपड़ा से अलग होकर यशराज साहब ने अपनी नई फिल्म कंपनी खोली थी. इससे पहले तक वे बड़े भाई के साथ उनकी फिल्मों के निर्देशन का काम किया करते थे. तो जनाब, यशराज उन दिनों ‘आदमी और इंसान’ फिल्म बना रहे थे. यह फिल्म साल 1969 में ही आई. लेकिन इसकी रिलीज़ से पहले ही शूटिंग के दौरान अदाकारा सायरा बानो बीमार पड़ गईं. वे ठीक होकर लौटीं यही कोई महीने भर बाद. इस बीच, ‘आदमी और इंसान’ की शूटिंग रुकी रही. लेकिन उतने ही वक़्त में यशराज साहब ने राजेश खन्ना और नंदा को लेकर आनन-फानन में बना डाली ‘इत्तिफ़ाक़’ (1969). यह फिल्म चल निकली और इसके साथ ही राजेश खन्ना का करियर भी, जो इससे पहले तक शुरुआती चार-पांच फिल्में न चलने की वज़ह से कुछ डांवाडोल हो रहा था. वैसे ‘इत्तिफ़ाक़’ फिल्म के साथ एक और इत्तिफ़ाक़ जुड़ा है.

ये इत्तिफ़ाक़ यूं कि राजेश खन्ना की इस पहली हिट फिल्म में कोई गाना नहीं है. अब ज़रा सोचकर देखिए कि जिस फिल्मकार को उनकी रोमांटिक फिल्मों में मोहब्बत का असर जगाने वाले गाने-बजाने के लिए भी ख़ास तौर पर जाना जाता है, वही एक फिल्म बग़ैर किसी गाने के भी बना रहा है. हिन्दी फिल्मों की दुनिया में इस तरह की अब तक भी चुनिंदा फिल्में ही हैं, बिना गीत वाली. वैसे, गीत भले न हो पर संगीत था ‘इत्तिफ़ाक़’ में. मशहूर मूसीक़ार सलिल चौधरी ने इस फिल्म के लिए संगीत (बैकग्राउंड म्यूज़िक वग़ैरा) तैयार किया था. अब यहीं गीत, संगीत की बात आई है तो यह भी जान लेना दिलचस्प हो सकता है कि शा’इर जावेद अख़्तर साहब भी यशराज साहब की वज़ह से ही फिल्मी नग़्मा-निगार बने. इससे पहले वे फिल्मों की कहानियां लिखते थे. डायलॉग लिखते थे. कभी-कभी सलीम खान साहब (मशहूर अदाकार सलमान खान के वालिद) के साथ तो कभी उनसे अलग भी.

जावेद अख़्तर साहब ने खुद एक इंटरव्यू के दौरान ख़ुलासा किया था कि कैसे फिल्मी नग़्मे लिखने का उनका ‘सिलसिला’ शुरू हुआ. फिल्म ‘सिलसिला’ का वाक़ि’आ है. इस फिल्म के लिए नग़्मे लिखने का ज़िम्मा यूं तो साहिर लुधियानवी के कंधों पर था. लेकिन एक बार उनकी तबीयत कुछ नासाज़ हो गई तो यशराज साहब ने उनकी जगह जावेद साहब से इसरार किया कि वे कुछ नग़्मे लिख दें. जावेद साहब इसके लिए पहले तो तैयार नहीं हुए. कुछ असहज सा लग रहा था उन्हें लेकिन ‘यशराज साहब ने तो ज़िद ही ठान ली कि नग्मा तो अब आप से ही लिखवाएंगे’. और हार मानकर आख़िर जावेद साहब से लिख भी दिया फिर, ‘देखा एक ख़्वाब तो ये सिलसिले हुए’. इसी तरह, एक और मशहूर अदाकार कादर खान की फिल्मी अदाकारी का करियर भी यशराज साहब की फिल्मों से शुरू हुआ. साल 1973 में आई ‘दाग’ फिल्म से. राजेश खन्ना और शर्मिला टैगोर की इस फिल्म में मुख्य अदाकार थे.

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यशराज साहब ने जब फिल्म निर्देशन से फिल्म निर्माण में कदम रखा तो पहली फिल्म उन्होंने यही बनाई थी, ‘दाग’. हालांकि यहां से जो उनका सिलसिला शुरू हुआ तो अब तक ‘बेदाग’, अपनी पूरी रफ़्तार से चल रहा है. यशराज साहब के साहबज़ादे आदित्य चोपड़ा, उदय चोपड़ा वग़ैरा अपने वालिद की खींची हुई लक़ीर को आगे बढ़ा रहे हैं. हालांकि, यह जानकर किसी को अचरज हो सकता है कि जब यशराज साहब फिल्म निर्माण में क़दम रख रहे थे, तो उन्हें बहुत लोगों ने सलाह दी थी कि इस काम में फ़ायदा नहीं है. सब लुट जाने का ज़ोख़िम है. ऐसी सलाह देने वालों में मशहूर फिल्म निर्माता गुलशन राय भी शामिल थे. वे हिंदी फिल्म निर्माताओं को फिल्में बनाने के लिए सूद पर रकम भी दिया करते थे. इन्हीं गुलशन राय ने यह भविष्यवाणी तक कर दी थी कि ‘दाग’ फिल्म चलेगी नहीं. लेकिन ये फिल्म कैसी और कितनी चली, यह फिल्मी दुनिया की तारीख़ में दर्ज़ है.

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बताते हैं, 27 अप्रैल 1973 को ‘दाग’ रिलीज हुई और दो दिन बाद यानी 29 अप्रैल से यशराज साहब के पास देश के उन तमाम सिनेमाघरों के मालिकों के फोन आने लगे, जिन्होंने पहले इस फिल्म को अपने यहां लगाने में दिलचस्पी नहीं दिखाई थी. तो जनाब, ये कुछ नमूने थे यशराज साहब की फिल्मकारी के. यक़ीनन पूरे नहीं हैं. चंद लफ़्ज़ों में पूरे हो भी नहीं सकते. पर हां, यशराज साहब की इस फिल्मकारी में शानदार मिसालें कुछ और चस्पा ज़रूर हो सकती थीं, बशर्ते, साल 2012 की 21 अक्टूबर को उन्होंने इस दुनिया से अलविदा न कह दिया होता. उनकी उम्र 80 बरस थी तब. फिर भी जज़्बे में उम्रदराज़ी क़तई झलकती नहीं थी. मगर मच्छरों का क्या ही करे कोई. वे किसी की उम्र का लिहाज़ कहां किया करते हैं. यशराज साहब को भी मच्छरों के काटने से होने वाली बीमारी डेंगू ने जकड़ लिया था. मुमकिन है, और लोगों की तरह उन्होंने भी इसे पहले आम बुख़ार समझा हो. लेकिन यही इस दुनिया से दूर ले गया उन्हें. आम नहीं था वह, आम होता ही नहीं है क्योंकि.