महात्मा गांधी ने कहा था, ‘भारत की आत्मा गांव में बसती है.’ राष्ट्रपिता ने गांव के विकास पर ज़ोर दिया. आज़ादी के 75 साल बाद भी आज भी बहुत से ऐसे गांव हैं जहां बुनियादी सुविधाओं का अभाव है. कई ग्रामीण इलाकों में पक्की सड़कें तक नहीं हैं, जिस वजह से आज भी मुश्किल समय से एम्बुलेंस नहीं पहुंचती और कई मासूम की जान चली जाती है. बुनियादी सुविधाओं के अलावा गांव में करियर बनाने के भी कम अवसर हैं क्योंकि ज़्यादातर गांव में खेती-बाड़ी या पशुपालन का ही काम होता है. नौकरी की तलाश में लोग शहर जाकर बसते हैं. इसी पलायन की वजह से उत्तराखंड के अंसख्य गांव Ghost Village बन गए. गौरतलब है कि कुछ गांवों ने अपने हालात को बदलने का निर्णय लिया और उन्हीं में से एक है उत्तर प्रदेश के मेरठ का गांव, सिसौला बुजुर्ग (Uttar Pradesh Football Village)
बेरोज़गारी को मारी किक
भारत में फुटबॉल की क्रिकेट जैसी लोकप्रियता नहीं है. उत्तर प्रदेश के मेरठ से 35 किलोमीटर दूर सिसौला बुजुर्ग गांव में क्रिकेट के साथ ही फुटबॉल भी बहुत लोकप्रिय है. ये गांव फुटबॉल खिलाड़ियों के लिए नहीं बल्कि फुटबॉल की गेंद के लिए मशहूर है. नवभारत टाइम्स के अनुसार, इस गांव में रहने वाले तकरीबन 3000 परिवार फुटबॉल बनाकर बेरोज़गारी को किक मार रहे हैं. इस गांव से अब तक कोई महान फुटबॉल खिलाड़ी नहीं चमका, न ही यहां कोई फुटबॉल मैदान है. इसके बावजूद हर साल 30 लाख गेंदे बनाकर ये गांव अपना वर्तमान और भविष्य सुधार रहा है. अमर उजाला के लेख के अनुसार, हर महीने गांव में 1.5 लाख फुटबॉल्स बनाए जाते हैं. गांव के फुटबॉल गेंद बेचकर सालाना 15 करोड़ रुपये तक की कमाई कर रहा है.
महिलाएं बनी आत्मनिर्भर
सिसौला बुजुर्ग के निवासी कपिल कुमार ने बताया कि पहले गांव की हालत ऐसी नहीं थी. महिलाएं भी पुरुषों पर निर्भर रहती थी या खेतों में काम करती थी. फुटबॉल की गेंद ने महिलाओं की किस्मत बदल दी. फुटबॉल सिलने का काम शौकिया तौर पर शुरू किया गया था लेकिन अब इसमें लोगों की दिलचस्पी बढ़ी है, पहले के मुकाबले अब ज़्यादा ऑर्डर भी मिलते हैं. गांव की एक महिला, सरवरी ने अमर उजाला से बात करते हुए बताया कि उनके पति मज़दूरी करते थे जिससे घर चलाने में दिक्कत होती थी. अब वो अपनी तीन बेटियों के साथ फुटबॉल सिलती है जिससे उन्हें आर्थिक मज़बूती मिली है.
ग्रामीणों ने ये भी बताया कि फुटबॉल की गेंद सिलकर कुछ लड़कियों ने अपनी शादी का ख़र्च खु़द उठाया.
नकदी फसल की तरह है फुटबॉल सिलना
चमड़ा काटने और सिलने के एक्सपर्ट गुलाफ्शा खान ने बताया, फुटबॉल सिलने का काम नकदी फसल की तरह है. काम का तुरंत पैसा मिल जाता है और खान ने इसे सीमांत खेती से ज़्यादा बेहतर बताया. एक गेंद की सिलाई के कम से कम 30 रुपये मिल जाते हैं और क्वालिटी अच्छी हो तो इससे ज़्यादा दाम भी मिल जाते हैं.
इस काम में बच्चे भी लगे हैं. पढ़ाई से फुर्सत मिलने पर या जिस दिन स्कूल बंद हो उस दिन बच्चे भी सिलाई का काम करते हैं.
सरकार की मदद के बिना ही बने ‘आत्मनिर्भर’
गांव में शौर्य स्पोर्ट्स कारखाना है, जिसके मालिक मुकेश कुमार ने बताया कि उनके कारखाने में फुटबॉल और वॉलीबॉल दोनों बनाए जाते हैं. उन्होंने बताया कि उनके कारखाने में बने फुटबॉल और वॉलीबॉल दिल्ली, कोलाकाता और मेरठ में सप्लाई किए जाते हैं. सरकारी मदद के बिना ही वो अपना कारखाना चला रहे हैं. फुटबॉल और वॉलीबॉल बनाकर वो महीने के 1.5 लाख रुपये तक कमा रहे हैं.
नवभारत टाइम्स के अनुसार, राज्य सरकार एक सीएफसी बनाने की योजना पर काम कर रही है. इससे ग्रामीणों को अत्याधुनिक गेंद बनाने में मदद मिलेगी. सेंटर पर हर तरह की जानकारी भी मिलेगी. मेरठ में बनने वाला यह फुटबॉल उत्तर प्रदेश की ‘एक ज़िला एक उत्पाद’ योजना के अंतर्गत आता है.