गुजरात 2002 दंगाः ज़किया जाफ़री की याचिका ख़ारिज करने के सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले पर पूछे जा रहे ये सवाल

ज़ाकिया जाफ़री

सुप्रीम कोर्ट की एक बेंच ने 24 जून के अपने फ़ैसले में 2002 गुजरात दंगे की जांच के लिए बनी एसआईटी या स्पेशल इन्वेस्टिगेशन टीम की रिपोर्ट पर मुहर लगा दी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सहित 60 से ज़्यादा लोगों को क्लीन चिट दे दी है.

अदालत का ये आदेश दंगे में मारे गए पूर्व कांग्रेस सांसद एहसान जाफ़री की पत्नी ज़किया की याचिका पर आया जिसे अदालत ने खारिज कर दिया.

याचिका में एसआईटी रिपोर्ट को चुनौती दी गई थी, यानी इसमें 2002 गुजरात दंगों में उच्च पदों पर बैठे लोगों के कथित षड्यंत्र की बात की गई थी.

करीब 450 पन्नों के आदेश में जस्टिस एएम खानविल्कर, जस्टिस दिनेश माहेश्वरी और जस्टिस सीटी रविकुमार की बेंच ने एसआईटी जांच की तारीफ़ की और कहा, “जांच के दौरान एसआईटी की निष्क्रियता या पक्षपाती रवैये के बारे में लगे आरोप हास्यास्पद हैं.”

बेंच ने कहा कि “हम एसआईटी अफ़सरों की टीम के चुनौतीपूर्ण माहौल में थका देने वाले काम की तारीफ़ करते हैं, और इसके बावजूद वो सकुशल अपने काम को अच्छे से पूरा करने में सफल हुए हैं.”

दंगों में लगे आरोप

गुजरात दंगे में आरोप लगे थे कि हिंसा पूर्व नियोजित थी और हिंसा करने वाली भीड़ को कथित आधिकारिक छूट मिली थी.

लेकिन बेंच ने कहा कि बड़े स्तर पर पूर्व की प्लानिंग, साज़िश और वरिष्ठ अधिकारियों के शामिल होने के आरोप अप्रमाणित रहे और उनके शामिल होने को लेकर संदेह की भी गुंजाइश नहीं है.

आँकड़ों के मुताबिक़, गुजरात दंगों में 1000 से ज़्यादा लोग मारे गए थे जिनमें ज़्यादातर मुसलमान थे. इससे पहले गोधरा ट्रेन में आग लगने से करीब 60 हिंदू मारे गए थे.

दंगों में गुलबर्ग सोसाइटी नरसंहार में एहसान जाफ़री सहित 69 लोग मारे गए थे.

ज़किया जाफ़री ने गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी समेत 63 लोगों के ख़िलाफ़ शिकायत दर्ज कराई थी जिसके आधार पर सुप्रीम कोर्ट ने एसआईटी का गठन किया था.

एसआईटी ने अपनी रिपोर्ट 2012 में दी थी.

भाजपा नेता और गृहमंत्री अमित शाह ने सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले का स्वागत किया और एक साक्षात्कार में कहा, “मोदी जी से भी पूछताछ हुई लेकिन किसी ने प्रदर्शन नहीं किया, पूरे देश के कार्यकर्ता मोदी जी के साथ एकजुटता में इकट्ठा नहीं हुए. हमने कानून के साथ सहयोग किया. मैं भी गिरफ़्तार हुआ. हमने प्रदर्शन नहीं किया. जब इतनी लंबी लड़ाई के बाद सच, जीत के साथ बाहर आता है तो वो सोने से भी तेज़ चमकता है.”

