किस्से कहानियों को लेकर सबसे अच्छी बात ये है कि हम इनसे सिर्फ़ सीखते हैं. हम ये जानने की ज़िद नहीं करते कि ये सच है या मात्र कल्पना, हम बस इनसे अच्छी बातें सीखते हैं. बचपन में दादी-नानी की कहानियों ने दयाभाव सिखाया.
आज हम आपको भी एक ऐसी ही कहानी सुनाने जा रहे हैं, जो हमें सिखाती है कि जब आप जरूरतमंदों की खुशी के बारे में सोचते हैं तो आपका फायदा भी निश्चितरूप से होता है. बता दें कि ये कोई कोरी कल्पना नहीं बल्कि सच है.
डिजानदार आटे की बोरियों की कहानी
सोशल मीडिया के तमाम प्लेटफॉर्म्स पर एक तस्वीर समय समय पर वायरल हो जाती है. 20वीं शताब्दी के फर्स्ट हाफ की इस तस्वीर में फूलों के डिजाइन से सजी आटे की बोरियां दिख रही हैं और इसके साथ एक व्यक्ति बैठा है. ये सारी कहानी इन डिजानदार आटे की बोरियों की ही है.
दरअसल, इन बोरियों पर फूलों के डिजाइन इसलिए बनाए गए थे ताकि आर्थिक रूप से कमजोर लाखों लोग इन बोरियों से अपने बच्चों के लिए कपड़े बना सकें.
ऐसा क्यों और कब किया गया?
1920 से 30 के दशक में अमेरिका के खेतों में काम करने वाले लोगों के लिए जीवन बहुत कठिन था. लोग कड़ी मेहनत करने के बाद भी अपने ऊपर उपयोग भर खर्च करने जीतने पैसे भी नहीं बचा पाते थे. ऐसे में उन्होंने अपने जीवन में कुछ ऐसी आदतें अपनाईं जिससे उन्हें गैर जरूरी पैसे न खर्च करने पड़ें. उन्होंने सीखा कि ऐसी कोई भी चीज बर्बाद न करें जो रीसाइकिल हो सकती हो. खेत में काम करने वाले इन मजदूरों व किसान परिवारों के पास जो कुछ भी था, उसका उन्होंने इस्तेमाल करना सीख लिया था. लोग चारे की बोरियों और आटे की थैलियों से कपड़े, अंडरवियर, तौलिये, पर्दे, रजाई और अन्य घरेलू आवश्यकता वाली चीजें बनाते थे.
1939 का साल था, कंसास की महिलाएं भी ऐसा ही कुछ कर रही थीं. वे अपने बच्चों के लिए कपड़े बनाने के लिए आटे के बोरों का उपयोग कर रही थीं. ये बोरे मोटे फैब्रिक से बने हुए थे लेकिन मजबूरी में महिलाओं को ऐसे ही फैब्रिक से बने बोरों को कपड़ों में बदल कर अपने बच्चों को पहनाना पड़ रहा था.
मिल मालिकों ने जो किया वो आज भी याद किया जाता है
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धीरे-धीरे ये बात मिलों के मालिकों तक पहुंच गई कि महिलाएं आटे के बोरों का इस्तेमाल अपने बच्चों के कपड़ों के रूप में कर रही हैं. दया की ये कहानी यहीं से शुरू हुई. एक साथ सभी मिल मालिकों ने अपनी आटे की बोरियों का फैब्रिक बदल दिया. ये अब मुलायम धागे से बनने लगे. इसके साथ ही इन बोरों पर डिजाइन बनाए जाने लगे जिससे जब महिलाएं इनसे अपने बच्चों के लिए कपड़े बनाएं तो वो कपड़े देखने में सुंदर लगें.
