किसी भी बीमारी के बारे में जल्दी पता चल जाए तो इलाज बहुत आसान हो जाता है। इसके लिए बीमारी के सही लक्षण जानना, बेहतर इलाज का तरीका पता करना और सही एक्सपर्ट का चुनाव करने तक की जानकारी होना जरूरी है। मानसिक सेहत को काउंसलिंग और थेरपी के माध्यम से किस तरह दुरुस्त किया जाता है, देश के बेहतरीन एक्सपर्ट्स से बात करके बता रहे हैं लोकेश के. भारती।
मानसिक सेहत का दायरा बहुत बड़ा है। इसमें कई तरह की परेशानियां शामिल हैं, जिनके बारे में हम इस सीरीज में आपको जानकारी दे रहे हैं। इनमें से कुछ परेशानियां गंभीर होती हैं तो कई सामान्य। अहम बात यह है कि अगर सामान्य परेशानियों के लक्षणों पर ध्यान न दिया जाए और वक्त पर इनका इलाज शुरू न हो तो ये धीरे-धीरे बड़ी दिक्कतें पैदा कर देती हैं।
मानसिक परेशानियां शारीरिक परेशानियों से इसलिए अलग होती हैं क्योंकि शारीरिक परेशानियों में बीमारी की जानकारी पहले उसी शख्स को होती है जिसे वह बीमारी होती है, जबकि मानसिक परेशानियों के साथ कई बार ऐसा नहीं होता। इसकी कई बीमारियां ऐसी हैं जिनके बारे में मरीज को अंदाजा ही नहीं होता कि वह फलां बीमारी का शिकार है। इसलिए मानसिक बीमारियों के लक्षणों को समझना और फिर समझकर सही जगह इलाज कराना जरूरी हो जाता है।
इलाज के हिसाब से देखें तो दो तरह की बीमारियां होती हैं:
- न्यूरोटिक डिसऑर्डर:ऐसी बीमारियां जिनमें मरीज खुद कह सकता है कि वह बीमार है यानी उसे अपनी बीमारी का पता होता है। वह उदास होता है या चिंतित होता है। इस वजह से उसकी रुटीन पूरी तरह खराब हो जाती है। मसलन: एंग्जायटी डिसऑर्डर, डिप्रेशन के मरीज, स्ट्रेस डिसऑर्डर, फोबिया (ऐसी चीजों से डरना जिससे डरने की कोई बड़ी वजह नहीं होती, जैसे छिपकली, कॉक्रोच आदि का डर), ओसीडी यानी (Obsessive Compulsive Disorder) (एक ही काम को बार-बार करना, सफाई की सनक जैसे दिन में कई बार नहाना, बार-बार बेवजह ही हाथ धोना आदि)। सीधे कहें तो इस डिसऑर्डर में घबराहट, बेचैनी के साथ इमोशनल डिसऑर्डर की परेशानी भी आती है। काउंसलिंग और थेरपी का उपयोग खासतौर पर ऐसे ही मरीजों के लिए होता है।
- साइकोटिक डिसऑर्डर:इसमें मरीजों का नाता असलियत से टूट जाता है। वे अपनी ही कल्पना की दुनिया में रहते हैं। ऐसे मरीज को यह पता नहीं होता कि वह बीमार है। हां, उनके साथ रहनेवालों या फिर बात करनेवालों को यह जरूर पता चल जाता है कि वह बीमार है। इस तरह की परेशानियों में मेनिया, सिजोफ्रेनिया, डिलूशनल डिसऑर्डर, बाइपोलर डिसऑर्डर में मेनिया वाली स्थिति आदि।
थेरपी ने किया ठीक
