दास्तान-गो : ओम पुरी का सफ़र… मुंह में लकड़ी की चम्मच से चांदी की चम्मच तक!

दास्तान-गो : किस्से-कहानियां कहने-सुनने का कोई वक्त होता है क्या? शायद होता हो. या न भी होता हो. पर एक बात जरूर होती है. किस्से, कहानियां रुचते सबको हैं. वे वक़्ती तौर पर मौज़ूं हों तो बेहतर. न हों, बीते दौर के हों, तो भी बुराई नहीं. क्योंकि ये हमेशा हमें कुछ बताकर ही नहीं, सिखाकर भी जाते हैं. अपने दौर की यादें दिलाते हैं. गंभीर से मसलों की घुट्‌टी भी मीठी कर के, हौले से पिलाते हैं. इसीलिए ‘दास्तान-गो’ ने शुरू किया है, दिलचस्प किस्सों को आप-अपनों तक पहुंचाने का सिलसिला. कोशिश रहेगी यह सिलसिला जारी रहे. सोमवार से शुक्रवार, रोज़…

जनाब, इस शख़्सियत की दास्तान बड़ी दिलचस्प है. दास्तानें तो दिलचस्प ही होती हैं वैसे. पर ये कुछ ज़्यादा ही बन पड़ी है. क्योंकि इसमें एक सफ़र है…, ‘मुंह में पड़ी चम्मच’ का. ये चम्मच पहले लकड़ी की होती थी. फिर वक़्त गुज़रा और इस चम्मच ने अपनी शक्ल-ओ-सूरत बदलनी शुरू कर दी. और एक वक़्त ऐसा आया, जब ये चम्मच चांदी की हो गई. और उसी शख़्सियत के मुंह में चमचमाने लगी, जो बतौर शख़्स, ‘मुंह में लकड़ी की चम्मच’ लिए पैदा हुआ था. है न ख़ास बात? क़िस्सा सुनते हैं. उसी शख़्सियत से, जिनके मुंह में पड़ी चम्मच ने अपनी सूरत बदली. ओम पुरी नाम है उनका. खुरदुरी सूरत और खरखराती सी आवाज वाले, ‘अनलाइकली हीरो : ओम पुरी’. अरे नहीं नहीं जनाब, ये ‘अनलाइकली हीरो’ यानी जिनके हीरो बनने की उम्मीद नहीं थी, ऐसा टाइटल हमने नहीं दिया है. ओम साहब की दूसरी पत्नी रहीं, नंदिता जी. उन्होंने दिया है. एक किताब लिखी है उन्होंने, ओम साहब की ज़िंदगी के बारे में. साल 2009 में आई थी. उसी का टाइटल है ये.

ख़ैर, कहानी सुनते हैं, ओम साहब से ही… ‘मुझे याद है, चूंकि मेरे फ़ादर रेलवे में थे, तो हमारा घर रेलवे ट्रैक के पास था. बचपन का ऐसा है, कि जो मेरी पहली याद है, वह मुझे ऐसा लगता है कि मैं दो-ढाई साल का हूंगा. मुझे एक चारपाई याद है, जिससे मेरे हाथ बांध दिए गए थे. क्योंकि मुझे चेचक निकली थी. ताकि मैं खुजाऊं नहीं. फिर वो ज़ख़्म हो जाएगा. शायद इसलिए बांध देते थे. ये है मेरा पहली याद… फिर, रेलवे का एक कर्मचारी जो कि जमांदार था, स्वीपर. उसके बेटे से मेरी दोस्ती थी. और मेरी मां जो हैं, वे पढ़ीं तो बहुत कम थीं. गीता पढ़ लेती थीं बस. और छुआछूत मानती थीं. बिल्ली रास्ता काट गई तो घर पे बैठ गईं. बाज़ार में जा रही हैं और ऊपर से कुछ पानी गिर गया तो उनको लगा कि ये गंदा पानी है. धोती पे छींटे पड़ गए होंगे तो घर जा के नहाएंगी. धोती-वोती धोएंगी. तो ये सब था उनका. तो, जब भी वो मुझे देख लेतीं कि मैं उस लड़के साथ खेल रहा हूं तो फ़ौरन मुझे नहला दिया जाता…’

