इंसान को मारने के लिए उसके सीने में धंसी एक ही गोली काफी है. दर्द से कराहता, तड़पता हुआ मरने लगता है इंसान. मगर ज़रा सोचिए कोई इंसान सीने पर 3 गोलियां खाने के बाद भी कैसे बहादुरी दिखा सकता है. पौराणिक कथाओं में कई वीरों के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने मैदान-ए-जंग में सिर धड़ से अलग होने के बाद भी कई दुश्मनों को मौत के घाट उतार दिया.
पौराणिक घटनाओं पर कई लोग विश्वास नहीं कर पाते, लेकिन ‘दिगेन्द्र सिंह कोबरा’ कोई पौराणिक कथा के पात्र नहीं, बल्कि कारगिल जंग के वो जवान हैं, जिनकी बहादुरी की ज़मीन पर भारत ने जीत का झंडा गाड़ा था.
3 जुलाई 1969 को राजस्थान के सीकर जिले में जन्में दिगेंद्र 1985 में राजस्थान राइफल्स 2 में भर्ती हुए. कारगिल युद्ध मे तोलोलिंग पर कब्जा करना सबसे महत्वपूर्ण था. इस पर कब्जा कारगिल की दिशा बदलने वाला था. राजपूताना राइफल्स को इस कार्य का ज़िम्मा सौपा गया था.
जनरल मलिक ने इस सेना की टुकड़ी से तोलोलिंग पहाड़ी को आजाद कराने की योजना पूछी. तब दिगेन्द्र ने जवाब कुछ इस तरह दिया था. “मैं दिगेन्द्र कुमार उर्फ़ कोबरा बेस्ट कमांडो ऑफ़ इंडियन आर्मी, 2 राजपूताना रायफल्स का सिपाही. मेरे पास योजना है, जिसके माध्यम से हमारी जीत सुनिश्चित है.”
यह काम आसान नहीं था, क्योकि पाकिस्तानी सेना ने ऊपर चोटी पर अपने 11 बंकर बना रखे थे और उससे ऊपर था घना अंधेरा. पहाड़ियों पर पड़ी बर्फ शरीर में दौड़ रहे खून को जमा रही थी, लेकिन यहां हौसलों की तपिश इतनी ज्यादा थी कि ये बर्फ भी गुनगुने पानी सी लग रही थी. दुश्मन के बैरक अब ज्यादा दूर नहीं थे.
दिगेन्द्र ने एक हथगोला बंकर में सरका दिया, जो जोर के धमाके से फटा और अन्दर से आवाज आईः “अल्हा हो अकबर, काफिर का हमला.” दिगेन्द्र का तीर सही निशाने पर लगा था. पहला बंकर राख हो चुका था. इसके बाद आपसी फाइरिंग तेज़ हो गई.
दिगेन्द्र बुरी तरह जख्मी हो गए थे. उनके सीने में तीन गोलियां लगी थी. एक पैर बुरी तरह जख्मी हो गया था. एक पैर से जूता गायब और पैंट खून से सनी थी. दिगेन्द्र की एलएमजी भी हाथ से छूट गई. शरीर कुछ भी करने से मना कर रहा था. लेकिन दिगेन्द्र ने हिम्मत नहीं हारी.
झट से प्राथमिक उपचार कर बहते खून को रोका. दिगेन्द्र ने अकेले ही 11 बंकरों में 18 हथगोले फेंके और उन्होंने सारे पाकिस्तानी बंकरों को नष्ट कर दिया. तभी दिगेन्द्र को पाकिस्तानी मेजर अनवर खान नज़र आया. वह झपट्टा मार कर अनवर पर कूद पड़े और उसकी सांसों को छीन कर अपनी जीत सुनिश्चित कर ली.
दिगेन्द्र पहाड़ी की चोटी पर लड़खडाते हुए चढ़े और 13 जून 1999 को सुबह चार बजे तिरंगा गाड़ दिया. तत्कालीन सरकार ने दिगेन्द्र कुमार को इस अदम्य साहस पर महावीरचक्र से नवाजा.