रितेश (बदला हुआ नाम) की उम्र 22 साल है। उनकी परेशानी की शुरुआत लगभग ढाई साल पहले हुई थी, जब पूरी दुनिया में कोराना महामारी फैली। अपने देश में भी जब मामले आने शुरू हुए तो लॉकडाउन लगाया गया। स्कूल, कॉलेज, ऑफिस सभी बंद हो गए और लोग घरों में कैद हो गए। रितेश के पापा ने उन्हें हिदायत दे रखी थी कि जब भी बाहर जाओगे या बाहर से कोई सामान घर के अंदर लाओगे तो दो-तीन बार हाथों को साबुन से जरूर साफ करोगे। इसके बाद नहाना भी है। यह रितेश की आदत में शामिल हो गया। लेकिन कुछ महीनों बाद एंग्जायटी की वजह से यह आदत सफाई की सनक में बदल गई। कोरोना की पहली लहर के बाद दूसरी लहर भी चली गई। इधर साबुन से हाथों को साफ करने और नहाने की रितेश की आदत ओसीडी में बदल गई थी। उन्हें हर वक्त यही लगता था कि कोरोना उसके हाथों से चिपक गया है। इसलिए वह दिनभर में 25 से 30 बार साबुन से 2-3 मिनट तक हाथों को रगड़कर साफ करते। वह रात को 2 बजे उठकर नहाने चले जाते। इस साल फरवरी-मार्च तक कोरोना का प्रकोप कम हो चुका था, लेकिन रितेश की स्थिति वैसी ही थी। उनका रुटीन पूरी तरह खराब हो चुका था। रातभर नींद नहीं आती थी। हाथों पर साबुन घिसकर उनके हाथों की स्किन खराब हो गई थी। पढ़ाई भी पूरी तरह डिस्टर्ब हो गई थी और कॉलेज जाना छोड़ दिया। उसके पापा-मम्मी ने समझाया कि कोरोना अब लगभग खत्म हो गया है। लेकिन वह एंग्जायटी और ओसीडी डिसऑर्डर से पीड़ित हो चुके थे। इसलिए समझाने का उन पर कोई असर न था। आखिरकार पापा ने रितेश को एक अच्छे सायकायट्रिस्ट से मिलवाया। सायकायट्रिस्ट ने रितेश की परेशानी को किस तरह समझा और सबसे पहले क्या किया, यहीं से काउंसलिंग और थेरपी की बात शुरू होती है। सायकायट्रिस्ट ने पहले कुछ दवाएं दीं। दवा लगभग 6 हफ्तों की थी। इसके बाद जब रितेश की नींद कुछ हद तक ठीक हुई और रुटीन बेहतर हुआ तो सायकायट्रिस्ट ने रितेश के पापा को एक अच्छे क्लिनिकल साइकॉलजिस्ट के पास काउंसलिंग के लिए भेज दिया। पिछले 4-5 महीने से रितेश की काउंसलिंग चल रही है। अब स्थिति काफी बेहतर हो गई है। रितेश लगभग 90 फीसदी तक ठीक होकर कॉलेज जाने लगे हैं।
सायकायट्रिस्ट ने रितेश की परेशानियों को समझा और रितेश से उसके डर के बारे में सवाल किए:
1. कारण जानने की कोशिश: किसी परेशानी की वजह जाने बिना इलाज मुमकिन नहीं है।
2. परेशानी की वजह से उन पर ऐक्शन कितनी बार: रितेश को हाथ धोने की परेशानी थी। वह दिन भर में कितनी बार हाथ धोते थे, इससे पता चल जाता है कि मामला कितना गंभीर है।
3. कब ऐसी परेशानी कम होती है या पैदा नहीं होती: क्रिकेट मैच देखने के दौरान रितेश को ऐसे ख्याल कम आते हैं यानी एंग्जायटी क्रिकेट मैच देखने के दौरान कम हो जाती है।4. कब परेशानी बढ़ जाती है: जब वह अकेले हों, किसी से कोरोना की बातें या किसी बीमारी के बारे में सुन लें। इसके बाद रितेश वही सोचने लगते हैं
सायकायट्रिस्ट का फैसला
इन सभी बातों को समझने के बाद सायकायट्रिस्ट ने रितेश के पापा को बताया कि अभी रितेश के लिए कुछ दवाएं दे रहा हूं ताकि पहले रुटीन ठीक हो जाए और चिंताएं कम हों। पहले फार्माथेरपी कर रहा हूं यानी दवा से इलाज। इसके बाद काउंसलिंग शुरू होगी। वहीं, रितेश के पापा यह सोचकर गए थे कि सायकायट्रिस्ट काउंसलिंग करेंगे।
मन की बीमारियों का ऐसे होता है इलाज