‘…फिर फादर की ट्रांसफर हुई थी बठिंडा. उनकी बदलियां होती रहती थीं अक्सर. वहां जो रेलवे ट्रैक था हमारे घर के पास, वो था यार्ड. गाड़ी खड़ी है. तो मैं कई बार, डिब्बे में घुस जाता था. खेलता था, सो जाता था. फिर वो जब चलने लगी तो धीरे-धीरे ही जाएगी. तो जाकर स्टेशन पे उतर गए. या जैसे ही चली, तब उतर गए. एक और मुझे रेलवे की याद है कि जब कोई ट्रेन वहां आ के रुकती थी. तब स्टीम इंजन हुआ करते थे. मेरे ख़्याल से यह 1956 की बात है. तो उनको मैं कहता था कि भई, अंदर से कोयला झाड़ दो. सो, जब वे झाड़ते थे तो राख गिरती थी नीचे और अधजला कोयला भी गिरता था. फिर डेढ़-दो घंटे बाद ट्रेन चली जाती थी. तब तक कोयला ठंडा हो जाता था. तो उसमें से, वो राख से अधजला कोयला बीनकर मैं घर ले आया करता था. अंगीठी जलाने में मां की मदद हो जाती थी…’

‘…फिर इसके बाद कुछ ऐसा हो गया कि मेरे फादर रेलवे के स्टोर में काम करते थे. तो स्टोर में हो गई चोरी. सीमेंट की 15-20 बोरियां ग़ायब हो गईं. इन पे इल्ज़ाम आया. इनको गिरफ़्तार कर लिया गया. वो बड़ा कष्टदायक समय था मेरी मां के लिए. रेलवे वालों ने हम से क्वार्टर भी खाली करवाया. मेरी मां कहे- भईया, मेरे दो बच्चे हैं, एक इतना छोटा है, दूसरा 13-14 साल का है, अब मैं कहां जाऊं? पर उन्होंने कहा- जी हमें कुछ नहीं पता, आप खाली कर दीजिए. मेरी मां ने नहीं किया तो एक दिन वो आए. उन्होंने कहा- देखिए… उनको पता था कि मां छुआछूत मानती है. तो रेलवे का जमांदार जो है, वो रेलवे का टोकरा भर के लाया, पॉटी. बोले- हम ये सब बिखेर देंगे पूरे घर में, नहीं तो ये घर खाली कर दो. तब उसने बेचारी ने पता नहीं क्या किया, छोटा सा कमरा कहीं ढूंढा और हम लोग वहां शिफ्ट हो गए…’

‘…माली हालत बड़ी ख़राब थी. तो, मेरी बड़े भाई को, जो कुछ 16 साल का था, वो बन गया रेलवे स्टेशन पे कुली. और मुझे मेरी मां ने लगा दिया चाय की गुमटी पर. कि भई, चलो खाना मिलेगा वहां. मैं चूंकि छोटा था. तो, मुझे कहा कि देखो, ये पानी की टंकी है और ये चाय के गिलास. तुम्हारा काम सिर्फ़ चाय के गिलास धोना है. चाय देने भी नहीं भेज रहे थे क्योंकि छोटा था. सड़क पार करूंगा, कुछ गाड़ी से कुचल-वुचल गया. तो, बस मेरी इतनी ही ड्यूटी थी. मेरा ख़्याल है कि एक महीना या 25 दिन, ऐसा कुछ मैंने काम किया वहां. मुझे याद है कि जो मालिक था, उसकी बड़ी-बड़ी मूंछें थीं. एक दिन जब मेरी माता मुझे लेने आईं तो उसने कहा- मैं छोड़ देता हूं तुम लोगों को. तो वो रिक्शा में हमारे साथ बैठ गए. मुझे नहीं मालूम था कि वो शराब पिए थे. मुझे ये भी नहीं ख़्याल कि मेरी मां को अज़ीब लग रहा था. हम घर पहुंचे तो वो आ के अंदर बैठ गए. फिर मेरी मां थोड़ी उठ के बाहर गईं…’

‘… मां ने बाहर किसी को कुछ बताया होगा. वापस आईं तो उनके साथ दो-तीन पड़ोसनें आ गईं और बातें करने लगीं. तो मालिक जो है, वो समझ गया कि ये नौटंकी है, ये जा के इन औरतों को बुला के लाई है. वो उठ के चल दिया. कुछ 10 क़दम गया और बिना मुड़े पीछे, मुझे अच्छी तरह याद है, बिना मुड़े उसने कहा- इसको काम पे मत भेजना कल से. तो फिर कुछ दिन मैंने एक ढाबे पे भी काम किया. वहां बहुत लेट हो जाता था. नींद आने लगती थी. लेकिन मुझे टिप्स मिलती थी वहां… दूसरी तरफ, पिता जी जेल में थे. मेरी मां, मुझे याद है, ले के गईं अदालत. तो मैंने देखा कि मेरे फादर ख़ुद ही अपना मुक़दमा लड़ रहे हैं. उनका वकील नहीं था. मुझे ये भी याद है, मेरी मां मुझे ले के जज के घर भी गईं. उनकी पत्नी से उन्होंने बात की. ज़ाहिर है क्या बात की होगी. हम लोग, जो गेट था उनका, दोनों नीचे बैठे थे. ज़मीन पे ही…’

