जवाहर लाल नेहरू के पूर्वजों कश्मीर के कौल ब्राह्मण थे। कश्मीर के राजा फर्रुखसियार की तरफ स्कॉलरशिप के बाद पंडित राज कौल 1716 में दिल्ली आ गए। दिल्ली में इन्हें नहर के बगल में रहने के लिए घर दे दिया। यह घर दिल्ली के दिल चांदनी चौक में था। नहर के किनारे रहने की वजह से यह आगे जाकर नेहरू बन गए। इस तरह पंडित राज कौल के वंशज नेहरू बने।
नई दिल्ली : नेहरू परिवार का जब नाम आता है तो सबसे पहले मोती लाल नेहरू, उनकी वकालत, राजसी ठाठबाट, विदेश से पढ़ाई जैसी कई चीजें एक साथ सामने आने लगती हैं। देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के पिता मोती लाल नेहरू के बारे में कई बातें मशहूर हैं। कहा जाता है कि मोती लाल नेहरू अपने जमाने के सबसे महंगे वकील हुआ करते थे। मोती लाल नेहरू मुकदमे के सिलसिले में अक्सर इंग्लैंड जाते थे। वहां के महंगे होटलों में ठहरते थे। उनका रहन-सहन बिल्कुल यूरोपीयन था। कोट पैंट से लेकर घड़ी, महंगी गाड़ी से लेकर शानोशौकत में किसी तरह की कोई कमी नहीं थी। नेहरू परिवार के वंशज कश्मीर के कौल ब्राह्मण हुआ करते थे। बाद में यही कौल परिवार आगे चलकर नेहरू परिवार कहलाया। आखिल कौल ब्राह्मण कैसे नेहरू बन गए। इसके पीछे भी एक रोचक कहानी है।
पिता दिल्ली में थे पुलिस अधिकारी
मोती लाल नेहरू का जन्म 6 मई 1861 में आगरा में हुआ था। इससे पहले मोती लाल नेहरू के पूर्वज कश्मीर के कौल ब्राह्मण थे। राजा फरुर्खसियार की स्कॉलरशिप पर पंडित राज कौल दिल्ली आए। यहां उन्हें रहने के लिए दिल्ली के दिल चांदनी चौक में नहर किनारे घर दिया गया। चूकिं यह घर नहर किनारे था, इसलिए आगे चलकर ये परिवार नेहरू परिवार कहलाया। पंडित राज कौल के पोते का नाम पंडित मंशा राम कौल था। मंशा राम कौल के बेटे पंडित लक्ष्मी नारायण कौल दिल्ली की अदालत में ईस्ट इंडिया कंपनी के पहले वकील थे। लक्ष्मी नारायण कौल के बेटे, पंडित गंगाधर दिल्ली में पुलिस अधिकारी थे। 1857 के विद्रोह के बाद मची उथल-पुथल में उन्हें अपनी नौकरी गंवानी पड़ी। इसके बाद यहां से वे लोग सबकुछ छोड़ कर आगरा चले गए। मंशा राम कौल के साथ उनकी पत्नी जियोरानी और दो बेटे बंशी धर और नंद लाल भी आए गए। महज 34 साल की उम्र में ही गंगाधर का निधन हो गया। उनकी मौत के तीन महीने बाद ही मोती लाल नेहरू का जन्म हुआ। मोती लाल की देखभाल उनके बड़े भाई नंद लाल ने की।
वकालत की परीक्षा में किया सबको हैरान