गुलमर्ग सोसाइटी का घर

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तीस्ता सीतलवाड़, श्रीकुमार, संजीव भट्ट पर अदालती टिप्पणियां और प्रतिक्रियाएं

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भाजपा नेता और मीडिया का एक हिस्सा जहां सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले को एक बार गुजरात दंगे में उस वक्त के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ़ दो दशकों से जारी कथित दुष्प्रचार के खोखले होने का एक और सुबूत बता रहा है, वहीं अदालती आदेश के कुछ पक्षों को लेकर टिप्पणियां भी आ रही हैं.

92 पूर्व नौकरशाहों ने सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर एक संयुक्त पत्र में कहा है, “एक आश्चर्यजनक टिप्पणी में सुप्रीम कोर्ट ने स्पेशल इन्वेस्टिगशन टीम के अधिकारियों की तारीफ़ की जिन्होंने सरकार को बचाया और एसआईटी के निष्कर्ष को चुनौती देने वाले अपीलकर्ताओं को उधेड़कर रख दिया.”

नौकरशाहों की सूची में वजाहत हबीबुल्ला, एएस दुल्लत, हर्ष मंदर, अमिताभ पांडे, जीके पिल्लई, के सुजाता राव, जूलियो रिबेरो, एनसी सक्सेना और जावेद उस्मानी जैसे नाम शामिल हैं.

दरअसल, सुप्रीम कोर्ट के आदेश में कार्यकर्ता तीस्ता सीतलवाड़ और गुजरात में पूर्व वरिष्ठ पुलिस अफ़सर आरबी श्रीकुमार पर तीखी टिप्पणी की गई, जिसके बाद बिजली की रफ़्तार से कार्रवाई करते हुए पुलिस ने उन्हें हिरासत में ले लिया.

अदालत ने कहा, “दिन के आखिर में ऐसा लगता है कि गुजरात राज्य के असंतुष्ट अफ़सरों और दूसरे कुछ लोगों की मिली जुली कोशिश सनसनी पैदा करना था, और उन्हें जानकारी थी कि उसका आधार झूठ है.”

अपने आदेश में अदालत ने कहा, “जिन सभी ने इस प्रक्रिया का दुरुपयोग किया है, उन्हें कटघरे में खड़ा करने की ज़रूरत और उनके ख़िलाफ़ कानून के अंतर्गत कार्रवाई करने की ज़रूरत है.”

आदेश के एक दिन बाद भाजपा नेता अमित मालवीय ने ट्वीट किया, “गुजरात पुलिस ने फ्रॉड ऐक्टिविस्ट तीस्ता सीतलवाड़ और पूर्व आईपीएस अफ़सर आरबी श्रीकुमार को गिरफ़्तार कर लिया है, जिन पर गुजरात दंगा जांच में झूठे दस्तावेज़ बनाने का आरोप है… वो अब संजीव भट्ट के साथ होंगे जो पहले से ही जेल में हैं.”

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संजीव भट्ट के बारे में अदालत ने लिखा, “संजीव भट्ट का हाल तो और बुरा है. उन्हें हत्या और किसी और राज्य में एक वकील के कमरे में नशीली दवा छिपाने का दोषी पाया जा चुका है. उन्होने दावा किया था कि वो 27 फ़रवरी 2002 को बुलाई गई मीटिंग का हिस्सा थे. लेकिन उस मीटिंग में मौजूद सभी अफ़सरों ने इस दावे से इनकार किया है.”

पीएम मोदी को क्लीन चिट के ख़िलाफ़ ज़किया जाफ़री की याचिका ख़ारिज

ये तस्वीर एक मार्च 2002 को गुजरात के अहमदाबाद की है.

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भविष्य को लेकर आशंकाएं

पत्रकार और लेखक किंग्शुक नाग 2002 में गुजरात में अख़बार टाइम्स आफ़ इंडिया के संपादक थे और उन्होंने दंगों को कवर किया था. उन्होंने बीबीसी से कहा कि उन्होंने कभी नहीं सोचा था कि गुलबर्ग सोसाइटी हिंसा और उसके असर के लिए तीस्ता और श्रीकुमार को ज़िम्मेदार ठहराया जाएगा.