पहले दवा या काउंसलिंग
इस विषय को समझने के लिए हमें काउंसलिंग में होता क्या है, यह समझना होगा। दरअसल, काउंसलिंग का मतलब है बातचीत। इस बातचीत में क्या होता है, इसकी चर्चा हम आगे करेंगे। लेकिन बातचीत तो घर पर भी होती है। परिवार के सदस्य भी समझाने की कोशिश करते ही हैं। मरीज के डर को भगाने की कोशिश भी करते हैं। लेकिन असर बहुत कम होता है। इसलिए सायकायट्रिस्ट पहले दवा देकर बीमारी के असर को कम करते हैं ताकि मरीज पर बातों का पूरा असर हो। इसलिए ऐसे मामलों में पहले सायकायट्रिस्ट के पास जाना बेहतर होता है।
न्यूरोटिक बीमारियों के इलाज के दो तरीके: थेरपी और काउंसलिंग
थेरपी: इसमें दवा और काउंसलिंग दोनों आते हैं। मरीज की सोच में बदलाव हो, इस पर काम किया जाता है। मसलन: अगर कोई शख्स निगेटिव सोच से पीड़ित है, बिना खतरे वाली बातों पर भी बहुत घबरा जाता है तो फिर थेरपी की जरूरत होती है। गंभीर डिप्रेशन, एंग्जायटी डिसऑर्डर आदि के मामलों में थेरपी बहुत कारगर है।
काउंसलिंग: इसमें सिर्फ काउंसलिंग होती है। इसमें दवा नहीं दी जाती। यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि काउंसलिंग देने का फायदा तभी होता है जब मरीज काउंसलर की बातों को समझने और अपनाने में सक्षम हो। उसमें अपनी परेशानी को समझता हो। अगर ऐसी स्थिति न हो तो थेरपी ही कारगर होती है जिसमें दवाओं के बाद या फिर साथ में काउंसलिंग की जाती है।
थेरपी जरूरत के हिसाब से…
बिहेवियरल थेरपी (BT)
अमूमन सभी तरह की थेरपी जो मेंटल हेल्थ के लिए इस्तेमाल होती हैं, बिहेवियरल थेरपी के तहत ही आती हैं। इसमें शख्स के स्वभाव में बदलाव लाना मकसद होता है। सबसे अहम कॉग्निटिव बिहेवियरल थेरपी (CBT) है।
कॉग्निटिव बिहेवियरल थेरपी (CBT)
इसे टॉक थेरपी भी कहा जाता है। इसमें मरीज के बारे में बुनियादी जानकारी हासिल की जाती है। बातचीत के द्वारा उसकी नेगेटिविटी को दूर कर पॉजिटिविटी लाने की कोशिश की जाती है। यह धीरे-धीरे होता है। घर पर भी लोग मरीज को समझाने की कोशिश करते हैं लेकिन वे एक्सपर्ट नहीं होते। ज्यादातर लोग यह नहीं जानते कि शुरुआत कैसे करनी है और इसलिए बातचीत फेल हो जाती है, जबकि सायकायट्रिस्ट या साइकॉलजिस्ट इसे बखूबी अंजाम देते हैं।
इसके साथ ही इसमें दवा की भूमिका भी होती है। दवा लेने के बाद मरीज की मानसिक स्थिति कुछ बेहतर हो जाती है। फिर काउंसलिंग के दौरान उससे लॉजिकल सवाल पूछे जाते हैं।
एंग्जाइटी को खत्म करने के लिए
इसमें बातचीत के द्वारा परेशानी को गहराई से समझने की कोशिश की जाती है।
यह ऐसे होता है: सबसे पहले उस शख्स से कहा जाता है कि समस्या को पहचानें। जो हल हो सकते हैं उनकी लिस्ट बनाएं। उन सबकी एक-एक करके खूबियां और कमियां लिखें। सबसे बेहतर हल को चुनें।
एक्सपोजर थेरपी से फोबिया का इलाज