‘…वहां मैं अपनी मां की धोती खींच रहा था. मां मुझे इग्नोर कर रही थी. तो जज साहब की पत्नी ने देखा कि मैं कुछ कहना चाहता हूं. तो वो अंदर गईं. अंदर से दो चपातियां और उसके ऊपर गुड़, वो दे गईं. वे मैंने खाईं. फिर अदालत में, मेरे पिता जी ने जज साहब से कहा कि साहब, आप ऐसा करिए, आप स्टेशन पे आइए. और आप स्टोर देखिए. बठिंडा जो है, बड़ा जंक्शन है. कम से कम 15 ट्रैक हैं उस पे. आप मुझे बताइए कि क्या ये संभव है कि कोई मेरे जैसा आदमी बोरियां उठा के, ट्रैक पार कर के उस तरफ जा सकता है? बिना किसी की नज़र में आए? तो जज साहब स्टेशन पे आए. उन्होंने मुआयना किया. फिर मेरे पिता जी को बरी कर दिया. लेकिन इस दौरान मेरी मां ने, मेरे मामा, जो कि काफी सक्षम थे. ज़मीन वग़ैरा अच्छी ख़ासी थी उनके पास. तो उनसे विनती की- कि भई, मेरे बच्चे को आप रख लो…’

‘…तो मेरे मामा ने उनकी बात मान ली और मुझे अपने यहां बुला लिया. उस वक़्त हम लुधियाना में रहते थे और मेरे मामा पटियाला के पास एक गांव है, वहां… मैं आठवीं तक मामा के यहां पढ़ा. फिर मेरे मामा का देहांत हो गया, तो मुझे वे लोग लुधियाना छोड़ आए. कहने लगे- भई, रखो अपने बेटे को. लेकिन मैंने कहा- मैं तो वहीं पढ़ूंगा, उसी स्कूल में. तब मेरे बड़े भाई मुझे वापस पटियाला छोड़ने आए. पर उन लोगों ने रखने से मना कर दिया. तो मैंने बड़े भाई से कहा- मैं तो नहीं जा रहा हूं. मैं स्कूल जा रहा हूं, रहने के लिए. स्कूल में तब छुटि्टयां थीं. वहां का चौकीदार सब जानता था. उसने मुझे रहने दिया स्कूल में. मेरे दोस्तों को पता चला तो वे मेरे लिए घर से खाना-वाना ले आते थे. इस तरह, 15-20 दिन बाद हैडमास्टर को पता चला कि मैं यहां रह रहा हूं. वो सरदार थे. उनका नाम था प्रीतम सिंह. उन्होंने मुझे बुलाया, डांट लगाई…’

‘…वे कहने लगे- ये क्या तरीका है. तुम यहां रह रहे हो. आग जला के खाने बना रहे हो. ये स्कूल है. तो मैंने उन्हें अपनी मुश्किल बताई. तो उन्होंने कहा- मैं बात करता हूं तुम्हारे पिता जी से. उन्होंने बात की. पर पिता जी नहीं माने. तब हैडमास्टर साहब ने मुझसे कहा- देखो, तुम अभी नौवीं में पहुंचे हो. तुम आराम से पांचवीं-छठवीं के बच्चों को ट्यूशन दे सकते हो. मैं तुम्हें कुछ ट्यूशन दूंगा. इस तरह उन्होंने इंतज़ाम कर दिया. मेरे लिए वही बच्चे अपने घर से आटे-दाल का बंदोबस्त भी कर देते थे. इस तरह 10वीं पास हो गई. फिर मैंने आगे ईवनिंग कॉलेज ज्वाइन कर लिया. साथ ही, एक वकील के यहां काम करने लगा. उनके दफ़्तरी की तरह. उस वक़्त मैं नाटक भी करने लगा था. तो एक बार, मेरे नाटक का शो चंडीगढ़ में था. उसके लिए मैंने वकील से छुट्टी मांगी. उन्होंने नहीं दी.  तो मैंने कहा- आप मेरा हिसाब कर दीजिए…’