मद्रास हाई कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश जस्टिस के चंद्रू के मुताबिक इस तरह के ‘रिवेंज जस्टिस’ से भविष्य में सच के लिए आवाज़ उठाने वाली ग़ैर-सरकारी संस्थाएं और आम लोगों की आवाज़ बंद हो जाएगी.

पूर्व नौकरशाहों ने अदालत से पैरा 88 से तीस्ता सीतलवाड़ आदि पर टिप्पणी को हटाने की दरख्वास्त करते हुए अपने पत्र में ये भी पूछा कि क्या सुप्रीम कोर्ट ने ये फ़ैसला कर लिया है कि याचिकाकर्ताओं और उनके वकीलों के ख़िलाफ़ इसलिए कार्रवाई होनी चाहिए क्योंकि वो परिश्रमी हैं और उस पर लगे हुए हैं?

पत्र में नौकरशाहों ने पूछा, “एनएचआरसी रिपोर्टों और एमिकस क्यूरी राजू रामचंद्रन की रिपोर्ट का क्या…जिसमें कहा गया था कि उस वक्त के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की भूमिका की जांच की जानी चाहिए?”

साथ ही पत्र में लिखा है कि सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसलों में ऐसे शब्दों का प्रयोग पहले नहीं किया गया.

पूर्व गृह सचिव जीके पिल्लई के मुताबिक अदालतें सरकारों पर बहुत आसानी से भरोसा कर रही हैं.

तीस्ता सीतलवाड़ की हिरासत पर उन्होंने कहा, “वो कानून नहीं तोड़ रही हैं. वो संविधान में याचिका दायर करने, रिव्यू याचिका आदि दायर करने के अपने लोकतांत्रिक अधिकारों का इस्तेमाल कर रही हैं जो उन्हें संविधान ने दिया है.”

जीके पिल्लई के मुताबिक़, जब तीस्ता सीतलवाड़ आदि के ख़िलाफ़ शिकायत आई तो पुलिस को मामले की जांच करनी चाहिए क्योंकि अख़बार में छपी रिपोर्ट सही और ग़लत दोनों हो सकती है.

वो कहते हैं, “जज को पुलिस से पूछना चाहिए था, क्या आपके पास जजमेंट की कॉपी है? क्या आपने मामले की जांच की?”

पत्र में सुप्रीम कोर्ट के 2004 के जस्टिस दोराईस्वामी राजू और अरिजीत पसायत के बेस्ट बेकरी मामले में रीट्रायल के आदेश का भी हवाला दिया गया.

आदेश में बेंच ने कहा था, “जब बेस्ट बेकरी और मासूम बच्चे और असहाय महिलाएं जल रहे थे, तब आज के ज़माने के नीरो कहीं और देख रहे थे और शायद विचार कर रहे थे कि अपराध के दोषियों को कैसे बचाया जा सकता है.”

रोम साम्राज्य के पांचवें राजा नीरो को एक निर्दयी राजा के रूप में याद किया जाता है.

जस्टिस पसायत ने संपर्क करने पर कोई भी टिप्पणी करने से इनकार कर दिया.

सुप्रीम कोर्ट की तीस्ता सीतलवाड़ और श्रीकुमार पर की गई टिप्पणियों पर सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज जस्टिस मदन लोकुर ने एक इंटरव्यू में कहा, “जब आप किसी केस को खारिज कर रहे हैं, ये सब कहने की कोई ज़रूरत नहीं… ये क्यों कहने की ज़रूरत है कि हम ये केस खारिज कर रहे हैं और हम चाहते हैं कि आप पर कार्रवाई हो क्योंकि आप झूठा मामला लेकर आए हैं. ये ऐसे वक्त जब अदालतों में हज़ारों-हज़ार झूठे केस दायर किए जाते हैं… उन झूठे मामलों का क्या जिन्हें पुलिस फ़ाइल करती है? क्या अदालत झूठे केस दायर करने के लिए पुलिस पर कार्रवाई करेगी?”

