दिल्ली क्राइम सीजन 2: इच्छा-आकांक्षा में लिपटी हिंसा

पिछले दशकों में भारत में सामाजिक-आर्थिक स्तर पर काफी बदलाव देखने को मिला है. इसके साथ ही समाज में आर्थिक विषमता भी बढ़ी है. अर्थशास्त्री इस ओर इशारा करते रहे हैं कि जहां जिनके पास धन है वे और धनवान हुए हैं, जबकि गरीब और गरीब! इच्छा और आकांक्षा की पूर्ति के लिए संघर्ष के साथ-साथ हिंसा का हथियार भी समाज में लोगों के हिस्से आया. गरीबी में निहित असहायता और आक्रोश की तरफ पॉपुलर मीडिया का कम ही ध्यान जाता है. सवाल है कि क्या धनाढ्यों के ऊपर होने वाली हिंसा के पीछे समाज के हाशिए पर रहे लोग जिम्मेदार हैं? क्यों हमेशा शक की सुई उन पर जा टिकती है, जिसे ऐतिहासिक रूप से समाज में हिंसा के लिए जिम्मेदार ठहराया गया?

वेब सीरीज ‘दिल्ली क्राइम’ का दूसरा सीजन नेटफ्लिक्स पर इन दिनों स्ट्रीम हो रहा है, जो इन्हीं सवालों को अपने घेरे में लेता है. वर्ष 2019 में रिची मेहता निर्देशित इस सीरीज के पहले सीजन की काफी चर्चा हुई थी. इसे ‘बेस्ट ड्रामा सीरीज’ में प्रतिष्ठित एमी पुरस्कार से नवाजा गया था. जाहिर है दूसरे सीजन को लेकर काफी अपेक्षा थी. यह सीजन पहले की तरह ही संवेदनशीलता के साथ, दिल्ली को केंद्र में रखते हुए, समाज में अपराध और पुलिस की कार्रवाई को हमारे सामने लाती है. तनुज चोपड़ा इस सीजन के निर्देशक हैं.

यह सीरीज हिंसा के प्रति हमारे समाज में जो स्टीरियोटाइप है, उस पर सवाल खड़े करती है. मीडिया भी यहां कटघरे में खड़ा दिखता है. साथ ही यह सीरीज समाज में व्याप्त हिंसा के तत्वों की पड़ताल भी करती है, हालांकि इसे विस्तार नहीं दिया गया है. पर बिना कुछ कहे सीरीज में जो फुटपाथ-गलियों के दृश्य हैं, वे सामाजिक विभेद को सामने लाने में सफल हैं.

जहां दिल्ली में वर्ष 2012 में चलती बस में हुए सामूहिक बलात्कार की घटना (निर्भया कांड) पर पहला सीजन आधारित था, वहीं दूसरे भाग में दक्षिणी दिल्ली के पॉश कॉलोनी में बूढ़ों के साथ होने वाली हिंसा को आधार बनाया गया है. 90 के दशक में भी दिल्ली में बुर्जुगों की नृशंस हत्या का मामला सामने आया था, जिसके पीछे ‘कच्छा-बनियान’ गैंग का हाथ था. हर एपिसोड में अपराध के लिए जो तौर तरीके अपनाए गए हैं वे एक जैसे हैं.

दिल्ली महानगर में कई नगर हैं. आप भले दशकों से इस शहर में रह रहे हो, पर जरूरी नहीं कि अपने वर्गीय-जातीय पूर्वग्रह को छोड़ कर, आस-पड़ोस से इतर दिल्ली को जानते हों. पांच एपिसोड का यह सीरीज हिंसा, अपराधियों तक पुलिस के पहुंचने की कोशिश के साथ-साथ समाज में आर्थिक विभेद, अपराधियों के प्रति एक वर्ग के नजरिए को भी सामने लाता है. सीरीज के मुख्य कलाकार शेफाली शाह, रसिका दुग्गल, आदिल हुसैन, राजेश तैलंग आदि की प्रमुख भूमिका इस सीरीज में भी है. तिलोत्तमा शोम के साथ कुछ और नए किरदार भी इसमें जुड़े हैं. चूंकि पहले सीजन में डीसीपी वर्तिका चतुर्वेदी (शेफाली शाह) और उनकी टीम से हम परिचित रहे हैं, इसलिए सीरीज बिना किसी भूमिका के शुरू होती है. संपादन काफी चुस्त रखा गया है.

कैमरा दिल्ली की सड़कों, गलियों को यथार्थपूर्ण ढंग से फिल्माने में सफल है. हालांकि यह सीरीज भावनात्मक रूप से पहले सीरीज की तरह बांध कर नहीं रख पाती. यह भी सच है कि निर्भया कांड की भयावहता झकझोरने वाली थी! अपराधियों तक पुलिस की पहुँच की कहानी में एक नाटकीयता थी, दर्शकों के लिए एक तरह का ‘कथारसीस (विरेचन)’ था. इस कारण पहले सीरीज से तुलना करने पर यह कमतर ठहरती है. हालांकि शेफाली शाह पहली सीरीज की तरह ही अपनी भूमिका में अत्यंत प्रभावी है. इस सीरीज में उनकी बेटी को परिवार से दूर रखा गया है.

कम संसाधनों के बीच पुलिस के ऊपर जो काम का दबाव है उसे नीति सिंह (रसिका दुग्गल) के पारिवारिक रिश्तों के माध्यम से दिखाया गया है. नीति सिंह अब शादी-शुदा है और वर्तिका की टीम का प्रमुख हिस्सा है पर अपने पेशे और परिवार के बीच तालमेल बिठाने की कोशिश में उसकी जिंदगी बिखर रही है. एक कश्मकश है यहां. इस सीरीज में पुलिस पर मीडिया और राजनीतिक दबाव को भी दिखाया गया है.

मुख्य किरदारों के साथ ही छोटी-छोटी भूमिकाओं में आए हर कलाकारों ने अपनी छाप छोड़ी है. तिलोत्तमा शोम अपनी अदाकारी के लिए खास तौर से उल्लेखनीय है. उसका भावहीन चेहरा नैतिक-अनैतिक के द्वंद से परे है. जो अपने सपने को पूरा करने के लिए वह किसी भी हद तक जाने के लिए तैयार है.