‘…उन्होंने मेरा हिसाब-किताब कर के जो था, मुझे दे दिया. मैं गया. नाटक कर लिया. वहां नाटक में जो दूसरे स्टूडेंट थे, उन्हें पता चला कि मैंने नौकरी छोड़ दी है, तो उनको बड़ी दया आई. उन्होंने एक प्रोफेसर से बात की. उन्हें बताया कि ये नाटक के लिए नौकरी छोड़ आया है. ग़रीब घर का है. तो उन प्रोफेसर ने प्रिंसिपल से बात की. बड़े दयालु आदमी थे वे भी. उन्होंने कॉलेज में ही नौकरी दे दी. इस तरह, वकील मुझे देते थे 80 रुपए और यहां मिलने लगे 125. फिर, यूथ फेस्टिवल था. उसमें एक नाटक था, जिसके लिए मुझे फर्स्ट प्राइज़ मिला. उसमें दो जज थे. उनमें से एक नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा से पढ़े हुए थे. फंक्शन के बाद उन्होंने मुझे बुलाया और अपनी नाट्य संस्था- ‘पंजाब कला मंच’ में लेने की बात की. पैसे भी दे रहे थे. कहने लगे- मैं तुम्हें 150 रुपए दूंगा. सो, मैं उनके साथ हो लिया. पर मुझे नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा में जाना था…’

‘…मैंने नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा के लिए एप्लाई किया और चुन लिया गया. और मैंने सरकारी नौकरी छोड़ दी. तब बहुत लोगों ने समझा किया कि देखो, सरकारी नौकरी मिलना मुश्किल होता है. ये बड़ी बेवकूफ़ी है तुम्हारी. और थिएटर में कुछ मिलता-मिलाता तो है भी नहीं. पर मैंने तो ठान ली. वहां स्कॉलरशिप मिलता था 200 रुपए. उससे गुज़ारा हो जाता था. कट टु कट था. उसी में हॉस्टल का किराया, मैस का खाना. फीस बहुत कम थी वैसे. धोबी के पैसे देने हैं. तो मुश्किल से हम मैनेज करते थे कि महीने में कभी दो फिल्म देख लें. एकाध बार बाहर खाना खा लिया. तीन साल वहां चला ऐसे. फिर बाहर निकले तो देखा पूरा अंधेरा! वैसे, मुझे ग़लतफ़हमी नहीं थी. पता था कि कमर्शियल सिनेमा तो हमें एक्सेप्ट नहीं करेगा. क्योंकि शक़्ल सूरत ही नहीं है. इसीलए मैं किसी प्रोड्यूसर, डायरेक्टर के पास नहीं गया. श्याम बेनेगल को छोड़कर…’

‘… यहां बंबई में, मुझे पांच-सात साल लगे, इंडस्ट्री में पैर जमाने में. ‘अर्ध सत्य’, 1983 में आई. हालांकि, इससे पहले भी कुछ आर्ट फिल्में की थीं. पर ‘अर्ध सत्य’ के बाद बस, फिर दुकान चल पड़ी. मगर चूंकि आर्ट फिल्मों से घर नहीं ख़रीदा जा सकता था. मसलन- ‘जाने भी दो यारो’ (1983 की फिल्म) के लिए मुझे 5,000 मिले थे. ‘आक्रोश’ (1980) के लिए 9,000 मिला था. तो, ‘अर्ध सत्य’ के लिए 25,000 रुपए. तो मतलब, घर नहीं ख़रीदा जा सकता था. इसलिए मैंने कहा कि भई, कमर्शियल सिनेमा भी ज़रूरी है. सो, कमर्शियल फिल्में भी करने लगा… तो इस तरह भइया, पंजाबी मीडियम में पढ़ा हुआ एक बच्चा. हाईस्कूल जिसने गांव में किया, वो अब तक 20 इंटरनेशनल फिल्में कर चुका है. बड़े-बड़े स्टार्स के साथ. ये नहीं कि कोई भी आलतू-फालतू फिल्म… तो ऐसी कहानियां बहुत हैं. मगर मेरी कहानी भी ऐसी थी, जो इंस्पिरेशनल किताब हो सकती थी’. और, ओम साहब ने ग़लत तो नहीं कहा है न जनाब?