एक अन्य लेख में जस्टिस लोकुर ने कहा कि अगर सुप्रीम कोर्ट के जजों ने अपने आदेश में तीस्ता सीतलवाड़ की गिरफ़्तारी की बात नहीं की तो उन्हें तीस्ता की बिना शर्त रिहाई के लिए आदेश देना चाहिए और गिरफ़्तारी को रद्द करना चाहिए.

तीस्ता सीतलवाड़ को 2007 में पद्मश्री से सम्मानित किया गया था. तीस्ता, श्रीकुमार एवं संजीव भट्ट पर गुजरात दंगा मामले में सुबूत गढ़ने का आरोप है.

अहमदाबाद सिविल अस्पताल के बाहर तीस्ता सीतलवाड़

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एमिकस क्यूरी रिपोर्ट बनाम एसआईटी रिपोर्ट

मोदी समर्थक गुजरात दंगो में नरेंद्र मोदी के खिलाफ़ लगे आरोपों को राजनीतिक साज़िश बताते रहे हैं.

सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले पर गृहमंत्री अमित शाह ने कहा, “सब जानते हैं कि तीस्ता सीतलवाड़ जी की एनजीओ कर रही है. उस वक्त जो यूपीए की सरकार आई, उसने ढेर सारी मदद की है तीस्ता सीतलवाड़ के एनजीओ की. सबको मालूम है. पूरे लुटियंस दिल्ली को मालूम है.”

लेकिन गुज़रे दो दशकों में गुजरात दंगों में न्याय प्रक्रिया, एसआईटी रिपोर्ट, अदालती कार्रवाइयों आदि पर लगातार सवाल उठे हैं.

करीब दस साल पहले लगभग साढ़े पांच सौ पन्नों में कई तर्क देने के बाद एसआईटी ने आखिरी रिपोर्ट फ़ाइल की थी.

रिपोर्ट में आखिरी पन्ने पर लिखा गया, “एसआईटी की ये सोच है कि कानून की धाराओं के अंतर्गत श्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ़ कोई भी अपराध नहीं बनता.”

हालांकि, एमिकस क्यूरी राजू रामचंद्रन ने लिखा था कि विभिन्न गुटों के बीच दुश्मनी फैलाने की आईपीसी की विभिन्न धाराओं के अंतर्गत नरेंद्र मोदी के खिलाफ़ मामला बनता था.

दरअसल मामला दंगों के दौरान 2002 की एक मीटिंग का है जिसके बारे में आरोप लगे कि मुख्यमंत्री मोदी ने कथित तौर पर हिंदुओं को अपना गुस्सा निकालने की बात की थी.

पूर्व गुजरात मंत्री हरेन पांड्या और संजीव भट्ट का दावा था कि नरेंद्र मोदी ने ऐसी बात कही. लेकिन वहां मौजूद दूसरे अफ़सरों ने इनकार किया कि तत्कालीन मुख्यमंत्री ने ऐसा कुछ कहा.

एमिकस क्यूरी राजू रामचंद्रन ने रिपोर्ट में कहा था कि ये मामला संजीव भट्ट के शब्द बनाम दूसरे अफ़सरों के शब्दों का है और एसआईटी ने वरिष्ठ अफ़सरों की बात मानी है, और ऐसा लगता नहीं कि बिना किसी आधार के एक पुलिस अफ़सर इतनी गंभीर बात कहेगा.

सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश में श्रीकुमार को एक “असंतुष्ट अफ़सर” करार दिया और मीटिंग में नरेंद्र मोदी के बोले गए कथित वक्तव्य को “कल्पनाशक्ति से गढ़ी हुई कहानी” बताया.

पूर्व गृह सचिव जीके पिल्लई कहते हैं कि आप एसआईटी रिपोर्ट से सहमत हों या न, लोकतंत्र में जहां कानून सर्वोपरि होता है वहां सुप्रीम कोर्ट का आदेश आखिरी आदेश होता है.