कुत्ते, छिपकली, कॉक्रोच आदि के फोबिया से इसी थेरपी के माध्यम से मरीज को मुक्त कराया जाता है। मान लें कोई शख्स कुत्ते को देखकर एकदम से घबरा जाता है। अगर किसी शख्स को सबसे कम परेशानी कुत्ते की तस्वीर देखने से है तो थेरपिस्ट उसे सबसे पहले कुत्ते की तस्वीर के साथ 30 से 45 मिनट या फिर इससे ज्यादा वक्त के लिए बैठने को कह सकते हैं।
OCD में भी कारगर: कई लोगों को गंदगी या धूल से बहुत ज्यादा परेशानी होती है। इसलिए वे बार-बार हाथ धोते हैं। ऐसे में थेरपिस्ट धूल की थोड़ी मात्रा उस शख्स की हथेलियों पर रख देते हैं। फिर कुछ समय तक हाथ धोने नहीं देते। यह अंतराल शुरू में 10 मिनट का हो सकता है जो बाद में बढ़ा देते हैँ।
सोशल फोबिया में भी उपयोगी: मुझे लगता है कि गलत बोल दूंगा तो लोग हंसेंगे। यही सोचकर मेरी दिल की धड़कनें बढ़ जाती हैं। मैं नर्वस हो जाता हूं।
काउंसलर का क्रॉस क्वेश्चन: अगर गलती कर भी देते हैं तो आपको सुनने वाले लोग खा तो नहीं जाएंगे। ज्यादा से ज्यादा आप पर हंसेंगे। उन्हें हंसने दें। जिस तरह आपको मंच पर बोलने से परेशानी होती है, उसी तरह सुनने वालों को भी मंच पर बोलने में परेशानी होती है। 90 फीसदी लोग आपसे बेहतर नहीं होंगे।
उपाय: पहले 20 लोगों के सामने बोलने के लिए कहा जाता है। फिर 40 लोगों के सामने, फिर 100 लोगों के सामने। बोलते समय मरीज का उत्साहवर्धन किया जाता है।
फैमिली थेरपी इसमें जरूरी
जब कोई बच्चा डिप्रेशन में चला जाए तो ऐसे मामलों में फैमिली थेरपी की जरूरत पड़ती है। क्लिनिकल साइकॉलजिस्ट परिवारवालों से मिलकर यह जानने की कोशिश करते हैं कि उनका आपस में और बच्चे के साथ कैसे रिश्ता है। अगर संबंध अच्छे नहीं हैं तो स्वाभाविक है कि इसका असर बच्चों पर होगा।
डायलेक्टिकल बिहेवियरल थेरपी (DBT)
यह इमोशंस आदि मैनेज करने के काम आता है। इसमें कॉग्निटिव और एक्सपोजर, दोनों तरह की थेरपी का का काम होता है।
कब किसके पास जाएं इलाज के लिए
दो तरह के साइकॉलजिस्ट
साइकॉलजिस्ट
ऐसे साइकॉलजिस्ट जिन्होंने साइकॉलजी में ग्रैजुएशन, मास्टर्स या पीएचडी की डिग्री ली हो। हालांकि पीएचडी डिग्री वाले साइकॉलजिस्ट भी नाम के आगे डॉक्टर लिखवाते हैं। अगर इन्होंने साइकॉलजी में एमफिल नहीं किया है तो वे मानोवैज्ञानिक उलझन यानी सामान्य काउंसलिंग ही कर सकते हैं। सीधे कहें तो हर दिन की ज़िंदगी में पॉजिटिविटी बनी रहे, इसके लिए सामान्य काउंसलिंग कर सकते हैं। मसलन: कोरोना के वक्त में लोग चिंतित रहने लगे थे। ऐसे लोगों की चिंता दूर करने में इन लोगों की भी भूमिका हो सकती है। उन्हें किसी मरीज को देखने का अधिकार नहीं होता। दवा तो बिलकुल भी नहीं लिख सकते। हां, उन्हें शिक्षण संस्थान में साइकॉलजी विषय पढ़ाने का अधिकार मिलता है।
क्लिनिकल साइकॉलजिस्ट