मिल मालिकों ने हर बोर पर लगे लेबल को ऐसा रखा जो कुछ एक धुलाई के बाद धुल जाए. ऐसे में बच्चे इस हीन भावना से बच सकें कि उन्होंने बोरों को कपड़ों के रूप में पहना है. कमाल की बात ये थी कि मिल मालिकों ने कभी ये जाहिर नहीं किया कि वे किस मंशा से ये सब कर रहे हैं.
दया के बदले मिला मुनाफा
इस दयाभावना का फायदा मिल मालिकों को भी हुआ. 1940 के दशक तक बैग निर्माता चमकीले रंगों और डिजाइन के साथ बैग बनाने लगे. इसके बाद मिल मालिकों ने यह महसूस किया कि इन डिज़ाइनों और रंगों के कारण उनकी बिक्री में वृद्धि हुई है क्योंकि घर की महिला सबसे आकर्षक कपड़े वाले ब्रांड को चुन रही है.
द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान, अमेरिका में आबादी के लिए सूती कपड़े की कमी हो गई. ऐसे में बैग की कपड़ों के रूप में रीसाइक्लिंग एक आवश्यकता बन गई. सरकार ने भी इसे प्रोत्साहित किया. युद्ध के बाद, बैग न केवल घरेलू बचत का संकेत थे बल्कि इनसे ग्रामीण महिलाओं में फैशन के प्रति समझ भी बढ़ी. महिलाओं को अपना कौशल दिखाने के लिए और निर्माताओं को अपने डिजाइन दिखाने के लिए राष्ट्रीय सिलाई प्रतियोगिताएं आयोजित की गईं. इससे महिलाओं को बोरे से बैग बनाकर बेचने का काम मिला जिससे वे घर चलाने में अपनी मदद कर सकती थीं.
शुरू हुईं सिलाई प्रतियोगिता
1959 कॉटन बैग सिलाई प्रतियोगिता के दौरान कान्सास के काल्डवेल की डोरोथी ओवरऑल द्वारा फ़ीड बोरी से बनाई गई एक पोशाक ने लोगों को अपनी तरफ आकर्षित किया. ये पोशाक सूती बैग के कपड़े से बनाई गई थी. निर्माताओं ने इसमें सफेद फूल का पैटर्न दिया था. इसे वाशिंगटन डीसी में अमेरिकी इतिहास के राष्ट्रीय संग्रहालय में रखा गया.
2012 में सजावटी कला इतिहासकार मार्गरेट पॉवेल ने बताया था कि फ़ीड बोरी से कपड़ों के उपयोग ने ग्रेट डिप्रेशन और द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान लोगों को सुनहरे अनुभव दिए. यह ट्रेंड 19वीं शताब्दी की शुरुआत से 1960 के दशक की शुरुआत तक देखा गया.
पुराना है बोरों से कपड़े बनाने का चलन
कहा जाता है कि कमोडिटी बैग सिलाई की शुरुआत The Great Depression के दौरान हुई और द्वितीय विश्व युद्ध के आसपास तक चली. हालांकि इस सिलाई के रिवाज की उत्पत्ति 100 साल से अधिक पुरानी है. 1890 के दशक में महिलाएं महीन ब्लीच की हुई मलमल और मोटे बर्लेप की बोरियों से आम घरेलू सामान सिला करती थीं. 1920 के दशक तक धागे से रंगे धारीदार व चेक बोरे, रंगीन ड्रेस प्रिंट और चमकीले रंग के ठोस बैग 1930 के दशक के मध्य से लोकप्रिय थे.
जिस तस्वीर से ये कहानी शुरू हुई थी वो तस्वीर 1939 में प्रसिद्ध फोटोग्राफर मार्गरेट बॉर्के-व्हाइट ने कंसास में सनबॉनेट सू आटा मिल में ली थी. लाइफ पत्रिका ने इस तस्वीर के विवरण में लिखा था कि, ‘वेयरहाउस कार्यकर्ता आटे के बोरे को रंगीन प्रिंटेड रखते हैं, जिस गृहणियां अपने बच्चों के लिए कपड़े बनाने के लिए उपयोग करती हैं.