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संजीव भट्ट

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तत्कालीन मुख्यमंत्री से सवाल-जवाब

साल 2010 में जब तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद मोदी गांधीनगर में एसआईटी दफ़्तर में पेश हुए तो ये पहली बार था जब किसी जांच एजेंसी ने किसी मुख्यमंत्री से सांप्रदायिक हिंसा में कथित मिलीभगत के लिए पूछताछ की हो.

पत्रकार और लेखक मनोज मिट्टा किताब “मोदी और गोधराः द फ़िक्शन ऑफ़ फ़ैक्ट फ़ाइंडिंग” में लिखते हैं कि एसआईटी की जांच 12 महीने चली और 163 गवाहों के बयान लिए गए और ये सब शुरुआती जांच के तहत हुआ. उनसे पूछताछ की ज़िम्मेदारी रिटायर्ड सीबीआई अफ़सर एके मल्होत्रा ने की थी.

मिट्टा लिखते हैं, “उनसे कम से कम 71 सवाल पूछे गए. उनके जवाब वाले हर पन्ने पर मोदी के हस्ताक्षर थे और ये पन्ने दिखाते हैं कि मल्होत्रा ने ध्यान से किसी भी जवाब को चुनौती नहीं थी, चाहे वो जवाब कितने ही विवादास्पद हों.”

किताब के मुताबिक, जब नरेंद्र मोदी से गुलबर्ग सोसाइटी पर हमले के बारे में और उस पर कार्रवाई के बारे में पूछा गया तो उन्होंने कहा कि उन्हें रात में कानून व्यवस्था की मीटिंग में नरोदा पाटिया और गुलबर्ग सोसाइटी पर हमले के बारे में पता चला.

ये हत्याकांड दिन में हुआ था. दरअसल सवाल उठे हैं कि कैसे तत्कालीन मुख्यमंत्री को इन हत्याकांड के बारे में समय चलते पता नहीं चल पाया ताकि वक़्त पर उसे रोकने के लिए कोई ठोस कार्रवाई हो पाती.

मनोज मिट्टा के मुताबिक, एसआईटी ने नरेंद्र मोदी के दावों को चुनौती नहीं दी और उनके दावों को मान लिया कि उन्हें गुलबर्ग सोसाइटी में हुए हत्याकांड के बारे में घटना के वक्त जानकारी नहीं मिली.

वो लिखते हैं, “मोदी के इस दावे पर कि उन्हें कुछ नहीं पता था, संदेहास्पद सुनाई पड़ते हैं क्योंकि 28 फ़रवरी को उनका कुछ काम गुलबर्ग सोसाइटी से मात्र तीन किलोमीटर की दूरी पर था.”

एसआईटी रिपोर्ट के 261वें पन्ने के मुताबिक नरेंद्र मोदी ने इनकार किया कि दंगों के दौरान एहसान जाफ़री से उनके पास मदद के लिए फ़ोन आया था और ऐसा कोई सुबूत भी नहीं है कि ऐसी कोई टेलीफ़ोन बातचीत हुई.

जस्टिस के चंद्रू कहते हैं, “अगर सुप्रीम कोर्ट सच्चाई पता लगाना चाहता, तो उन्हें इस मुद्दे पर और जांच का आदेश देना चाहिए था और पहले से इकट्ठा किए गए रेकॉर्ड पर नहीं जाना चाहिए था.”

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शवों की कथित परेड से भड़की हिंसा?

आरोप हैं जिस तरह से गोधरा ट्रेन में लगी आग से मरे लोगों के शवों को विश्व हिंदू परिषद के जयदीप पटेल को सौंपा गया और कालूपुर रेलवे स्टेशन से अहमदाबाद के सिविल अस्पताल तक शवों को लाया गया जिससे माहौल खराब हुआ.

