चलने का हौसला नहीं रुकना मुहाल कर दिया
ऐ मिरी गुल-ज़मीं तुझे चाह थी इक किताब की
मिलते हुए दिलों के बीच और था फ़ैसला कोई
अब के हवा के साथ है दामन-ए-यार मुंतज़िर
मुमकिना फ़ैसलों में एक हिज्र का फ़ैसला भी था
मेरे लबों पे मोहर थी पर मेरे शीशा-रू ने तो
चेहरा ओ नाम एक साथ आज न याद आ सके
मुद्दतों बा’द उस ने आज मुझ से कोई गिला किया
कुछ तो हवा भी सर्द थी
बात वो आधी रात की रात वो पूरे चांद की
सब से नज़र बचा के वो मुझ को कुछ ऐसे देखता
दिल तो चमक सकेगा क्या फिर भी तराश के देख लें
उस को न पा सके थे जब दिल का अजीब हाल था
मेरी तलब था एक शख़्स वो जो नहीं मिला तो फिर
उस की सुख़न-तराज़ियाँ मेरे लिए भी ढाल थीं
गाह क़रीब-ए-शाह-रग गाह बईद-ए-वहम-ओ-ख़्वाब
उस के ही बाज़ुओं में और उस को ही सोचते रहे ह
शाम की ना-समझ हवा पूछ रही है इक पता
2022-10-09