अगर किसी शख्स ने बीए, एमए, पीएचडी किया हुआ है और साथ में एमफिल इन साइकॉलजिस्ट है तो सोने पर सुहागा, लेकिन अगर उसने पीएचडी नहीं भी की है, पर एमफिल इन साइकॉलजी कर लिया है तो भी वह मरीज को काउंसलिंग देने का अधिकार रखता है। लेकिन दवा नहीं लिख सकता। सीधे कहें तो एमफिल इन साइकॉलजी एक ऐसी डिग्री है जो एक साइकॉलजिस्ट को क्लिनिकल साइकॉलजिस्ट बनाती है। इस डिग्री को लेने के बाद ही उनके पास मरीज को देखने का अनुभव भी आता है। इसलिए जब भी कोई काउंसलिंग के लिए जाए तो यह जरूर देखे कि साइकॉलजिस्ट के पास क्लिनिकल साइकॉलजिस्ट की डिग्री है या नहीं।
-यह भी देखें कि एमफिल इन साइकॉलजी की डिग्री कहां से ली है: अगर क्लिनिकल साइकॉलजिस्ट ने NIMHANS, IHBAS, CIP (Central Institute of Psychiatry) रांची या ऐसे ही दूसरे अच्छे संस्थान से डिग्री ली है तो यह स्वाभाविक है कि उसने ट्रेनिंग के दौरान बहुत ज्यादा मरीजों को देखा होगा।
-ऐसे काउंसलर अमूमन ट्रेनिंग के दौरान उन सेशन और सवालों से खुद भी गुजरते हैं जिनका उपयोग आगे मरीजों को देखने के लिए किया जाता है। इससे उन्हें बात करने का सही तरीका और सवालों की जानकारी हो जाती है। अगर किसी के पास ऐसे अनुभव नहीं होंगे तो शायद काउंसलिंग का सेशन उतना जानदार न हो।
थेरपी के दौरान खुद क्या कर सकते हैं-
रिलैक्सेशन टेक्निक
जैसा कि नाम से ही पता चलता है कि वे तरीके जिनसे मन और तन को आराम मिलता हो, लेकिन इसे कैसे करना है, कितनी देर के लिए करना है, कब करना है? ये सभी चीजें क्लिनिकल साइकॉलजिस्ट या फिर सायकायट्रिस्ट बताते हैं।
मेडिटेशन: दिन में 2 बार कम से कम 5-5 मिनट के लिए मेडिटेशन करने से काफी फायदा होता है। इसके लिए कोई शांत जगह खोजें और समतल जमीन पर चटाई बिछाकर बैठें तो ज्यादा फायदा होता है।
डीप ब्रीदिंग: गहरी सांस लेना। सांस सही तरीके से लेना। हमारी सांस की खूबी ऐसी हो:
जब हम सांस अंदर खींचते हैं तो हमारा पेट और छाती बाहर की ओर निकलना चाहिए। इसी तरह जब हम सांस छोड़ते हैं तो पेट और छाती अंदर की ओर आनी चाहिए। आमतौर पर हम ऐसा नहीं करते, ठीक इसका उलटा होता है।
– हमें सांस लेने में जितना वक्त लगता है, उससे ज्यादा वक्त उसे छोड़ने में लगाना चाहिए।
– हर सांस में ये 4 चीजें यानी SSLD का होनी जरूरी हैं:
1. Smooth: सांस हमेशा आराम से लें।
2. Slow: धीमे से लें।
3. Long: लंबी सांस लें।
4. Deep: सांस गहरी हो।
वॉकिंग: सुबह 40 मिनट की वॉक नए विचार लाती है। मन में पॉजिटिविटी भरती है और नेगेटिविटी को दूर करती है। वॉक अकेले करें तो बेहतर है।
पूरी नींद: हर दिन 6 से 8 घंटे की गहरी नींद ज्यादातर मानसिक समस्याओं को पैदा ही नहीं होने देती।
दोस्तों के साथ बातचीत: यह भी रिलैक्स करने का एक सही तरीका है। दिल की बात कहने से भी मन हल्का होता है।
म्यूजिक सुनना या शौक पूरे करना: मन को रिलैक्स करने के लिए यह भी बहुत अच्छा तरीका है। अपनी पसंद के गाने सुनना या फिर पसंद के गानों पर डांस करना। कुकिंग करना आदि।
अगर इन सभी चीजों को ज़िंदगी में शामिल करके रखते हैं तो अमूमन ऐसी परेशानियों से दूर ही रहते हैं। लेकिन इन तरीकों को हर दिन जीवन में ढालना है न कि तब जब यह परेशानी आए।
मेनिया, सिजोफ्रेनिया आदि के मामलों में कैसे हो इलाज