मनोज मिट्टा की किताब के मुताबिक जब एसआईटी ने नरेंद्र मोदी से गोधरा ट्रेन अग्निकांड में मारे गए लोगों के शवों को अहमदाबाद लाने और जयदीप पटेल के बारे में पूछा, तो उन्होंने कहा कि शवों की कस्टडी ज़िला प्रशासन, पुलिस अफ़सरों और अस्पताल अधिकारियों के पास थी.

मनोज मिट्टा के मुताबिक अगर एसआईटी ने मोदी से पलट कर पूछा होता कि शवों को लेने वाले दस्तावेज़ पर फिर वीएचपी की तरफ़ से हस्ताक्षर क्यों किए गए थे, तो उसका जवाब आसान न होता.

मिट्टा के मुताबिक कानून इस बात की इजाज़त नहीं देता कि मृत व्यक्ति के शव की कस्टडी उसके अभिभावक या कानूनी उत्तराधिकारी के अलावा किसी को दी जाए.

सुप्रीम कोर्ट ने अपने ताज़ा आदेश में कहा कि शवों को बंद गाड़ियों में पुलिस के पहरे में ले जाया गया और जयदीप पटेल मात्र साथ थे.

आदेश के मुताबिक, “ऐसे कोई ज़रा सी भी चीज़ नहीं है जिससे इशारे मिले कि शवों को खुली गाड़ियों में या उन्हें गोधरा से अहमदाबाद तक परेड किया गया या अंतिम संस्कार से पहले निजी लोगों के गुट के द्वारा ले जाया गया. शवों को अहमदाबाद ले जाने का फ़ैसला स्थानीय स्तर के अधिकारियों का जागरुक और एकमत फ़ैसला था और ये उस वक्त के मुख्यमंत्री के आदेश या दिशा-निर्देश पर नहीं किया गया जैसा कि आरोप लगाया जा रहा है. ऐसा इसलिए किया गया क्योंकि ज़्यादातर मृत लोग अहमदाबाद और नज़दीकी इलाकों के थे.”

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राहुल शर्मा और सीडी का क्या हुआ?

साल 2004 में गुजरात आईपीएस अफ़सर राहुल शर्मा ने नानावती कमिशन में कॉल रेकॉर्ड की दो सीडी जमा की थीं. नानावती कमीशन गुजरात दंगों की जांच कर रही थी.

इस डेटा से मंत्रियों, नौकरशाहों, वीआईपी, और कई दूसरे लोगों के मोबाइल नंबर की मदद से उनकी गतिविधियों को ट्रैक करने में मदद मिली थी.

इन कॉल रेकॉर्ड्स के आधार पर मीडिया में कई कहानियां छपीं.

मनोज मिट्टा अपनी किताब में कहते हैं, “इसका फ़ायदा ये हुआ कि गुजरात दंगे के मोबाइल फ़ोन सुबूत के आधिकारिक तौर पर आम हो गए. इससे वकीलों, कार्यकर्ताओं, पीड़ितों के लिए शर्मा की सीडी का हवाला देना सुलभ हो गया ताकि वो माया कोडनानी, जयदीप पटेल और वरिष्ठ पुलिस अफ़सरों के खिलाफ़ दंगा मामले में कार्रवाई का दबाव बना सकें.”

जस्टिस के चंद्रू के मुताबिक इलेक्ट्रॉनिक डेटा को पेश करते वक्त कुछ तरीकों का पालन करना पड़ता है.

वो कहते हैं, “उन मामलों में जब अपराध करने वाले सत्ता में हों तो अदालत के सामने पूरा सुबूत पेश करना और उसे संतुष्ट करना मुश्किल होगा.”

उधर सुप्रीम कोर्ट ने अपने फ़ैसले में सीडी के बारे में कहा, “एसआईटी ने कॉल रेकार्ड्स की जांच की और पाया कि वो निराधार हैं.”