मोती लाल नेहरू की शुरुआती पढ़ाई अरबी और फारसी में ही हुई थी। उनकी पढ़ाई कानपुर और इलाहाबाद में हुई। वह जब 25 साल के थे तब उनके भाई का निधन हो गया। मोती लाल नेहरू ने अपनी शुरुआती वकालत कानपुर में ही की। उन्होंने 1883 में कानपुर कोर्ट में जब वकालत की परीक्षा दी तो सबको हैरान कर दिया। उन्होंने इस परीक्षा में न सिर्फ प्रथम स्थान हासिल किया बल्कि गोल्ड मेडल भी जीता। यहां तीन साल वकालत के बाद वह इलाहाबाद आ गए। उन पर अपने बड़े भाई नंदलाल नेहरू का बड़ा प्रभाव था। नंदलाल आगरा के बाद कानपुर के बड़े वकीलों में गिने जाते थे। बाद में उन्हें केस के सिलसिले में अक्सर इलाहाबाद जाना पड़ता था। ऐसे में उन्होंने इलाहाबाद में ही उन्होंने अपना घर ले लिया। फिर उनका परिवार भी वहीं रहने लगा। कॉलेज टाइम से ही मोतीलाल नेहरू पश्चिमी सभ्यता से बहुत प्रभावित थे। पंडित नंद लाल का 1887 में निधन हो गया।
मोती लाल नेहरू की दो शादियां
मोती लाल नेहरू ने अपने भाई की मौत के बाद उनके बच्चों की देखभाल की। इस दौरान उनकी पहली पत्नी और बेटे की भी मौत हो गई। इसके बाद स्वरूप रानी से उन्होंने दूसरी शादी की। 14 नवंबर 1889 को जवाहर लाल का जन्म हुआ। जवाहर लाल आगे चलकर देश के पहले प्रधानमंत्री बने। मोती लाल नेहरू का वकालत का करियर बेहद शानदार रहा। वह जब तीस साल की उम्र के थे, उस समय उनकी इनकम 2 हजार रुपये महीना हो गई थी। 40 साल की उम्र पार करते समय उनकी इनकम पांच अंकों में पहुंच गई थी। कहा जाता है उस समय इलाहाबाद हाईकोर्ट में सर जॉन एज चीफ जस्टिस हुआ करते थे। वह मोती लाल की कोर्ट में दी जाने वाली दलीलों से काफी प्रभावित थे। वे अपने केस को बेहद ही असरदार तरीके से रखते थे। उनकी जिरह को सुनने के लिए कोर्ट में भीड़ मौजूद रहती थी।
सबसे मंहगे वकील थे मोती लाल
मोती लाल के क्लाइंट में कई बड़े जमींदरा और तालुकदार हुआ करते थे। साल 1894 में उन्होंने इटावा जिले के लखना राज केस लड़ा था। इस केस की का जब फैसला आया तो उन्हें फीस के रूप में 1 लाख 52 हजार रुपये मिले। मोतीलाल नेहरू के बारे में कहा जाता है कि उनके कपड़े लंदन से सिल कर आते थे। मोती लाल नेहरू की छोटी बेटी कृष्णा की आत्मकथा के अनुसार उनका परिवार वेस्टर्न तौरतरीकों के साथ रहता था। उनके डायनिंग टेबल पर महंगी क्रॉकरीज और छुरी-कांटे हुआ करते थे। उस समय भारत में ऐसा कोई सोच भी नहीं सकता था। कृष्णा के अनुसार उस समय उनके यहां आने वाली आया भी अंग्रेज हुआ करती थी। परिवार के बच्चों को पढ़ाने के लिए अंग्रेजी ट्यूटर आते थे। इलाहाबाद में सड़क पर आई पहली विदेशी कार नेहरू परिवार की ही थी। 1920 के दशक में मोतीलाल नेहरू महात्मा गांधी को सुनने समझने के बाद उनसे काफी प्रभावित हुए। इसके बाद वह महात्मा गांधी के साथ आजादी की लड़ाई में जुट गए। उस समय उन्होंने अपना शानदार वकालत के करियर को छोड़ दिया। मोती लाल ने 1900 में खरीद गया अपना घर स्वराज भवन भी कांग्रेस को दान में दे दिया। कहा जाता है कि उस दौरान जब भी कांग्रेस आर्थिक संकट से गुजरती थी तो मोती लाल नेहरू मदद किया करते थे। मोती लाल नेहरू दो बार कांग्रेस अध्यक्ष भी रहे। 6 फरवरी 1931 को उनका निधन हो गया।