सामान्य मानसिक समस्याओं मसलन: स्ट्रेस, डिप्रेशन या एंग्जाइटी के मामले में अमूमन मरीज को यह पता होता है कि उसे कोई समस्या हो रही है, जिसका इलाज डॉक्टर के पास है। लेकिन मेनिया, सिजोफ्रेनिया जैसी गंभीर परेशानियों में मरीज को पता ही नहीं होता कि वह बीमार है। वह अपनी दुनिया में ही मस्त रहता है। वह अपने इलाज की सहमति देने की स्थिति में नहीं होता। इसलिए ऐसे मरीजों के इलाज में उस शख्स से ज्यादा उसके परिवार के सदस्य जो उसके साथ रहते हों, उनकी भूमिका अहम हो जाती है। वे ही सबसे पहले लक्षणों को देखते हैं और महसूस करते हैं। मरीज को क्लिनिकल साइकॉलजिस्ट या सायकायट्रिस्ट के पास ले जाने, दवा खिलाने और काउंसलिंग कराने तक उनकी अहम भूमिका होती है। सायकायट्रिस्ट के पूछने पर मरीज के लक्षणों के बारे में परिवार के सदस्य ही विस्तार से बताते हैं। इसके बाद ही उनका इलाज शुरू होता है। चूंकि गंभीर बीमारियों में काउंसलिंग की भूमिका से कोई खास फर्क नहीं पड़ता क्योंकि ऐसे मरीज की सोच-समझकर फैसला लेने की क्षमता न के बराबर होती है। इसलिए सामान्य काउंसलिंग से ज्यादा फायदा नहीं होता। उन पर बातचीत का कोई असर नहीं होता। जब उन्हें इलाज के लिए ले जाया जाता है तो पहले दवा आदि देकर उन्हें कुछ सामान्य करने की कोशिश की जाती है। इसके बाद ही आगे की बात की जाती है।
कानून का भी रखना है ध्यान: चूंकि इन बीमारियों में मरीजों को अहसास नहीं होता कि वे बीमार हैं, ऐसे में परिवार और कई बार दोस्तों पर मानसिक और शारीरिक ज्यादा दबाव रहता है। दरअसल, मानसिक रोग के नाम पर कई बार महिलाओं को प्रताड़ित किया जाता रहा है। इसलिए सरकार ने कानून बनाया कि मानसिक रोगी का इलाज शुरू करने से पहले मरीज की सहमति जरूरी है। अगर मरीज तैयार न हो, उसकी स्थिति सहमति देने की भी नहीं है तो स्थानीय पुलिस या कोर्ट की मदद से इलाज कराया जा सकता है। इन्हीं कारणों से कई बार इलाज की प्रक्रिया धीमी भी हो जाती है। फिर भी लक्षण आने पर इलाज जितना जल्दी शुरू हो जाए, उतना बेहतर।
फिल्में भी समझाती हैं हमें
ब्लैक: 2005 में आई इस मूवी में अमिताभ बच्चन और रानी मुखर्जी ने काम किया है। अमिताभ को अल्टशाइमर्स हो जाता है। फिर उनकी स्टूडेंट रानी मुखर्जी मदद करती हैं।
15 पार्क एवेन्यू: 2005 में आई इस मूवी में कोंकणा सेन ने एक सिजोफ्रेनिया के मरीज का किरदार निभाया है।
डियर ज़िंदगी: 2016 में यह फिल्म आई थी। इसमें शाहरुख खान और आलिया भट्ट ने काम किया था। इसमें आलिया को बचपन से ही मानसिक परेशानी रहती है।
एक्सपर्ट पैनल
-डॉ. निमेष जी. देसाई, वरिष्ठ मनोचिकित्सक, पूर्व निदेशक, IHBAS
-डॉ. अनिल निश्चल, प्रफेसर, सायकायट्री, KGMU
-डॉ. राजेश गोयल, सीनियर कंसल्टेंट, वाइस चेयरपर्सन, सायकायट्री, सर गंगाराम
-डॉ. विशाल छाबड़ा, सीनियर कंसल्टेंट, प्रेजिडेंट, दिल्ली सायकायट्री सोसायटी
-अनुपम श्रीवास्तव, माइंड काेच, काउंसलर