‘डेक पर अंधेरा’ हीरालाल नागर का भारतीय सेना का यथार्थ औपनिवेशिक काल के यथार्थ को प्रस्तुत करता उपन्यास है.
सोशल मीडिया में हम प्रतिदिन कुछ न कुछ पढ़ते रहते हैं-कविता, कहानी, पुस्तक समीक्षा, डायरी-नोट्स, व्यंग्य, हास-परिहास, कला-कीर्तन, फिल्म, दर्शन, आत्म-रचनाएं, गीत-गज़ल, लेख-प्रलेख आदि. कभी-कभी ऐसा भी होता है कि किसी रचना को पढ़कर आत्म-विस्मित हो उठते हैं. कोई रचना महीनों तक याद रहती है. राजनीति पर बात होती है और समाज नीति पर भी. यह सब सोशल मीडिया के खुले मंच पर होता है. वॉट्सऐप पर संवाद की यह सांझी दुनिया एक-दूसरे को देखे बगैर बहुत नजदीक खिसक आती है और हम अपनी रचना से ज्यादा दूसरे की रचना को प्यार करने लगते हैं. आपसी प्यार-मोहब्बत का यह तकाजा भी है.
इस आलोक में ‘सा की बा’ (साहित्य की बात) ने एक ऐसा करिश्मा कर दिखाया कि मुग्ध रह जाना पड़ता है. पिछले 17-18 सितंबर को यही हुआ, जब विदिशा में दूर-दूर से आए लगभग ढाई सौ नए-पुराने लेखक एक जगह एकत्रित हुए. सबने अपनी रचनात्मकता का खुला प्रदर्शन किया. कुछ लेखकों की नई प्रकाशित कृतियों का विमोचन हुआ. कुछ लेखक की नई-पुरानी कृतियों को पुरस्कार दिए गए. कुछ को सम्मानित किया. जो ‘सा की बा’ के संपर्क में हमेशा से बने रहे, उसके संचालन में सहयोग करते रहे, उनका विशेष ध्यान रखा गया. इनमें ख्यातिनामा कवि लेखक लीलाधर मंडलोई, त्रिलोक महावर, कथाकार राजनारायण बोहरे, डॉ. नरेश अग्रवाल, मनोज कुमार श्रीवास्तव, डॉ. पद्मा शर्मा, ड़. अनिता दुबे, वनिता वाजपेयी, मधु सक्सेना और अन्य (जिनका इस समय नाम नहीं याद आ रहा) आदि प्रमुख है.
ऐसे कार्यक्रमों में क्षेत्रीयता का विशेष ख्याल रखा जाता है. लेकिन आश्चर्य तब हुआ जब मेरे उपन्यास ‘डेक पर अंधेरा’ को सम्मानित करने के लिए मुझे भी बुलाया गया. इसके अलावा बाहर से आए रचनाकारों के रचनात्मकता को समझने, उसके मूल्यांकन करने और फिर उनको साथ लेकर चलने की जिम्मेदारी भी सौंपी गई.
‘डेक पर अंधेरा’ भारतीय शांति सेना और श्रीलंका में तमिल टाइगर्स के बीच खूनी संघर्ष की कथा है. किताब घर से जब यह छपकर आया था, तब इसकी काफी चर्चा हुई थी. वरिष्ठ कवि मदन कश्यप ने इसे अपने द्वारा संपादित पत्रिका में इसे धारावाहिक छापा. पत्र-पत्रिकाओं में इस पर नियमित समीक्षाएं छपीं. पल्लव ने अपनी पत्रिका ‘बनास जन’ में इसकी विस्तृत समीक्षा भी छापी थी. इसकी प्रसंशा प्रख्यात लेखक असग़र वज़ाहत साहब ने भी की है.
सुप्रसिद्ध लेखक और महात्मा गांधी हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा के पूर्व कुलपति विभूतिनारायण राय ने इस पर विश्वविद्यालय परिसर में गोष्ठी करवाई. चर्चा में किताब पर सबसे अच्छी बातचीत उस समय वहां पर तैनात प्रो. सूरज पालीवाल और प्रख्यात कथाकार दूधनाध सिंह ने की थी. इंदु शर्मा अंतराष्ट्रीय कथा सम्मान इसे मिलते-मिलते रह गया. यह बात मंच से भाई तेजेन्द्र शर्मा ने ही कही थी.
बहरहाल, ‘सा की बा’ ने एक बार फिर उपन्यास ‘डेक पर अंधेरा’ को चर्चा के केंद्र में ला खड़ा किया. इस पुस्तक की भूमिका लिखने वाले प्रख्यात कवि-लेखक-संपादक-पत्रकार सुधीर सक्सेना कहते हैं कि यह उपन्यास हिन्दी में अकेला उपन्यास है जो युद्ध की पृष्ठभूमि पर है, मगर साहित्य की राजनीति बड़ी अलबेली है. चंद आलोचक और कुछ वर्चस्वधारी लेखक ही यह तय कर लेते हैं कि पुरस्कार किसे देना है. इस स्थिति में ‘सा की बा ‘ यह की पहल महत्वपूर्ण और उल्लेखनीय है. इसके लिए इसके अध्यक्ष ब्रज श्रीवास्तव, सचिव मधु सक्सेना, वनिता वाजपेयी आदि बधाई और धन्यवाद के पात्र हैं.
डेक पर अंधेरा (Dek Par Andhera by)
‘डेक पर अंधेरा’ कवि-कथाकार हीरालाल नागर का कथा-कोलाज है. यह उपन्यास भारतीय सेना का यथार्थ औपनिवेशिक काल का यथार्थ है. सेना जैसा कि नाम से ही विदित है- वह सख्त कानूनों की ऐसी दुनिया है, जो जवानों को मूक बना देती है. और इस मूक और स्याह दुनिया का एक भयावह सच है, जिसे लेखक ने दुनिया के सामने लाने का प्रयास किया है.
अंधेरा सिर्फ जलपोत के डेक पर नहीं है, वरन् इस दुनिया में अपने कहीं ज्यादा भयावह रूप में विद्यमान है. यह वह लोक है, जहां सैनिक जमीन और लकड़ी के फट्टों पर सोते हुए बेहतरीन सपने देखते हैं.
हीरालाल नागर ने भावनाओं को परे रखते हुए यथार्थ को उपन्यास की शक्ल दी है. ‘डेक पर अंधेरा’ एक अदेखी दुनिया को उजागर करता है. इस दुनिया में साहस है, रोमांच है. इस उपन्यास में पाठक लेखक के साथ चेन्नई, पलाली, जाफना और वावूनिया की सैर करता हुआ उन बीहड़ मैदानों से गुजरता है, जहां आशंकाएं हैं, खतरे हैं, जोखिम हैं. गोलियों, बारूदी-धमाकों और विस्फोटों का अंतहीन सिलसिला है.